COVID-19: कभी खुशी कभी गम


एक तरफ पूरी दुनिया में कोरोना से लड़ने के लिए लॉकडाउन को एक अमोघ अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की बात पर जोर दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ अमेरिका के विन्स्कोंसिन में कोरोना वायरस पाबंदी के खिलाफ लोग प्रदर्शन करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं।



कोरोना को लेकर चर्चा करते हुए चार महीने पूरे होने को हैं लेकिन लगता है कोरोना पर बातचीत का यह सिलसिला अभी लम्बे समय तक थमने वाला नहीं है। हर रोज कोरोना को लेकर कुछ नई बात सुनने को मिल रही हैं। कभी यह सुनाई देता है कि कोरोना से होने वाली मौतों की दर धीरे-धीरे कम होती जा रही है तो अगले ही दिन यह भी सुनने को मिल जाता है कि दुनिया के किसी हिस्से में अगर कोरोना मौत कम हो रही हैं तो दुनिया के कुछ इलाके या देश ऐसे भी हैं जहां कोरोना से होने वाली मौतों का सिलसिला बढ़ रहा है। 

एक तरफ पूरी दुनिया में कोरोना से लड़ने के लिए लॉकडाउन को एक अमोघ अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की बात पर जोर दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ अमेरिका के विन्स्कोंसिन में कोरोना वायरस पाबंदी के खिलाफ लोग प्रदर्शन करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। अमेरिका के लोगों को लगता है कि इस तरफ घर में बंद कर उनको अपनी मौत खुद मरने के अधिकार से रोका जा रहा है। 

प्रदर्शन अमेरिका में ही नहीं स्विट्ज़रलैंड में भी हुए लेकिन तरीका और उद्देश्य दोनों ही अलग। अमेरिका में कोरोना पाबंदी के खिलाफ प्रदर्शन हुए तो स्विट्ज़रलैंड में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ प्रदर्शन किया गया। दोनों में एक फर्क था कि अमेरिका के प्रदर्शन में लोग एक दूसरे के कंधे से कंधे मिला  कर प्रदर्शन कर रहे थे तो स्विट्ज़रलैंड में प्रदर्शन कारी एक दूसरे से कमसे कम एक मीटर की दूरी बना कर एक स्थान पर बैठ कर विरोध व्यक्त कर रहे थे। 

स्विट्ज़रलैंड का यह प्रदर्शन भी था तो कोरोना पाबंदी के खिलाफ ही लेकिन उसे नाम दिया गया जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जनता का प्रदर्शन। उधर कोरोना रोग के फैलने के तरीकों, इलाज के उपाय और दवा की उपलब्धता को लेकर आशावादिता के समाचार सुनने को मिल रहे हैं तो दूसरी तरफ ऐसे समाचार भी अब सुनने को मिलने लगे हैं कि वायु प्रदूषण से कोरोना लम्बी दूरी तक फ़ैल सकता है।

गौरतलब है कि इससे पहले यह कहा गया था कि कोरोना वायुमंडल से नहीं बल्कि इंसान के एक दूसरे से के करीब आने से फैलता है। इसलिए सोशल डिस्टेंसिंग का फार्मूला अपनाते हुए लॉकडाउन को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया था। लेकिन अब कहानी बदली हुई है। यूरोप के जिस देश इटली में इस रोग का प्रकोप सबसे पहले शुरू हुआ था और चीन के बाद सबसे अधिक तादाद में इसी देश के लोग कोरोना में ज्यादा मारे गए थे, उसी देश के वैज्ञानिकों ने अपनी ताजा खोज में यह पता लगाया है कि कोरोना का वायरस अब प्रदूषण यानी धूल के कणों में भी पाया जाने लगा है। 

इसका मतलब तो यह हुआ कि अगर लोग लॉकडाउन का पालन करते हुए अपने घरों में में भी बैठे रहें तो भी किसी न किसी रूप में कोरोना वायरस के संक्रमण का शिकार हो सकते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह जनता पहले मलेरिया, डेंगू या इसी तरह के किसी दूसरे रोग के वायरस का शिकार हो जाया करती थी। अगर इटली के शहर रोम के वैज्ञानिकों की इस बात में वजन है तो फिर अमेरिका और स्विट्ज़रलैंड के लोगों द्वारा किये गए या किये जा रहे लॉकडाउन विरोधी प्रदर्शनों को गलत भी नहीं कहा जा सकता। 

बात भी सही है कि अगर इंसान को घर के भीतर भी और घर के बाहर भी कोरोना से संक्रमित होकर मरना ही है तो अपनी का खुद मुख्त्यार होने में हर्ज ही क्या है? हुआ दरअसल ये कि रोम के वैज्ञानिक खोज तो इस विषय पर कर रहे थे कि यह वायरस कितनी दूरी तक जा सकता है लेकिन ये वैज्ञानिक यह जानकर चिंतित भी हो गए कि हवा के कणों में ही यह वायरस मौजूद है। हालांकि इटली के वैज्ञानिकों का यह शोध अभी शुरुआती दौर में ही है लेकिन अगर इसके अंतिम परिणाम भी यही निकले तो क्या होगा? 

कैसे बाख पायेंगे हम इस दानव से? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो भविष्य के लिए चिंताजनक हैं। इस सम्बन्ध में अभी यह पता लगाना बाकी है कि यह वायरस प्रदूषण के कणों में जिन्दा रह सकता है या नहीं। वैज्ञानिक अब इसी दिशा में काम कर रहे हैं कि कोरोना का वायरस प्रदूषण के कणों में जिन्दा रह सकता है या नहीं अगर जिन्दा रहता भी है तो कितनी देर तक। 

वैज्ञानिकों के मुताबिक़ यह पता लगाना बहुत जरूरी है कि वायु प्रदूषण के जरिये यह वायरस कितनी दूर तक जा सकता है? यह जानकारी मिलने पर इस बात का भी पता चल सकता है कि एक मिनट या सेकंड की अवधि में यह वायरस वायुमंडल में रह कर कितने लोगों को संक्रमित कर सकता है। शुरुआती जानकारी यह भी बताती है कि वायु प्रदूषण के कण कोरोना वायरस को हवा में लेकर तो बहुत दूर तक जाते हैं लेकिन कितना नुक्सान कर पाते हैं यह जानना अभी बाकी है। कुल मिला कर कोरोना को लेकर अभी हालात बहुत कुछ पहले जैसे ही हैं। 

अब तो अमेरिका को भी यह लगने लगा है कि भारत से मलेरिया की हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन नामक जो दवाई उसने कोरोना के इलाज के लिए मुफीद मान कर आयात करवाई थी वो भी इसमें कारगर नहीं है। ये बात हम नहीं अमेरिका का खाद्य एवं दवा प्रशासन अमेरिकन फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) कह रहा है। अमेरिका की इस प्रशासनिक इकाई ने इस दवा हाइड्रो क्सी क्लोरो क्वीन के साइड इफेक्ट्स को लेकर चेतावनी भी जारी की है। 

मजेदार बात है कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने इसे बिना जांचे परखे कोरोना के इलाज के लिए भारत से बड़ी तादाद में मंगवा तो लिया लेकिन अब उनके नियंत्रण में ही काम करने वाली एक प्रशासनिक इकाई यह कह रही है कि इस दवा के इस्तेमाल से गंभीर और संभावित जानलेवा नतीजे सामने आ सकते हैं। इसी चेतावनी के साथ अमेरिकी खाद्य और दवा प्रशासन (एफ़डीए) ने इन दवाओं के दुष्प्रभावों पर ध्यान देने की अपील भी है।