गठबंधन के वेंटिलेटर पर बिहार में जिंदा हुये वामदल


2020 में महागठबंधन की सहायता से लेफ्ट पार्टियों की वापसी जरूर हुई है लेकिन ठीक से विश्लेषण करें तो देखते हैं कि यह वापसी महज राजनीतिक सामाजिक समीकरण का परिणाम है न कि इनके मूल में इनका विचारधारा है।


रविरंजन आनन्द रविरंजन आनन्द
बिहार Updated On :

पटना। बिहार विधानसभा चुनाव में वाम दलों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। महागठबंधन से तालमेल होने के कारण वामदलों की शानदार वापसी हुई है। वाम दलों में सबसे अधिक फायदा भाकपा-माले को हुई। इस बार वामदल कुल 29 सीटों पर चुनावी मैदान में थे, जिसमें 16 सीटों पर चुनाव जीतने में भी सफल हुए।

अकेले भाकपा-माले 19 में से 12 सीटों पर विजय पताका लहराया, वहीं भाकपा एवं माकपा दो-दो सीटों पर जीत दर्ज की। जिसमें माकपा से 4 प्रत्याशी और भाकपा के 6 प्रत्याशी चुनावी मैंदान में थे। तीनों लेफ्ट पार्टियां 29 में से 16 सीटों पर जीतने में सफल रही। जिनका जीत का स्ट्राइक रेट भाजपा (67 फीसदी) के बाद दूसरे नंबर पर( 63)फीसदी के साथ रहा।

वामदलों में विशेषकर भाकपा-माले की शानदार सफलता के बाद यह कयास लगाए जा रहे हैं कि राज्य में फिर से वर्ग संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी, विशेषकर दलित-सवर्णों के बीच सशस्त्र विद्रोह शुरू होने की संभावाना होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है, हां यह बात सही है कि लेफ्ट पार्टियां आंदोलन से निकली हुई पार्टियां है। इनकी विचारधारा जल जंगल जमीन के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। वाम दलों को इस तरह की सफलता दशकों बाद मिली है। वामदलों की इस सफलता के पीछे राजद का कैडर वोट ही मूल कारण है। आगे भी इसका भविष्य गठबंधन के वेंटिलेटर पर ही टिका रहेगा।

बिहार में न जमीन है न मजदूर 

भाकपा-माले को चुनाव में सफलता मिलने के कारण इनके समर्थकों में उत्साह जरूर है,लेकिन इनके जो मूल मुद्दे वर्ग-संघर्ष, जमीन बटाई, कास्तकारी न्यूनतम मजदूरी को लेकर या राजनीतिक परिवर्तन के लिए भूमिगत होकर 1980-90 के दशक में हिंसक आंदोलन किया करते थे। इनके सभी मूल मुद्दे एक तरफ से देखा जाए तो आज के समय में अप्रासंगिक हो चुके हैं।

इसका मूल कारण यह है कि जिन वर्गों के विरोध में इनका संघर्ष था, आज के समय में उनके पास जमीन नहीं है। इनका जमीन खिसक कर नव-सामंतों के पास चला गया है, हालांकि अब नव-सामंतवाद भी नहीं रहा। कृषि के अलावे बहुत सारे रोजगार के संसाधन हो गए जिसके सामने कृषि कहीं नहीं ठहरता। कृषि के जोत के आकार भी बहुत छोटे हो गये है। दूसरी ओर बिहार में उद्योग भी नहीं है जहाँ वामदल मजदूरों से उद्योगपतियों के विरोध में वर्ग संघर्ष का आह्वान कर सके। वहीं मजदूर भी काम धंधे को लेकर दूसरे राज्यों में पलायन कर चुके हैं।

मंडल आंदोलन के बाद कमजोर हुआ जनाधार 

1980 के बाद से ही देश में निचली और मध्यवर्ती जातियों का नए सिरे से राजनीतिक ध्रुवीकरण होना शुरू था। इस क्रम में वामदलों का जनाधार खिसना शुरू हो गया था। खासकर बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में इसका व्यापक असर देखने को मिला। इसके अलावा मजदूरों के बीच में भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के नए संगठनों के उभार ने मजदूर आंदोलन में दरार पैदा की।

फिर भी नब्बे के दशक के अंत तक बिहार में वामपंथी दलों की दमदार मौजूदगी सड़क से लेकर सदन तक दिखाई देती थी। उस दौर में बिहार विधानसभा में वामपंथी दलों के 30 से अधिक विधायक हुआ करते थे। इधर 1990 में मंडल कमीशन लागू हुआ था तो इसका व्यापक असर बिहार में हुआ। सत्ता भी इसी दौर में बिहार में अगड़ों के हाथ से निकल कर पिछड़ों के हाथ में आ गयी थी।

1990 के बाद मंडल आंदोलन की उपज लालू प्रसाद ने जातीय अस्मिता की बहस तेज की और वाम दल अपना आधार खोते गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने सात सीटों पर जीत दर्ज की थी। इनमें भोजपुर के चर्चित नक्सली नेता जगदीश मास्टर के दामाद भगवान सिंह कुशवाहा शामिल थे।

इंडियन पीपुल्स फ्रंट से जीत दर्ज करने वाले कुशवाहा सुखदेव सिंह समेत कुछ अन्य नेता लालू के पार्टी में शामिल हो गए जिन्हें बाद में मंत्रिमंडल में लालू ने शामिल कर लिया। वहीं दूसरी और लालू पिछड़ों और दलितों को गोलबंद करने के लिए सवर्णो के विरुद्ध जहर उगलने का काम करते थे, जिससे पुनः 1970 के दशक से चले आ रहे हैं जातीय हिंसा को बढ़ावा मिला, जिसका परिणाम हुआ कि शाहाबाद व मगध के दर्जनों क्षेत्रों में जातीय नरसंहार हुआ।

बथानी टोला (भोजपुर), लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार (जहानाबाद), सेनारी हत्याकांड (जहानाबाद), मियांपुर जनसंहार (औरंगाबाद) समेत दर्जनों ऐसे जगहों पर 1990 से 2000 के बीच दलित और सवर्णों के बीच खूनी संघर्ष होता रहा। जिसके केंद्रबिन्दु में अंडर ग्राउंड रहने वाली भाकपा माले, एमसीसी अन्य माओवादी संगठन के साथ रणवीर सेना की संलिप्ता रही।

वहीं लालू अपने-आप को पिछड़े-दलितों के नेता के तौर पर काफी हद तक प्रतिस्थापित करने में सफल हुए थे। जिससे वामपंथी पार्टियों के वर्ग-संघर्ष की बहस जातीय पहचान की राजनीति के सामने धीरे-धीरे समाप्त होती चली गई। वहीं 1994 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट को भंग कर दिया गया। इसके जगह अंडरग्राउंड रहने वाली भाकपा-माले (लिबरेशन) लोकतांत्रिक धारा में शामिल हो गई और खुद को राजनीतिक संगठन घोषित कर दिया।

राजद ने माले को दी संजीवनी

वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ वकारु जामा वामदलों (लेफ्ट) के हांसिए पर जाने के कई कारण बताते हैं। “लेफ़्ट पार्टियों का बिहार में सामाजिक आधार में 90 के दशक के बाद से बहुत बिखराव आया। गरीब-गुरबे पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियां जैसे राजद और जदयू ने उन्हें काफ़ी नुक़सान पहुँचाया।

मंडल पॉलिटिक्स के दौर में उन्हें सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ। लेफ्ट के कैडरों में बिखराव का एक तो मंडल कारण था ही। वहीं वामपंथी दलें विचारधारा की राजनीति करती है।लेकिन जबसे जातीय पहचान पर आधारित दलों का उदय हुआ हैं तब से वामपंथ का आधार कमजोर हुआ हैं।

इस वजह से ज़्यादा सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने के बावजूद वो जीत कर उसे सीटों में तब्दील नहीं कर पाते थे। छोटी जाति वाले ज़्यादातर ग़रीब वर्ग के लोग ही होते हैं। यहीं लेफ्ट का मूल कैडर था जिसमें तेजी से बिखराव हुआ। इसी वजह से लेफ़्ट का स्पोर्ट कम होता गया।”

इस चुनाव में सीपीआई (एमएल) या कहें तो लेफ़्ट की बाक़ी दोनों पार्टियों का अच्छा प्रदर्शन रहा है। इसका मूल कारण राजद का एक बड़ा वोट बैंक लेफ़्ट उम्मीदवारों के साथ शिफ्ट हो गया। जिससे लेफ्ट विशेषकर भाकपा (माले) बिहार में फिर स्टैंड करने का संजीवनी मिल गया।

सामाजिक आधार वाली नीतियों ने भी लेफ्ट के जनाधार को किया कम

वहीं डां वकारु जामा आगे कहते हैं , “भले ही आज लेफ्ट पार्टियां राजद व कांग्रेस के वेंटिलेटर के सहारे कुछ सीटें जीतने में सफल रही, लेकिन अपने कैडर वोटों को लेकर आत्म-चिंतन करने की जरूरत है। माकपा व भाकपा का जनाधार तो 90 के दशक में ही सिकुड़ गया था। आज देश में भी वामपंथी (लेफ्ट) केरल को छोड़कर कहीं सत्ता में नहीं है, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे पुराने गढों में भी अपनी ताकत गवा चुके हैं।

1973 में भाकपा (माले) के विभाजन के बाद गठित भाकपा (माले) लिबरेशन बिहार में हर चुनाव में पांच-छह सीटें जीतता रहा। हालांकि 2010 के चुनाव में खाता भी हीं खोल पाई थी। वहीं हाल 2015 भी रहा किसी तरह मात्र तीन सीट जीतने में सफल रही। डां जामा बताते हैं कि, “लेफ्ट के कैडरों में बिखराव का एक तो मंडल कारण था ही।

वहीं वामपंथी दलें विचारधारा की राजनीति करती है।लेकिन जबसे जातीय पहचान पर आधारित दलों के उदय के साथ वामपंथ का आधार कमजोर हुआ। जिनकी वे राजनीति करते थे वे कैडर अपनी अपनी जातीय पहचान वाली दल के साथ गोलबंद हो गए।

दूसरी ओर 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद राज्य में सामाजिक आधार वाले नीतियों को धरातल पर उतारा गया। रोजगार के अवसर उपलब्ध करना। पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देना,गरीबों -पिछड़ों को ध्यान में रखकर राज्य सरकार के साथ-साथ केन्द्र ने भी दर्जनों योजनाएं चलाई, जिसका लाभ स्वाभाविक तौर पर इस तबके के लोगों को मिला। दलित – पिछड़े तबकों के लोगों को काम के साथ-साथ सत्ता में भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी मिली। साथ ही सवर्णो के पास जमीन का दायरा भी बहुत काफी छोटा हो गया है।

2020 में महागठबंधन की सहायता से लेफ्ट पार्टियों की वापसी जरूर हुई है लेकिन ठीक से विश्लेषण करें तो देखते हैं कि यह वापसी महज राजनीतिक सामाजिक समीकरण का परिणाम है न कि इनके मूल में इनका विचारधारा है। विगत वर्षों में लेफ्ट के उद्देश्य व विचारधारा बिहार में हुए सामाजिक आर्थिक परिवर्तन में ही डायलूट हो गई है। इसलिए बिहार में लेफ्ट पार्टियां विशेषकर भाकपा (माले) का वह विचारधारा व सामाजिक आधार पुनः उभरता हुआ प्रतीत नहीं होता। बिहार में लेफ्ट पार्टियां केवल राजनीतिक दल के रूप में कुछ सांसे गिन सकती है जब तक कि यहां महागठबंधन जैसा वेंटिलेटर उपलब्ध हो।



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