बिहार ने दिया धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को महिलाओं और मुसलमानों तक पहुंचने का सबक


बिहार में आरंभ से ही बहुदलीय चुनाव होते रहे हैं। इसबार चुनाव मैदान में तो कई पार्टियां थी, पर मतदाता एनडीए और महागठबंधन के बीच बंटे रहे। किसी तीसरी पार्टी या गठबंधन को उनका समर्थन एकदम नहीं मिला। दलबदलू और विद्रोही उम्मीदवारों को भी चुनावी सफलता नहीं मिली। यह बिहार की राजनीति के लिए नई परिघटना है।


अमरनाथ झा
बिहार चुनाव 2020 Updated On :

बिहार के मतदाता इन विधानसभा चुनावों में दो खेमों में बंट गए। ऐसा राजनीतिक परिदृश्य आमतौर पर बंगाल में दिखता है। वहां वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच सारे मतदाता बंटे होते थे। ममता बनर्जी के कांग्रेस छोड़ने, अलग तृणमूल कांग्रेस बनाने और भाजपा के साथ गठजोड़ करके चुनाव मैदान में उतरने के बाद राजनीति में तीसरा ध्रुव उभरा। अब भाजपा एक अलग ध्रुव बन गया है।

बिहार में आरंभ से ही बहुदलीय चुनाव होते रहे हैं। इसबार चुनाव मैदान में तो कई पार्टियां थी, पर मतदाता एनडीए और महागठबंधन के बीच बंटे रहे। किसी तीसरी पार्टी या गठबंधन को उनका समर्थन एकदम नहीं मिला। केवल एक निर्दलीय उम्मीदवार जीत सका और लोजपा का केवल एक उम्मीदवार जीत सका। दलबदलू और विद्रोही उम्मीदवारों को भी चुनावी सफलता नहीं मिली। यह बिहार की राजनीति के लिए नई परिघटना है।

बिहार में आरंभ से ही सभी राजनीतिक धाराओं की पार्टियों की सक्रिता रही है। दक्षिणपंथी रामराज्य परिषद व जनसंघ से लेकर समाजवादी धारा की पार्टियां और वामपंथी पार्टियों के लिए यहां उर्वर जमीन रही है। इन सबके बीच मध्यमार्गी कांग्रेस राज करती रही है। पर आपातकाल के बाद कांग्रेस के पराभव और समाजवादी पार्टियों के बिखरने और विभिन्न नामों से क्षेत्रीय पार्टी के रूप में पुनर्गठित होने के दौर में वामपंथी पार्टियों की जमीन भी दरकने लगी। इसी परिदृश्य में घोर दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी मजबूत होती चली गई। पर इन चुनावों में भाजपा गठबंधन और राजद,कांग्रेस व वामपंथी पार्टियों के गठबंधन के बीच मतदाता बंट गए। इन दोनों खेमों की राजनीति के आगे बढ़ने की पूरी संभावना है।

इन दोनों खेमों में भी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी हैं। राजद को 75 और भाजपा को 74 सीटें मिली हैं। इनके आगे भी अपने-अपने खेमों का नेतृत्व करने की पूरी संभावना है। इसकी पूरी संभावना है कि जदयू और लोजपा कालांतर में इन्ही दोनों में खेमों में विलिन हो जाए। पर वामपंथी पार्टियों के साथ राजद का दोस्ताना लंबे समय तक चल सकता है क्योंकि इनका समर्थक आधार एक जैसा है।

चुनाव परिणामों पर गौर करें तो राजद न केवल सीटों के मामले में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, उसके वोट प्रतिशत भी सबसे अधिक हैं। राजद को 23.1 प्रतिशत तो भाजपा को 19.46 प्रतिशत वोट मिले हैं। वोट प्रतिशत में 3.64 प्रतिशत का बड़ा अंतर सीटों की संख्या में प्रतिफलित नहीं हुआ क्योंकि विभिन्न सीटों पर भाजपा की जीत का अंतर कम रहा जबकि राजद व उसकी साथी पार्टियां जहां जीती हैं, बड़े अंतर से जीती हैं।

कुल मिलाकर राजद को 97 लाख 36 हजार 242 वोट मिले हैं तो भाजपा को 82 लाख 01 हजार वोट हासिल हुए हैं। इन चुनावों में कांग्रेस को 9.48 प्रतिशत वोट मिले जबकि उसे 19 सीटें मिली। लोजपा 5.66 प्रतिशत वोट लेकर केवल एक सीट जीत पाई। इन सबसे अलग नोटा को लगभग सात लाख छह हजार 252 वोट मिले हैं।

इन चुनावों में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक संख्या में वोट डाले। लेकिन इस अनुपात में उन्हें जीत नहीं मिल सकी। आंकड़ों के अनुसार 59.69 प्रतिशत महिलाओं ने वोट दिए, लेकिन उन्हें केवल 10.6 प्रतिशत सीटें मिल सकी। 243 सीटों वाली विधानसभा में केवल 26 महिलाएं चुनकर आ सकी। हालांकि चुनाव मैदान में 370 महिलाएं थी। कुल महिला उम्मीदवारों में केवल 7.02 प्रतिशत ही जीत सकी। 2015 के चुनावों में 28 महिलाएं जीती थी, इसबार 2020 में केवल 26 महिलाएं जीत सकी।

सबसे बुरी हालत पूर्व केन्द्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा की रही। उनकी पार्टी रालोसपा को गठबंधन करने के बादजूद एक भी सीट नहीं मिली, बल्कि उसके उम्मीदवार अपनी जमानत बचाने में भी नाकाम रहे। यही स्थिति पूर्व सांसद पप्पू यादव की रही। वे अपने पार्टी के उम्मीदवारों के साथ-साथ स्वयं भी चुनाव जीतने में नाकाम रहे। उनका कोई उम्मीदवार जमानत बचाने में भी कामयाब नहीं हो सका।

पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और मुकेश साहनी भाजपा गठबंधन में होने से चार-चार सीटें लेकर अपना खाता खोलने में जरूर कामयाब रहे। पर इसे उनकी नहीं, एनडीए की चुनावी कामयाबी ही कहा जाएगा।

दो खेमों में बंटी इस राजनीति में ओबैसी की एमआईएम का पांच सीटें लेकर आना सबसे उल्लेखनीय परिघटना है। क्या इससे बिहार में सांप्रदायिकता की राजनीति की शुरुआत होगी, यह देखने वाली बात है। राहत की बात इतनी ही है कि वामपंथी पार्टियों ने 16 सीटें लेकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। तो क्या वे सांप्रदायिक उभार का कारगर ढंग से मुकाबला कर पाएगी। क्या समाजवादी खेमों से उन्हें वांक्षित सहायता मिल सकेगी।

राजनीति में तो समाजवादियों की पुरानी फौज क्षेत्रीयता और जातियता की राजनीति में फंस चुकी हैं, पर क्या चुनावी जोड़तोड़ से अलग रहते हुए दलविहिन राजनीति करने वाले समाजवादी इनके समर्थन में कोई नई राजनीति शुरु कर सकेंगे-अभी सारी नजरें इसी संभावना की ओर टिकी हैं।

इन चुनावों और उसके परिणाम से लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को महिलाओं और मुसलमानों में अपनी पहुंच औऱ पकड़ बढ़ाने पर जोर देने की सबक सीखी और कारगर रणनीति बनाकर सक्रिय हो तो भविष्य की राजनीति धीरे-धीरे अधिक जन-पक्षधर हो सकेगी अन्यथा मौजूदा परिदृश्य में बिहार में सांप्रदायिकता के उभरने की आशंका को निर्मूल नहीं किया जा सकेगा।