मानसून सत्र में चीन, कोरोना और जीडीपी


संसद का मानसून सत्र इस बार विशेष परिस्थितियों में सोमवार 14 सितम्बर से शुरू हो रहा है। आमतौर पर यह वो समय है जब संसद का सत्रावसान होता है। अन्य वर्षों में संसद का मानसून सत्र 15 या 20 जुलाई के आसपास शुरू होकर 15 -20 अगस्त तक संपन्न हो चुका होता है। इस बार कोरोना के चक्कर में आए व्यवधान के चलते संसद के सत्र में यह बदलाव करना पड़ा है। काफी कुछ बदला भी गया है इस बार पावस ऋतु के इस सत्र के लिए। सरकार और विपक्ष दोनों ही तैयार हैं इस सत्र का सामना करने के लिए। सरकार और संसद के दोनों सचिवालयों ने विशेष व्यवस्था की है और सत्र के दौरान होने वाले कामकाज का एजेंडा तय करने के साथ ही कोरोना से निपटने के विशेष इंतजाम भी कर लिए हैं।

सत्तापक्ष की कोशिश एक पखवाड़े के सत्र में ऐसे विधेयकों को पास करवाने की होगी जो बाद में उसे राजनीतिक फायदा पहुंचा सकें। सत्तापक्ष के पास दोनों सदनों में बहुमत है इसलिए उसे कोई दिक्कत भी नहीं होगी। उधर संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष भी हर संभव यह कोशिश करेगा कि सरकार मानसून सत्र में मन चाहे विधेयक पास न करवा सके, इसलिए विरोध के जरिये संसदीय कामकाज को किसी तरह टालना उसकी प्राथमिकता में होगा। देश की मुख्य प्रतिपक्षी पार्टी कांग्रेस विपक्ष की अन्य पार्टियों के साथ मिल कर सरकार को चुनौती देने का कोई भी मौका इस बार चूकेगी नहीं। लिहाजा इस खेमे की तैयारियां भी जोरों पर हैं।

कांग्रेस ने संसद में बार चीन, कोरोना और अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर सरकार को घेरने की रणनीति बनाई है। वैसे देखें तो अलग-अलग दिखाई देने वाले ये तीनों मुद्दे कहीं न कहीं एक ही हैं और आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए भी हैं। संक्षेप में कहें तो जिस कोरोना ने आज पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है उसका उदय चीन से ही हुआ है जिसका असर विश्व की अर्थ व्यवस्था पर भी पड़ा है और भारत जैसे देश में जहां स्वास्थ्य सेवायें नगण्य हों वहाँ इसके प्रतिकूल प्रभाव अधिक विकराल रूप में देखने को भी मिलते हैं।

भारत की सीमा पर चीन द्वारा पैदा किये गए तनाव की वजह से भी हमारी अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। कांग्रेस ने सीमा विवाद को कोरोना और देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ कर सरकार पर प्रहार करने की रणनीति बनाई है। इसी बहाने अब तक के रिकॉर्ड निचले स्तर पर गई देश की जीडीपी के बहाने भी विपक्ष सरकार को निशाने पर रखने की हर संभव कोशिश भी जरूर करेगा। जीडीपी जिसे अंग्रेजी में ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट कहा जाता है, अर्थशास्त्र का एक ऐसा मुद्दा है जो आम नागरिक की समझ में नहीं आता है। अनपढ़ तो छोड़िये पढ़े-लिखे लोग भी इसके हिंदी अनुवाद सकल घरेलू उत्पाद को नहीं समझ पाते हैं।

वैसे देखें तो आम आदमी को यह समझने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए लेकिन तब यह समझना बहुत जरूरी हो जाता है जब इसका सीधा असर आम उपभोक्ता की जेब पर पड़ता है। आसान और आम इंसान की भाषा में बात करें तो जीडीपी देश के औसत आदमी से सीधा सम्बन्ध रखती है, चाहे वो जो भी हो। इसके बढ़ने से आम इंसान की जेब भारी भी होती है और इसके गिरने या कम होने से जेब ढीली भी हो जाती है, ऐसा ही कुछ आजकल भी हो रहा है। क्या है यह सब जानना जरूरी भी है। गौरतलब है कि संक्रमित करने वाले कोरोना रोग के चलते पूरी दुनिया आर्थिक संकट के एक अजीबोगरीब दौर से गुजर रही है। भारत भी उसका अपवाद नहीं है।

भारत जैसे दुनिया के गरीब मुल्क तो इस महामारी के प्रकोप और उसकी रोकथाम में लगाए गए लॉकडाउन से इस बुरी तरह प्रभावित हो गए कि देश की पूरी अर्थव्यवस्था ही लड़खड़ाने लग गई। भारत की लड़खड़ाती अर्थ व्यवस्था के चलते ही देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर गिर कर अब तक के सबसे निचले पायदान पर आ गई। कुछ लोग इसे अर्थव्यवस्थ के नरम होने के रूप में वर्गीकृत कर रहे हैं लेकिन जिस तेजी और रफ़्तार के साथ देश की अर्थव्यवस्था ढलान पर आई है उसे अर्थव्यवस्था का नरम होना नहीं धड़ाम से नीचे गिरने का ही संकेत माना जाता है।

ये संकेत भविष्य के किये किसी भी हालत में अच्छे नहीं कहे जा सकते। संसद के मानसून सत्र के दौरान विपक्ष कांग्रेस के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था की इसी नाजुक थिति को केंद्र में रखने चीन और इन मुद्दों को कोरोना और चीन से जोड़ कर ही सरकार को कठघरे में रखना चाहता है। मालूम हो कि आभी कुछ दिन पहले ही सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष (2020 -21) की पहली तिमाही के लिए जारी अर्थ व्यवस्था की रिपोर्ट में यह खुलासा किया है कि इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था में 23 .9 की अबतक की सबसे बड़ी तिमाही गिरावट आई है। ये रिपोर्ट सरकार ने ही जारी की है इसलिए यह भी नहीं कह सकते कि किसी ने शरारतन ऐसा किया है।

विपक्ष ने इसी को मुद्दा बनाया है। इस रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल-जून माह की इस अवधि के दौरान कृषि को छोड़ कर विनिर्माण, निर्माण और सेवा समेत सभी क्षेत्रों का प्रदर्शन खराब रहा है। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में इससे पहले जनवरी-मार्च तिमाही में 3.1 प्रतिशत और पिछले साल अप्रैल-जून में 5.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। तिमाही आंकड़े 1996 से जारी किये जा रहे हैं। आसान शब्दों में इसे इस तरह समझा जा सकता है कि एक वित्त वर्ष में कुल कितने रुपये मूल्य का कुल उत्पाद कितना हुआ? कुल उत्पाद में खेती, कारखाने के उत्पादन के साथ ही निर्माण, विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में किये गए कुल कारोबार को भी शामिल किया जाता है। इस कुल उत्पादन से होने वाली आय की तुलना देश की आबादी से की जाती है।

इससे पता चलता है कि देश के इस कुल उत्पाद जिसे सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी कहा जाता है उसमें देश के औसत नागरिक का औसत कितना योगदान है देश की आर्थिक उन्नति का परिचायक समझे जाने वाले इस महत्वपूर्ण पैमाने का आंकलन हर वित्त वर्ष की हर तिमाही में किया जाता है और इस तरह साल में चार बार अप्रैल-जून, जुलाई-सितम्बर, अक्टूबर-दिसम्बर और जनवरी-मार्च में यह आंकलन किया जाता है। सकल घरेलू उत्पाद को प्रस्तुत करने के दो पैमाने होते हैं-स्थिर कीमतें, यानी Constant Prices और मौजूदा कीमतें या वर्तमान मूल्य, यानी Current Prices। स्थिर कीमतें का अर्थ यह हुआ कि किसी एक साल को आधार वर्ष, यानी Base Year मान लिया जाता है, और फिर हर वर्ष उत्पादन की कीमत में तुलनात्मक वृद्धि या कमी इसी वर्ष के आधार पर तय की जाती है, ताकि बदलाव को महंगाई के उतार-चढ़ाव से इतर मापा जा सके।