हार कर भी जीते तेजस्वी, लेफ्ट की मजबूती से चिंता में एनडीए


तेजस्वी यादव बेशक बिहार की सता पर काबिज नहीं हो पाए, लेकिन हार कर भी वे जीत गए हैं। नीतीश जीतकर भी हार गए हैं। भाजपा बेशक अच्छी सीटें ले गई है। लेकिन चुनाव में तेजस्वी यादव के प्रबंधन और सफलता से भाजपा भी भयभीत है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
बिहार चुनाव 2020 Updated On :

बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम आ गए है। एनडीए गठबंधन को बहुमत मिल गया है। एनडीए गठबंधन को 125 और महागठबंधन को 110 सीटें मिली है। तेजस्वी यादव बेशक बिहार की सता पर काबिज नहीं हो पाए, लेकिन हार कर भी वे जीत गए हैं। नीतीश जीतकर भी हार गए हैं। भाजपा बेशक अच्छी सीटें ले गई है। लेकिन चुनाव में तेजस्वी यादव के प्रबंधन और सफलता से भाजपा भी भयभीत है।

लालू यादव के जेल में होने के बावजूद तेजस्वी को मिले सीट और वोट प्रतिशत ने साफ बता दिया है कि बिहार की राजनीति में भाजपा की राह आसान नहीं है। लालू परिवार अभी भी राजनीति करेगा, इस चुनाव ने बता दिया है। लालू यादव की अनुपस्थिति में भाजपा के 74 के मुकाबले 75 सीटें लाकर तेजस्वी ने बताया है कि बिहार में नरेंद्र मोदी से बड़े नेता तेजस्वी यादव है। भाजपा को 74 सीटे आयी है। चुनाव परिणाम बताते है कि दोनों गठबंधन के वोटो मे सेंध लगी है।

चिराग ने अगर एनडीए गठबंधन में सेंध लगायी तो ओवैसी ने महागठबंधन में सेंध लगायी है। ओवैसी और मुस्लिम वोट भाजपा के लिए वरदान साबित हो गए। मुस्लिम बहुल सीमांचल में ओवैसी को उम्मीद से ज्यादा  मिली सीटों ने भाजपा के मनोबल को बढ़ाया है। भाजपा को ओवैसी जैसे नेता भविष्य में लाभ देते रहेंगे बिहार चुनाव परिणाम ने साफ कर दिया है। लेकिन लेफ्ट पार्टियों की वापसी ने संकेत दिए है कि भविष्य में आमजन के मुद्दों की राजनीति बिहार में मजबूत होगी।

महागठबंधन मुद्दों पर जीता है। सीटों के हिसाब से हार गया है। बिहार चुनाव में राजनीतिक दलों की हार-जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण चुनावों में बने मुद्दे है। तेजस्वी यादव ने लंबे समय के बाद बिहार में धर्म और जाति की भुमिका को पहले के मुकाबले कमजोर किया है। अपने पिता से अलग तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी, गरीबी, भूखमरी को मुद्दा बना दिया। नीतीश कुमार और भाजपा को तेजस्वी यादव ने डिफेंसिव कर दिया था। एनडीए को भी इस मुद्दे पर जवाब देना पड़ा।

बेशक जीत के बाद भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी को इस जीत का श्रेय दे रहे है। लेकिन भाजपा को पता है कि नरेंद्र मोदी के ताबड़तोड़ प्रचार के बाद भी तेजस्वी यादव ने नरेंद्र मोदी को एक सीट पीछे छोड़ा है। तेजस्वी यादव की पार्टी को 75 सीट मिले है। भाजपा को 74 सीट मिले है। तेजस्वी यादव ने भाजपा और नीतीश को बेरोजगारी, भूखमरी पर जनता से संवाद करने लिए मजबूर किया। तेजस्वी यादव का जवाब भाजपा के पास नहीं था।

एनडीए ने जंगलराज की रट लगाए रखी। इसके बावजूद पहले चरण के चुनाव में जंगलराज पर बेरोजगारी भारी नजर आयी। दूसरे चरण औऱ तीसरे चरण में जरूर जंगलराज का मुद्दा हावी हुआ। दोनों गठबंधनो को मिले वोट साफ संकेत दे रहे है कि कांटे की टक्कर थी, अंतिम समय तक कांटे की टक्कर बनी रही।

भाजपा और नीतीश के लिए चिंता की बात है कि अब राजद यादव मुस्लिम समीकरण से बाहर निकल गए है। यह भाजपा और नीतीश के लिए भविष्य में चिंता का विषय है। लेफ्ट पार्टियों के साथ हुए गठजोड़ ने तेजस्वी यादव को अन्य जातियों का वोट भी दिलवाया। खुद तेजस्वी यादव को भी दूसरी जातियों ने वोट दिया है।

दिलचस्प बात है कि महागठबंधन के कोर वोट मुसलमानों ने सीमांचल में महागठबंधन को वोट नही दिया। उन्होंने औवैसी की पार्टी को वोट दिया। इसका लाभ कई जगहों पर भाजपा को मिल गया। अगर मुसलमान महागठबंधन को वोट देते तो बिहार की तस्वीर कुछ और होती।

तेजस्वी हार कर भी जीत गए है। क्योंकि कांग्रेस ने उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया, इसलिए महागठबंध की हार हो गई है। चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस ने सीटें 70 ली थी। लेकिन 19 सीट ही कांग्रेस को हासिल हुई। कांग्रेस से काफी बेहतर प्रदर्शन लेफ्ट पार्टियों ने किया जो 29 सीटों पर लड़ी और 16 सीटों पर जीत मिली। भविष्य में लेफ्ट और तेजस्वी बिहार में नए तरह के समीकरण पैदा कर सकते है।

भाजपा तेजस्वी की बढ़ती ताकत को समझ रही है। जीत के बावजूद भाजपा खेमे में चिंता है। क्योंकि तेजस्वी यादव अकेले चुनाव लड़ रहे थे। उनके पास संसाधन नहीं थे। जबकि भाजपा की पूरी केंद्र सरकार संसाधनों के साथ प्रदेश में बैठी थी। खुद नरेंद्र मोदी बिहार मे रैलियां कर रहे थे। संसाधन में महागठबंधन में शामिल पार्टियां भाजपा और नीतीश के सामने चुनाव प्रचार में कहीं नहीं टिक पाई। उसके बावजूद कांटे की टक्कर हो गई।

तेजस्वी यादव के पिता जेल में है और वैसे में पूरे कैंपेन को तेजस्वी ने ही सम्हाला। निश्चित तौर पर भविष्य में बिहार की राजनीति में भाजपा की राह आसान नहीं होगी जो नीतीश कुमार को त्यागा कर अपने बल पर खड़ा होना चाहती है। इस चुनाव में भी तेजस्वी यादव की पार्टी का वोट शेयर भाजपा से ज्यादा है। भाजपा को 19.5 प्रतिशत वोट मिला है। जबकि राजद को 23 प्रतिशत वोट मिला है।

भाजपा की चिंता लेफ्ट पार्टियां है। महागठबंधन में शामिल सीपीआई (एमएल) का बेहतर प्रदर्शन भाजपा के लिए चिंता है। सीपीआई (एमएल) के उठाए गए मुद्दे कारपोरेट समर्थक भाजपा को कभी रास नहीं आते है। कांग्रेस ने तेजस्वी यादव की लूटिया डूबायी। अगर कांग्रेस 10 सीट और जीत लेती तो बिहार चुनाव की तस्वीर अलग होती।

बिहार के चुनाव परिणाम बताते है कि बिहार में गठबंधन की राजनीति खत्म नहीं होगी। यह राजनीति चलेगी खूब चलेगी। भाजपा अकेले बिहार में सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती है। भाजपा को 19 प्रतिशत वोट मिला है, तो दोनों क्षेत्रीए दल राजद और जनता दल यू को भी अच्छे वोट मिले है। तेजस्वी की पार्टी राजद को 23 प्रतिशत तो नीतीश की पार्टी जनता दल (यू )को 15 प्रतिशत वोट मिले है। इन परिस्थितियों में बिहार में नीतीश कुमार का सहारा भाजपा को भविष्य में भी चाहिए होगा।

चुनाव में मिले वोट प्रतिशत साफ बताता है कि राजद का महत्व आज भी बिहार में बना हुआ है। यही नहीं इस बार राजद का वोट आधार बढ़ा है। यह पार्टी यादव जाति से बाहर निकल दूसरी जातियों का वोट लेने में सफल रही है। नीतीश की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) की सीटें जरूर घटी है। लेकिन नीतीश का महत्व बिहार प्रदेश की राजनीति में बना हुआ है। अगर भाजपा नीतीश को धोखा देगी तो या उन्हें मुख्यमंत्री पद से वंचित करेगी तो बिहार में महाराष्ट्र जैसी स्थिति पैदा होगी।

नीतीश का पहले भी राजद जैसे दलों के साथ गठबंधन हो चुका है। नीतीश सीपीआई (एमएमल) के साथ भी रहे है। वर्तमान परिस्थितियों में भाजपा कोई रिस्क लेने की स्थिति में नहीं है। भाजपा अगर नीतीश कुमार से मुख्यमंत्री पद को लेकर तनाव पैदा करेगी तो भाजपा महाराष्ट्र की तरह ही बिहार में मात खाएगी। जनता दल (यूनाइटेड) राजद के साथ जा सकती है।

बिहार के भाजपा नेता जनता दल यूनाइडेट से संबंध तोड़ने के लिए दबाव बनाते रहे है। लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने अभी तक समझदारी दिखायी है। भाजपा के दिमाग में अभी भी 2015 के विधानसभा चुनाव का परिणाम दिमाग में है। इस बार का भी चुनाव परिणाम ने संकेत दिए है कि नीतीश कुमार की सीटें बेशक घटी है, लेकिन उनका वोट बैक उनके साथ है। नीतीश कुमार को 15 प्रतिशत वोट मिले है। भाजपा को 19.5 प्रतिशत वोट मिले है। नीतीश की सीटें घटने का मुख्य काऱण चरण के मतदान में ऊंची जातियो का वोट उन्हें नहीं मिलना रहा है।

भाजपा अच्छी तरह से जानती है कि नीतीश भी सामाजिक न्याय की धारा से निकले हुए नेता है। नीतीश का सामाजिक न्याय की धारा से जुड़े हुए अपने कई विरोधी नेताओं से निजी विरोध है, वैचारिक विरोध नहीं है। नीतीश दुबारा लालू यादव के पाले में न चले जाए, इसलिए भाजपा को सावधानी रखनी होगी। वैसे भाजपा सावधान है। तभी बार-बार कह रही है कि नीतीश ही बिहार के मुख्यमंत्री होंगे।

वैसे तो सत्ता एनडीए को मिल गई है, लेकिन गांठ तो पड़ गई है। नीतीश को चिराग पासवान ने नुकसान पहुंचाया है। नीतीश भाजपा को इसके लिए दोषी मान रहे है। चिराग पासवान की पार्टी लगभग 6 प्रतिशत वोट ले गई है। 6 प्रतिशत वोट खासा होता है। बिहार की राजनीति में सिर्फ 1 सीट लेने के बावजूद चिराग पासवान स्थापित हो गए है। बेशक उनके विरोधी उनकी राजनीति को खत्म मान रहे हो।

लेकिन चिराग अगर भविष्य में तेजस्वी यादव के साथ जाते है तो बिहार की राजनीति में नई तस्वीर होगी। इसलिए नीतीश के विरोध के बावजूद चिराग को एनडीए के पाले में रखना भाजपा की मजबूरी होगी। नीतीश केंद्र में चिराग को मंत्री बनाए जाने का विरोध करेंगे। लेकिन चिराग को मंत्री न बनाना भाजपा को महंगा पड़ेगा। शायद भाजपा नीतीश को समझाए कि अगर उन्हें कम सीट मिलने के बावजूद अगर भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री मान रही है तो चिराग को केंद्र में मंत्री बनाने में कोई रूकावट नीतीश न पैदा करे।