कोरोना, किसान आन्दोलन और गंगा की अशुद्धि एक बड़ी चिंता


जब 1979-80 में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का विचार आया था तब इसके लिए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नियंत्रण में व्यापक सर्वेक्षण के बाद एक योजना तैयार की गई थी। इस योजना के मुताबिक़ तैयार किये गए दो प्रतिवेदनों को आधार बना कर ही गंगा कार्य योजना का खाका बनाया गया था। इसके लिए शुरूआत में 293 करोड़ रुपये का इंतजाम किया गया। लेकिन मार्च 1994 के अंत तक इस परियोजना पर 450 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके थे।



इस बार 30 नवम्बर को गुरु परब यानी कार्तिक पूर्णिमा का त्यौहार बड़ी शालीनता से मानाया गया। इस पर्व के कई नाम हैं और यह पर्व कई रूपों में मनाया जाता है। इसी दिन सिख धर्म के संस्थापक फ़कीर गुरु नानक का जन्म भी हुआ था जिसे गुरु परब और प्रकाश पर्व के नाम से मनाया जाता है। दीपावली के एक पखवाड़े के बाद आने वाली पूर्णिमा को मनाये जाने के कारण इसे कार्तिक पूर्णिमा भी कहा जाता है।

यह भी मान्यता है कि यह दिन इतना शुभ होता है कि इस दिन कोई भी शुभ काम करने के लिए मुहूर्त देखने की भी जरूरत नहीं होती। शायद इसीलिए देव उठानी दीपावली के नाम से मनाये जाने वाले को देश भर में हजारो नहीं वरन लाखों की संख्या में नए जोड़े विवाह बंधन में बंधते हैं। इस पर्व जल के संरक्षण का प्रतीक भी माना जाता है इसीलिए देश की इतिहास प्रसिद्द नदियों, स्वच्छ जल के पोखर, तालाब और झील के किनारे दिए जला कर रोशनी भी की जाती है।

जल और प्रकाश के अद्भुद संगम का प्रतीक भी है यह पर्व। इसी मौके पर इस बार एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी की यात्रा के दौरान दो महत्वपूर्ण संदेश भी देश को दिए थे। प्रधानमंत्री ने एक तरफ दिल्ली की सीमा पर चल रहे किसान आन्दोलन से उपजी चिंताओं पर चर्चा की थी तो दूसरी तरफ उनकी चिंता गंगा की सफाई, उसे प्रदूषण मुक्त करने की भी थी।

प्रधानमंत्री की यह चिंता इसलिए भी जायज कही जायेगी कि उन्होंने न केवल नमामि गंगे के नाम से गंगा सफाई के अभियान की नए सिरे से शुरुआत की बल्कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में इस लक्ष्य को ध्यान में रख कर शुरू किये गए कार्यों को भी इमानदारी के साथ आगे बढ़ाया है। पर न जाने क्या बात है कि 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा शुरू किये गए गंगा सफाई अभियान से लेकर 2016 में खुद मोदी द्वारा किये गए गंगा सफाई कार्यक्रम के बाद भी साढ़े तीन दशक की अवधि में अरबों रुपये खर्च करने के बाद भी गंगा के हालात में कोई तबदीली नहीं आई है। गंगा पहले की तरह आज भी मैली ही है।

गंगा को साफ़ करने की यह पहल साल 1980 के आसपास तब हुई थी जब इंदिरा गाँधी दूसरी बार इस देश की प्रधानमंत्री बनी थीं। इंदिरा जी के कार्यकाल में इस कार्ययोजना पर अमल शुरू नहीं हो सका था लेकिन जब 1984 में उनकी ह्त्या के बाद उनके बेटे राजीव गाँधी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे तब उन्होंने गंगा को स्वच्छ रखने, उसे प्रदूषण से बचाने की गरज से 14 जून 1986 को गंगा कार्य योजना नामक अति महत्वाकांक्षी योजना की आधारशिला रखी थी।

इस शुभ कार्य का श्रीगणेश उत्तर प्रदेश के उसी वाराणसी (काशी) स्थित राजेंद्र प्रसाद घाट पर से किया गया था। जिसका राजनीतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्व माना जाता है। सोने पे सुहागा यह कि आज हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही संसद के निम्न सदन लोकसभा में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। अजीब विडंबना ही कही जायेगी कि इस कार्य योजना के शुरू होने के 34 साल बाद भी गंगा की गन्दगी जहां थी आज भी वहीँ पर है। गंगा निर्मलीकरण के नाम पर केंद्र व राज्य सरकार तथा विश्व बैंक आदि को मिला कर अरबों रुपये गंगा के प्रवाह के साथ बह गए।

इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और उनके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह, पीवी नरसिम्ह राव, अटल विहारी वाजपेयी और उनके बाद डॉक्टर मनमोहन सिंह तथा अब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की हैसियत से किसी न रूप में गंगा की सफाई के काम को आगे तो जरूर बढ़ाया लेकिन वही ढाक के तीन पात न तो राजीव गाँधी की गंगा कार्य योजना, न डॉक्टर मनमोहन सिंह की गंगा विकास प्राधिकरण परियोजना और न ही नरेन्द्र मोदी की की नमामि गंगे परियोजना का कोई असर गंगा की सफाई के सन्दर्भ में जमीन पर उतरता दिखाई देता है।

इसकी वजह सरकारी योजनाओं में किसी तरह की कमी होना नहीं बल्कि योजनाओं को अव्यवहारिक तरीके से लागू करने और इन योजनाओं को लागू करने में होने वाला आर्थिक भ्रष्टाचार है। इसकी वजह से गंगा का प्रवाह अवरुद्ध हुआ नतीजतन गंगा अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को विवश हैं। तारण हारिनी मां गंगा को अब एक तारणहार की जरूरत पड़ गई है।

गंगा की सफाई के लिए प्रधान मंत्री के रूप में राजीव गाँधी और नरेद्र मोदी सवारा शुरू किये गए आयोजनों का यह एक दिलचस्प संयोग भी है कि 1986 (राजीव गाँधी) और 2016 (नरेन्द्र मोदी) में दोनों ही बार इन कार्यक्रमों का आयोजन काशी के राजेंद्र प्रसाद घाट के गोलंबर में ही हुआ था। इधर 4-5 वर्षों में और कुछ तो हुआ नहीं लेकिन गंगा अब तक के अपने न्यूनतम स्तर तक जरूर पहुँच गई जबकि प्रधानमंत्रीमोदी ने चार साल पहले गंगा सफाई योजना की शुरुआत करते हुए यह ऐलान किया था कि वह मां गंगा के लिए काम करेंगे क्योंकि मां गंगा ने ही उन्हें बुलाया है।

गंगा तो साफ़ नहीं हो सकी क्योंकि काम में इमानदारी नहीं थी और लागू करने के तरीके अव्यवहारिक हैं। इसका एक बुरा असर यह हुआ कि गंगा ने अपने तट छोड़ दिए। गंगा में ऑक्सिजन की कमी हो गई और गंगा पर निर्भर जल चारी जीव या तो गंगा का साथ छोड़ कर अन्यत्र चले गए या फिर उनकी जीवन लीला ही समाप्त हो गई।

गौरतलब है कि जब 1979-80 में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का विचार आया था तब इसके लिए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नियंत्रण में व्यापक सर्वेक्षण के बाद एक योजना तैयार की गई थी। इस योजना के मुताबिक़ तैयार किये गए दो प्रतिवेदनों को आधार बना कर ही गंगा कार्य योजना का खाका बनाया गया था। इसके लिए शुरूआत में 293 करोड़ रुपये का इंतजाम किया गया। लेकिन मार्च 1994 के अंत तक इस परियोजना पर 450 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके थे।

गंगा सफाई अभियान के प्रथम चरण का सारा खर्च केंद्र सरकार ने ही वहन किया। गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण की शुरुआत 14 जनवरी, 1986 को हुई और 31 मार्च, 2000 को इसे समाप्त घोषित किया गया। इस दौरान इस योजना पर 901.71 करोड़ रुपये खर्च हो गए।

दूसरे चरण की स्वीकृति कई किश्तों में दी गई जिसकी शुरुआत सन 1993 में ही हो गई थी। इस परियोजना पर कुल 496.90 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया गया। इस खर्च का 85 प्रतिशत भाग (लगभग 427.73 करोड़ रुपए) केंद्र सरकार ने वहन किया गया जबकि शेष 15 प्रतिशत भाग (अर्थात 69.17 करोड़ रुपए) राज्य सरकार द्वारा। इस परियोजना में प्रदूषण- नियंत्रण के साथ-साथ सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से निकलने वाले गंदे जल का उपयोग सिंचाई के लिए करने का लक्ष्य रखा गया।

इसी के तहत सबसे पहले काशी के दीनापुर में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण हुआ। शोधित जल आस-पास के गांवों में जाने लगा खेती के लिए। हालांकि उसका विरोध भी बहुत हुआ। यहां तक कहा गया कि यह शोधित जल नहीं, इससे होने वाली पैदावार इंसानों के लिए घातक है। लेकिन ऐसा प्रमाणित नही हो सका। इसी योजना के तहत खिड़किया घाट पर पंपिंग स्टेशन बना, राजेंद्र प्रसाद घाट पर भी पंपिंग स्टेशन का निर्माण हुआ।

लेकिन ढाल की जानकारी न होने के चलते योजना का उस स्तर पर लाभ नहीं मिल सका जितनी उम्मीद की गई थी। खिड़किया घाट के पंपिंग स्टेशन पर बिजल न रहने की सूरत में वह काम करना बंद कर देता था। ऐसे में गंदा पानी सीधे गंगा में ही गिरता रहता था। उस समय विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा ने इसका जम कर विरोध किया।

इस कड़ी में एक उल्लेखनीय जानकारी यह भी है कि 2008 से पहले सरकारी रिकार्ड्स में में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा हासिल नहीं था। गंगा को 2008 में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने ही राष्ट्रीय नदी घोषित किया था, हैरानी की बाद यह है कि राष्ट्रीय नदी घोषित होने के बाद भी इसके प्रदूषण की दर में कोई कमी नहीं आई और प्रदूषण कम होने के बजाय बढ़ता ही प्रदूषण में बढ़ोत्तरी होने का यह सिलसिला आज भी जारी ही है।

आंकड़े बताते हैं कि कि 2000 से 2010 के बीच 2800 करोड़ रुपए की गंगा सफाई परियोजना के काम में 2800 करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद गंगा के प्रदूषण के स्तर में कोई फर्क नहीं आया। वर्ष 2011 में राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के निर्देशन में विश्व बैंक की सहायता से गंगा के प्रदूषण नियंत्रण के लिए चलने वाली परियोजना की स्वीकृति दी गई। इस पर लगभग 70 अरब रुपए खर्च आने का अनुमान लगाया गया था। इसमें विश्व बैंक द्वारा एक अरब अमरीकी डॉलर की सहायता प्रदान करने का प्रावधान था।

इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य है प्रदूषण नियंत्रण के लिए बुनियादी ढांचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) तैयार करना था। विश्व बैंक द्वारा स्वीकृत इस ऱाशि में से 80.1 करोड़ डालर इंटरनेशनल बैंक फॉर रीकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट द्वारा कर्ज के रूप में उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई थी। शेष 19.9 करोड़ अमरीकी डॉलर इंटरनेशनल डेवलपमेंट एसोसिएशन द्वारा प्रदान किया जाना था।

2014 के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद देश का प्रधान मंत्री बनने पर नरेन्द्र मोदी ने गंगा की सफाई के काम के लिए जुलाई 2014 में ‘नमामि गंगे’ परियोजना शुरू करने की घोषणा की। इसके लिये 10 जुलाई, 2014 को तत्कालीन केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत किये गए बजट में 6300 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान रखा गया।

इस धनराशि में से 2037 करोड़ रुपए गंगा की सफाई तथा प्रदूषण-नियंत्रण पर खर्च होना था जबकि 4200 करोड़ रुपए नेविगेशन कॉरीडोर के विकास पर। इसके अतिरिक्त तकरीबन 100 करोड़ रुपए घाटों के विकास तथा उसके सौन्दर्यीकरण पर खर्च होने थे। पैसा जुटाने के लिए एनआरआई फंड तक बनाने की बात कही गई।

‘नमामि गंगें’ परियोजना को लागू करने की दिशा में प्रथम कदम के रूप में गंगा किनारे स्थापित 48 औद्योगिक इकाइयों को बन्द करने का आदेश जारी किया गया। कहना गलत नहीं होगा कि नमामि गंगे सफाई और प्रदूषण मुक्ति के सन्दर्भ में है तो बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना लेकिन इस योजना को अमल में लाने के सन्दर्भ में एक नहीं, अनेक जगहों पर भारी गलतियाँ भी अवश्य हुई हैं जिनकी वजह से नमामि गंगे योजना के संबंध में की गई घोषणाओं का काम अभी तक भी पूरी तरह से नहीं हो सका है।

उदाहरण के तौर पर चर्चा करें तो केंद्र सरकार ने 2014 में जो 20 हजार करोड़ सिर्फ गंगा सफाई के लिए घोषित किया था इस अवधि में न तो इस मद में पूरी राशि खर्च की गई न ही पैसे के वितरण की कोई निगरानी ही हुई। अलबत्ता योजनाओं के नाम पर भगवान शंकर के माथे पर रहने वाली मिथकीय गंगा का दर्शन भगवान विश्वनाथ को कराने के लिए एक कथित गंगा पाथ वे योजना का ऐलान जरूर हो गया। भले उसके लिए सैकड़ों प्राचीन भवनों और मंदिरों को गिरा दिया जाए।

प्रसंगवश यह जानना भी महत्वपूर्ण होगा कि गंगा नदी न केवल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है बल्कि इसका महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि इस देश की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या आर्थिक रूप से गंगा नदी पर निर्भर है। शायद इसीलिए वर्ष 2014 में न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहा भी था कि ‘गंगा की सफाई एक आर्थिक एजेंडा भी है’।

इसी दृष्टिकोण के चलते सरकार ने गंगा नदी के प्रदूषण निवारण और नदी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से जून, 2014 में ‘नमामि गंगे’ नामक एक एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन का शुभारंभ किया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नदी की सफाई के लिये बजट को चार गुना करते हुए वर्ष 2019-2020 तक नदी की सफाई पर 20,000 करोड़ रुपए खर्च करने की केंद्र की प्रस्तावित कार्य योजना को मंज़ूरी दे दी।

गंगा नदी संरक्षण की बहु-क्षेत्रीय और बहु-आयामी चुनौतियों को देखते हुए इसमें कई हितधारकों की भूमिकाओं में वृद्धि, विभिन्न मंत्रालयों एवं केंद्र-राज्यों के मध्य बेहतर समन्वय और कार्य योजना की तैयारी में सभी की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए केंद्र एवं राज्य स्तर पर निगरानी तंत्र को बेहतर करने के प्रयास किये गए हैं।