छठ पर्व सामाजिक विभेद से रहित देशज महापर्व


इस पूजा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि, भारतीय संस्कृति और आस्था के नाम पर महिला और पुरुष दोनों समान रूप से निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में अपना दखल देते हैं।


डॉ. आकांक्षा
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पिछले कुछ वर्षों में जिन त्योहारों में तेजी आई है छठ पूजा भी उनमें से एक है। मुख्यतौर पर उत्तर भारत में मनाई जानेवाली यह पूजा अब दुनियाभर में प्रचलित हो चली है। ऐसे तो छठ पूजा को लोक-आस्था का पर्व कहा जाता है पर, इसे इस रूप में भी देखना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह कहीं-न-कहीं उस विश्वास का त्योहार भी है, जहां पढ़ाई और कमाने के लिए परदेश गए बच्चों से मां इस दौरान मिल पाने का भरोसा भी रखती है। तमाम महानगरों से भर-भर कर आने वाली गाड़ी-मोटर इस बात की बात गवाही देते हैं कि ये पर्व परिवारों को पास लाने का भी एक अवसर है।

पानी में खड़े होकर सूर्य उपासना का ये पर्व उपासकों के लिए बहुत खास है। आस्था के साथ-साथ अगर इस पर्व को वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो यह ऐसी प्रकृति-पूजा है जो कि पूर्णतौर पर कर्मकांड रहित है और जाति, वर्ग, जेंडर जैसे सामाजिक विभेद से भी पूर्णत: मुक्त है। भारतीय समाज में निवास करनेवाले हर इंसान की किसी-न-किसी रूप में भागीदारी निभानेवाला शायद यह एकमात्र पर्व है।

इस पर्व में बनने वाले प्रसाद में किसी तरह के मशीन का प्रयोग नहीं किया जाता है। इसके लिए मिट्टी के बर्तन और चूल्हे पर, आम की लकड़ी को जलावन के तौर पर उपयोग में लाया जाता है। हालांकि, अब शहरी क्षेत्रों में कुछ-कुछ बदलाव देखने को भी मिल रहा है पर, ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इन नियमों का पालन हो रहा है।

यह भी कहा जा सकता है कि यह एक तरह से कृषि-व्यवस्था पर निर्भर रहनेवाला पर्व है क्योंकि, इस पूजा में उन्हीं चीजों को प्रसाद के तौर पर उपयोग में लाया जाता है जो कि आसानी से संभव है जैसे, चावल, गेहूँ, गुड़, दूध से बनी सामग्री-मसलन, ठेकुआ (आटे और गुड़ का बना प्रसाद), कसार (चावल और गुड़ से तैयार) घर में तैयार होता है। इसके लिए गेहूं तक घर में पीसा जाता है। सारा काम नहा-धोकर ही किया जाता है। साथ ही तमाम तरह के मौसमी फल जैसे, गन्ना, मूली, नींबू, पानीफल, केला और सब्जियों का इस्तेमाल अर्घ्य (सूर्य उपासना) में होता है।

बांस से बने सामग्री(सूप और दौरा) का इस पूजा में विशेष महत्व है जबकि, इन सामग्री को समाज में रहने वाले एक जाति विशेष के द्वारा बनाया जाता है। तमाम पूजा सामग्री बांस के बने सूप और बड़े दउरा में ही ले जाया जाता है। छठ पूजा के दौरान घाट पर एक भी पूजा का सामान नहीं छोड़ा जाता और जो भी पूजा की सामग्री है वह बाद में मिट्टी में मिल जाती है।

आज पूरी दुनिया में जल और पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है। उत्तर भारत में सदियों पूर्व इसके महत्व को समझा गया और यही कारण है कि छठ पर्व पर नदी घाटों और जलाशयों की सफाई की जाती है तथा जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्य की छाया पानी में साफ-साफ दिखाई पड़नी चाहिए। संदेश साफ है कि जल को इतना निर्मल और स्वच्छ बनाइए कि उसमें सूर्य की किरणें भी प्रतिबिंबित हो उठे।

मौजूदा दौर में जल प्रदूषण प्राणियों के जीवन के लिए एक बड़ा खतरा माना जा रहा है। छठ सूर्य की पराबैगनी किरणों को अवशोषित कर उसके हानिकारक प्रभावों से बचाती है। वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को धरती की सतह पर सूर्य की हानिकारक पराबैगनी किरणें मानक से अधिक मात्रा में टकराती हैं। लोग जल में खड़े होकर जब सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो वे किरणें अवशोषित होकर आक्सीजन में परिणत हो जाती हैं, जिससे लोग उन किरणों के कुप्रभावों से बचते हैं। तभी तो प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा हो पाती है और हम चुस्त-दुरुस्त दिखते हैं।

छठ पूजा को बहुत ही पवित्रता वाला पर्व भी माना जाता है और इस वजह से इस दौरान हर जगह सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। रोचक बात तो यह है कि समान्य दिनों में साफ-सफाई का काम भी एक जाति विशेष का मानकर इन कार्यों को हेय दृष्टि से देखने वाले तबके भी पुण्य कमाने के नाम पर इस पर्व के दौरान अपने हाथों से साफ-सफाई का काम करते हैं और नदी और तालाब किनारे अर्घ्य घाट तैयार करते हैं। इस प्रकार से यह एक ऐसा पर्व है जिसमें प्रकृति और मानव जीवन के संवेदनशील रिश्तों को आपस में जोड़ने का काम करता है।

वैसे भी भारतीय संस्कृति में कोई भी त्योहार जीवन के एक अभिन्न भाग की भांति होती है। अधिकांशत: भारतीय त्योहार, जहां एक ओर मानवीय जीवन को उमंग से भरते हैं वहीं कहीं-न-कहीं तमाम तरह के सामाजिक और पर्यावरण संबंधी मुद्दों के प्रति समाज को जागरूक भी करते हैं।

जैसे, दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत जैसे सामाजिक मुद्दों से हमें परिचित कराती हैं तो, दीपावली में दीप जलाकर रोशनी के महत्व से अवगत कराया जाता है और साथ ही साथ कीट-पतंगों से छुटकारा पाया जाता है। उसी तरह छठ पूजा में पानी में खड़े होकर डूबते और उगते सूर्य की आराधना की जाती है जो कि शरीर को जीवंत, स्फूर्तिला और रोगमुक्त बनाती है।

इस पूजा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि, भारतीय संस्कृति और आस्था के नाम पर महिला और पुरुष दोनों समान रूप से निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में अपना दखल देते हैं।

वर्तमान में, छठ पर्व लोक-आस्था से बढ़कर अब एक तरह से महापर्व का रूप ले चुकी है और गाँवों से शहर और विदेशों में पलायन के चलते इस पर्व का विस्तार न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्तों में हो रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा हो रहा है।

ध्यान देने योग्य बात है कि इस पूजा में व्रती (उपासक) का बहुत महत्व होता है और पूरे चार दिन तक चलनेवाले इस पर्व में किसी भी पुरोहित और मंत्रोच्चारण की आवश्यकता नहीं होती। न ही किसी तरह की मूर्तिपूजा की जाती है, जल में खड़े होकर डूबते और उगते सूर्य की उपासना की जाती है।

महिलाएं पूजा एवं प्रसाद की सामग्री तैयार करने के साथ-साथ लोकगीत गाती हैं। इन लोकगीतों के माध्यम से महिलाएं सूर्य देव और छठी मैया तक अपना संदेश पहुंचाती हैं और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं और पुरुष सार्वजनिक स्थानों की साफ-सफाई कर सामाजिक दायित्वों को पूरा करते हैं। इसलिए, चार दिनों तक चलनेवाला यह पर्व पवित्रता, श्रद्धा और आस्था का पर्व माना जाता है।

(डॉ. आकांक्षा स्त्री अध्ययन से सम्बंधित सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करती हैं और दिल्ली में रहती हैं।)



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