मौर्य साम्राज्य से लेकर खिलजी शासकों तक ने अनाज भंडार खोले, सरकार इतिहास का अनुसरण करें


कोरोना संकट में लाखों मजदूर सड़कों पर है। अपने घरों को जा रहे है। लेकिन उन्हें खाने के लिए अनाज नहीं मिल रहा है। हालांकि इस कोरोना संकट के समय में देश के अनाज भंडार भरे पड़े है। लेकिन झारखंड और बिहार से खबर आती है कि लोगों को राशन कार्ड के आभाव में अनाज नहीं मिल रहा है। लोग भूख से परेशान है। देश के कई शहरों से भी इस तरह की खबर ही आ रही है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

भारत के इतिहास में कई उदाहरण मिल जाएंगे जब राजा अकाल के दौरान या आपद काल में अनाज भंडार खोल देते थे। मौर्य काल में राजा द्वारा अकाल के दौरान अनाज भंडार खोलना राजा के जनहित कार्य के रूप में बताया गया। चाणक्य ने इस तरह के जनहित कार्यों को लेकर चर्चा की है। गुप्त काल में भी अनाज भंडार और जनता के कल्याण को लेकर चर्चा कई ऐतिहासिक साक्ष्य करते है। 

मध्यकालीन मुस्लिम भारत में भी कुछ राजाओं दवारा अनाज भंडार का निमार्ण और विपत्ति के काल में इसे आम लोगों के लिए खोलने का उदाहरण सामने आता है। टैक्स लगाने के लिए मशहूर रहे अलाउद्दीन खिलजी ने भी कई बड़े अनाज भंडार बनाए थे। इन अनाज भंडारों से जनता को सस्ता अनाज उपलब्ध करवाया जाता था। बाजार में मुनाफाखोरी न हो इसके लिए बाजार-ए-शहना नामक एक अधिकारी की नियुक्ति भी की गई थी। ताकि लोगों को सस्ता अनाज मिले, लोगों को परेशानी न हो।

लेकिन अब वर्तमान भारत की तस्वीर देखे। कोरोना संकट में लाखों मजदूर सड़कों पर है। अपने घरों को जा रहे है। लेकिन उन्हें खाने के लिए अनाज नहीं मिल रहा है। हालांकि इस कोरोना संकट के समय में  देश के अनाज भंडार भरे पड़े है। लेकिन झारखंड और बिहार से खबर आती  है कि लोगों को राशन कार्ड के आभाव में अनाज नहीं मिल रहा है। लोग भूख से परेशान है। देश के कई शहरों से भी इस तरह की खबर ही आ रही है। 

इस तरह की खबरें सरकारीं व्यवस्था और निर्दयता की पोल खोलती है। देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर है। लेकिन देश की बड़ी आबादी भूख से परेशान है। लॉकडाउन के दौरान हालात काफी खराब हो गए। शहरों से लाखों लोग पलायन कर गांवों लौट चुके है। उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन लोगों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत भी अनाज को नहीं मिल रहा है। लाखों को लोगों को राशन कार्ड नहीं होने का बहाना बनाकर अनाज नहीं दिया जा रहा है।

झारखंड में 7 लाख परिवारों का राशनकार्ड प्राप्त करने से संबंधित आवेदन लंबित है। अगर झारखंड सरकार इन्हें अपनी तरफ से अनाज देना चाहेगी तो इसके लिए झारखंड सरकार को अपनी जेब से पैसा खर्च करना होगा। इसके लिए कम से कम 1 लाख टन अनाज की जरूरत पड़ेगी। यही कुछ हाल बिहार का है, जहां लाखों परिवारों का राशनकार्ड आवेदन लंबित है। 

अब संकट काल में सरकार अगर राशन कार्ड मांगे तो इससे ज्यादा बेदर्दी क्या हो सकती है? समय की मांग है कि देश की 100 करोड़ आबादी को बिना कागज देखे मुफ्त राशन प्रदान किया जाए। आपद काल में सरकार को अपने खजाने से 1-2 लाख करोड़ रुपये खर्च भी करने पड़ें तो क्या फर्क पड़ता है? इस अतिरिक्त बोझ को नेताओं और अफसरशाही की फिजूलखर्ची को रोक कर भी तो संतुलित किया जा सकता है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कोरोना आपदा के काल में देश की गरीब आबादी को तीन महीनें तक अतिरिक्त राशन मुफ्त में उपलब्ध करवाने की घोषणा की थी। इसके तहत प्रति माह 5 किलो गेहूं या चावल और दाल हर गरीब को देने की घोषणा की गई। लेकिन वित्त मंत्री के घोषणा के बाद भी शहरी गरीबों की हालत खराब है। वे भूखे है। क्योंकि ज्यादातर शहरी गरीब प्रवासी मजदूर है। उनके पास राशन प्राप्त करने का कोई वैध प्रमाण नहीं है। दूसरी तरफ गरीब राज्यों में लाखों गरीब परिवारों जन वितरण प्रणाली व्यवस्था की लाभार्थी सूची से बाहर हो गए है। ये शरारत शासन और व्यवस्था ने की है। 

सालों से जन वितरण प्रणाली की सूची का नवीनीकरण भी नहीं हुआ है। उधर सरकार और भारतीय खाद्य निगम पैसों के गुणागणित में लगा हुआ है। क्योंकि चावल पर भारतीय खाद्य निगम को प्रति किलो 37.26 रुपये का खर्च आता है। गेहूं पर 26.83 पैसे खर्च आता है। वैसे में सरकार और एफसीआई  अनाज को मुफ्त में बांटने को तैयार नहीं है। हालांकि एफसीआई के गोदामों में इस समय 740 लाख टन अनाज पड़ा है। यह एफसीआई के रणनीतिक रिजर्व 210 लाख टन से तीन गुणा से भी ज्यादा है। इसके रखरखाव पर एफसीआई को हजारों करोड रुपये का खर्च आ रहा है।  

इसमें कोई शक नहीं है कि देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है। देश भर में गोदाम अनाज से भरे पड़े है। लेकिन इस आत्मनिर्भरता का लाभ क्या, अगर लोग अनाज के बिना ही भूख से मर जाएंगे। वैसे तो आंकड़े बताते है कि देश में 80 करोड़ आबादी को राष्ट्रीय खाद सुरक्षा कानून के तहत सस्ता अनाज दिया जा रहा है। यह भारत की कुल आबादी का 68 प्रतिशत है। लेकिन तस्वीर का एक और रूप भी है। देश भर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत लाभार्थियों की सूची का नवीनीकरण न होने के कारण कई लाख परिवार इस सिस्टम का लाभ उठाने से वंचित हो गए है। 

अंतिम नवीनीकरण 2016 में हुआ था। आज 2020 हो गया है। पिछले चार सालों मे बहुत सारे लोग गरीबी रेखा के नीचे आए है, लेकिन उन्हें राष्ट्रीय खाद सुरक्षा कानून का लाभ नहीं मिल रहा है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। झारखंड में इस समय 7 लाख परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभ हासिल करने के योग्य होने के बजाए लाभ हासिल नहीं कर पा रहे है। उनका आवेदन अभी भी लंबित है। कोरोना के इस संकट काल में अगर वो जन वितरण प्रणाली के तहत अनाज हासिल करना चाहें तो उन्हें नहीं मिलेगा। यही कुछ हाल बिहार का है। बिहार में कम से कम 1.5 लाख शहरी गरीब परिवार जनवितरण प्रणाली की व्यवस्था से बाहर है। इसमें वो लोग है जो शहरों में प्रतिदिन कुछ कमाई कर शाम को अपने राशन का इंतजाम करते है।

सरकार कोरोना आपदा काल में अर्थव्यवस्था को बचाए, अपने बैलेँशशीट को ठीक करने में न लगे। अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए गरीबों को बचाना जरूरी है। सरकार अपने बजट और बहीखाते का लेखा-जोखा को ठीक करने में लगी है। इसलिए खुल कर खर्च करने से भाग रही है। सरकार को डर है कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों का अनाज गरीबों में बांटा गया तो सरकार का फिजिकल डेफशिट बढ़ जाएगा। लेकिन यह समय फिजिकल डेफशिट बढने की चिंता करने का नहीं है। अगर एक बार भूख के कारण अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई तो भारी नुकसान होगा।

देश के गोदामों में जितना अनाज प़ड़ा है उससे छ महीनें तक देश की जनता को खिलाया जा सकता है। अगर सरकार अगले छ महीनें तक 10 किलो गेहूं या चावल में से कोई भी एक अनाज प्रति माह, प्रति व्यक्ति मुफ्त बांटती है, तो इसके लिए 625 लाख टन अनाज की जरूरत होगी। 625 लाख टन अनाज से देश की 100 करोड़ आबादी को छ महीनें तक खिलाया जा सकता है। दिलचस्प स्थिति यह है कि अगर सरकार 625 लाख टन अनाज लोगों के बीच सरकार बांट भी देती है तो एफसीआई के गोदामों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। 625 लाख टन अनाज बांटने के बाद भी सरकारी गोदामों में लगभग 500 लाख टन अनाज बचा रहेगा। क्योंकि अब मंडियों में गेहूं की खरीद शुरू हो चुकी है। 

यही नहीं गरीबों को अनाज बांटने से अनाजों के रखरखाव खर्च बचेगा। सरकार 1 किलो अनाज के रखरखाव पर प्रति वर्ष 5.60 रुपये खर्च कर रही है। 1 किलो अनाज के रखरखाव 6 महीनें तक करने पर सरकार को को 2.80 रुपये खर्च आ रहा है। अगर सरकार अगले छ महीनें तक लोगों के बीच लगभग 625 लाख टन मुफ्त में बांटेगी तो सरकार को लगभग 17 हजार करोड़ रुपये की बचत होगी।