बिहार विधानसभा चुनाव में डिजिटल माध्यमों से पार्टी-विचार नहीं व्यक्ति का प्रचार

अमरनाथ झा
बिहार चुनाव 2020 Updated On :

पटना। बिहार विधानसभा के इस चुनाव में डिजिटल माध्यम के इस्तेमाल का नया युग आरंभ हुआ है। कोरोना काल में हो रहे चुनावों के संचालन में चुनाव-आयोग के कठोर दिशानिर्देशों की वजह से डिजिटल माध्यमों का इस्तेमाल एक तरह से मजबूरी हो गई है। इसकी तैयारी में कोई पार्टी पीछे नहीं रहना चाहता, भले जदयू और भाजपा की तैयारी अधिक व्यापक है। इन चुनावों में प्रचार के दौरान पांच से अधिक लोगों के एक साथ नहीं होने पर पाबंदी है। रोड-शो में केवल पांच वाहन ही रह सकते हैं। इस तरह जनमानस को गोलबंद करने का काम फेसबुक औऱ वाट्सअप के माध्यम से ही होने जा रहा है।

इस साल जून में नौ विपक्षी पार्टियों ने चुनाव-आयोग को आवेदन देकर डिजिटल प्रचार का विरोध किया था। उनका कहना था कि यह चुनाव-प्रचार में सबको समान अवसर नहीं मिल सकेगा क्योंकि डिजिटल प्रचार अधिक खर्चिला होता है। विपक्षी पार्टियों का कहना था कि डिजिटल प्रचार से भाजपा को अवांक्षित बढ़त मिल जाएगी। इससे राजनीति अधिक व्यक्ति केन्द्रीत हो जाएगी। डिजिटल प्रचार की अनुमति देने की मांग भारतीय जनता पार्टी ने की थी।

दरअसल भाजपा और विपक्ष की डिजिटल सक्षमता में बहुत भारी फर्क है। भाजपा के पास करीब साढ़े नौ हजार आईटी कार्यकर्ता हैं। लगभग 72 हजार वाट्सअप ग्रुप बनाए गए हैं जिनके सहारे पार्टी अपनी प्रचार सामग्री को हर मतदान-केन्द्र के पास पहुंचाएगी। उसमें पार्टी नेताओं के भाषण, विभिन्न मसलों पर बने विडिओ आदि भेजे जाएगे।

दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस का चुनाव प्रचार अभी आरंभ नहीं हुआ है। उनके पास इस मुकाबला ऑनलाइन अधिसंरचना खड़ा करने की सुविधा, समय या संसाधन नहीं है और ऑनलाइन प्रचार का ऑनलाइन जवाब नहीं दिया जा रहा। वैसे बिहार में स्मार्ट फोन की पहुंच अभी भी 27 प्रतिशत से अधिक आबादी तक नहीं है। पर भाजपा-जदयू के डिजिटल अधिसंरचना का इन चुनावों का एजेंडा निर्धारित करने में निश्चित रूप से प्रमुख भूमिका होगी।

डिजिटल प्रचार मोटे तौर पर वाइरल कंटेंट और वितरण व्यवस्था पर निर्भर है। और भाजपा पहले शुरुआत करने की वजह से सबसे आगे है। उसने चुनावों की घोषणा होने के काफी पहले से इसपर काम करना शुरु कर दिया था। यह काम हर घड़ी, चौबीसों घंटा चलने वाला काम है। पार्टी ने वर्चुअल रैली करने लगी है। हालांकि वर्चुअल रैली अधिक खर्चिला होता है। इनके लिए प्रोजेक्शन स्क्रीन के साथ कई चीजों की जरूरत होती है। इसलिए अमीर पार्टियों को इसमें बढ़त हासिल होगी।

बताते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने डिजिटल माध्यमों पर 27 करोड़ रुपए खर्च किए थे जबकि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने इन माध्यमों पर करीब छह करोड़ खर्च किए। भाजपा की ट्रवीटर फॉलोविंग करीब डेढ़ करोड़ है जो कांग्रेस से करीब दोगुना है। राजद के करीब चार लाख फॉलोवर्स हैं। सोशल मीडिया के इस्तेमाल से 2014 लोकसभा चुनाव में ही प्रचार के तौर-तरीकों में कई बदलाव हुए।

बड़ा बदलाव यह हुआ कि मुद्दा आधारित राजनीति के बदले छवि-आधारित राजनीति शुरु हुई। विचारधारा को व्यक्ति की छवि में समाहित कर दिया गया। तब नरेन्द्र मोदी की छवि बनाई गई। यह डिजिटल माध्यम से चले प्रचार का स्वाभाविक परिणाम था। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की छवि को उनकी पार्टी ने भंजाया औऱ वे तीसरी बार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बन गए। तब चर्चित मीडिया सलाहकार प्रशांत किशोर उनके प्रचार की देखरेख कर रहे थे। इस प्रचार का सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि समूचे प्रचार अभियान का पूरी तरह केन्द्रीकरण हो गया।

भाजपा-जदयू गठबंधन को एक अन्य सुविधा भी है कि सोशल मीडिया मोटे तौर पर व्यक्तियों पर केंन्द्रीत होती है। भाजपा-जदयू के पास प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रूप में बड़े लोकप्रिय व्यक्तित्व हैं। इसके उलट कांग्रेस और राजद के नेता खासकर तेजस्वी यादव को अभी आजमाया नहीं गया है। हालांकि डिजिटल प्रचार का एक अन्य प्रभाव यह होता है कि विभिन्न भावनात्मक मुद्दे स्थापित किए जा सकते हैं। वर्तमान चुनाव में आजीविका के संकट, बेरोजगारी, मजदूरों का पलायन जैसे मुद्दे उछल सकते हैं। पर प्रश्न है कि हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों के मुकाबले इन मुद्दों का कितना प्रभाव होगा।