
संयोग देखिये, 1971 व 1983, दोनों ही शासन कालों में इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं। इस समय भी विस्थापितों के शिविर बसाये गए। हालाँकि, 1983 में 1971 के समान विस्थापन-समस्या सघन -गहन नहीं थी लेकिन तमिलनाडु की भूमि इसे लेकर काफी संवेदनशील थी। 1985 -86 में मैंने जाफना में देखा था कि किस तरह बेचैन थे आज़ादी के लिए तमिल लोग। लिट्टे के नेता प्रभाकरण आराध्य का दर्ज़ा रखते थे।
नई दिल्ली ने लिट्टे की कितनी और कैसे मदद की और प्रभाकरण के साथ क्या किया , यह एक अलग-लम्बी कहानी है। यहाँ इतना ही कहना काफी होगा कि मुख्य धारा का राष्ट्रवाद और सीमान्त उपराष्ट्रवाद के मध्य मौजूद अंतर्विरोध कभी निर्णायक रूप से आक्रामक हो जाते हैं, और कभी सुप्त। अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों पर भी अंतर्विरोधों का निर्णायक समाधान निर्भर करता है।
पेशावर में सालों से मौजूद अफगानी विस्थापितों के विशाल शिविरों को देखने के बाद मुझे यही एहसास हुआ। 1990 -91 में इन शिविरों की यात्रा की थी। अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के प्रवेश के बाद से लोगों का वहां से पलायन शुरू हो गया था। इंसान भूमि के भूगोल से ही नहीं उखड़ता है बल्कि वह अपने ईथोस ( संस्कृति, सभ्यता, भाषा, जीवन शैली, मिथक, इतिहास, परिवेश-संवेदनाओं-प्रतीकों-बिम्बों -रूपकों -गाथाओं -नायकों -प्रति नायकों आदि) से भी विस्थापित हो जाता है। किसी भी देश-काल का शिविर इसकी भरपाई नहीं कर सकता।
शिविरों के लोग उजड़े -उखड़े – आधे -अधूरे -टूटे-लुटे -पिटे ही मिलेंगे। पेशावर शहर के बाहर काबुल मार्ग के किनारे बसाये गए शिविरों में ऐसी ही मानवता दिखाई दी। ज़रा सोचें , इन शिविरों में पैदा होने वाले बच्चों का बोध -संसार कैसा बनेगा ? 1990 में रूसियों के जाने के बाद तीन तीन सरकारें आईं ( मुजाहिदीन ,तालिबान और वर्तमान अलाइन्स सरकार ) लेकिन शिविर जस -के- तस हैं। छत्तीसगढ़ के विस्थापित भी कहां लौट सके, न ही श्रीलंका के और न ही जम्मू में अवस्थित श्रीनगर घाटी के विस्थापित पंडित!
मैं वापस भारत -पाक युद्ध की ओर लौटता हूँ। 3 दिसंबर,1971 को भारत-पाक युद्ध शुरू हो गया। मैं 4 दिसंबर की सुबह कलकत्ता (अब कोलकता ) पहुँच गया। अगरतला से मैं अगस्त-सितम्बर में दिल्ली लौट चुका था। पूर्वी पाकिस्तान से पलायन पर काफी कुछ लिखा; कैसे छापामार युद्ध लड़ा गया ?; विस्थापितों की कारुणिक गाथाएं ; विदेशी शक्तियों की परोक्ष भूमिका आदि। अब मुझे सीधा वॉर -ज़ोन में ले जाय जा रहा था। साथ में देसी -विदेशी पत्रकार भी थे । वियतनाम के अनुभवी युद्ध संवाददाता भी हमारे बीच मौजूद थे। प्रेस -काफिले का नेतृत्व जनरल जैकब (बाद में जैकब पंजाब के राज्यपाल भी बने) कर रहे थे। प्रेस को हैंडल करने में सिद्धहस्त। रोज़ शाम को प्रेस ब्रीफिंग और सुबह युद्ध क्षेत्र में ले जाना।
जब हमारा काफिला जैसोर क्षेत्र में दाखिल हुआ तो चारों तरफ छाई आक्रांत ख़ामोशी से सामना हुआ। कुछ जगह झोंपड़ियाँ झुलस रहीं थीं। जीवन जड़वत था। दरख़्त झुलसे हुए थे। वीरानी -ही -वीरानी। कभी किसी मुंडेर पर बैठा या दुबका हुआ मनुष्य दिखाई दे जाता। जितने आगे बढ़ते गए चीख- पुकारें भी कानों से टकराती गईं। एक जगह दिल दहला देनेवाला मंजर था ; शव बिखरे हुए थे; सैनिकों और नागरिकों, दोनों के ; स्त्रियों- बच्चों के शव भी मिले। काफिला रुका। हम लोग अपनी जीपों से उतरे। फोटोग्राफर तो शवों के चित्र लेने पर टूट ही पड़े, जैसे गिद्ध शवों पर टूट पड़ते हैं। विभिन्न कोनों से छवियाँ ले रहे थे। शवों के चित्रों में भी सौन्दर्य बोध की पिपासा थी। मुझे वितृष्णा -सी होने लगी।
एक विदेशी फोटोग्राफर ने वाक्य कसा, ‘वी आर प्रोफेशनल’। पहले सेना की गोलियों ने इन मानुषों को शवों में बदला , और अब कैमरे की ज़ूम लेंसों से शूट करके शवों को छवि-सौन्दर्यता में रूपांतरित किया जा रहा है जिससे कि ये बाजार की ‘कमोडिटी’ बन सकें। हम ! रिपोर्टर या रिपोर्ताज लेखक भी सुन्दरतम शब्द चित्रों में घटनाओं को उतारने की कोशिश करते हैं। अधिक से अधिक रोचक व पठनीय बनाते हैं। विशुद्ध यथार्थ और सौन्दर्यमयी चित्रण के मध्य द्वंद्व के लिए स्पेस हमेशा रहता आया है। खैर ! ताज़ा ताज़ा मुक्त हुआ जैसोर -चित्रों में था, पाकिस्तानी फौज के चंगुल से।
अगले दिन हमारा पड़ाव खुलना ज़ोन में था। तो हम खुलना पहुँच चुके हैं। साथ में कुछ और पत्रकार जुड़ चुके हैं। विदेशी पत्रकार भारतीय पत्रकारों से अधिक सक्रिय हैं और युद्ध रिपोर्टिंग में निपुण। शायद वे इसके अभ्यस्त भी हैं। शीत युद्ध ( कोल्ड वॉर ) के जख्मों को शब्दों और चित्रों में क़ैद करते रहे हैं। युद्ध क्षेत्र में पहले चरण में ‘कांटेक्ट पॉइंट’ आरम्भ हो जाता है। इसका अर्थ यह अर्थ हुआ कि आप युद्ध क्षेत्र के गहन क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं। ऐसी जगह पहुँच चुके हैं जहाँ से दोनों पक्षों के भिड़ंत के प्रभाव महसूस किये जा सकते हैं। लड़ाई कभी भी भड़क सकती है। प्रेस पार्टी से मैं और अन्य दो विदेशी पत्रकार छिटक जाते हैं। अतिउत्साह में आगे बढ़ जाते हैं। ‘आँख -से- आँख ( आई -टू -आई कांटेक्ट )’ यानी आमने -सामने वाले अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र में दाखिल हो जाते हैं।
हम पाक सैनिकों को सामने देख सकते हैं। हमारा दुर्भाग्य देखिए, इन्ही क्षणों में दोनों ओर से फायरिंग शुरू हो जाती है। हम क्रॉस -फायरिंग में फंस जाते हैं। यह देख कर एक भारतीय टैंक दनदनाता हुआ आता है। आदेश होता है कि हम लोग टैंक की ओट में पीछे पीछे चलते रहें। मौत प्रतीक्षारत है, कुछ पलों के लिए ऐसा ही लगा था। किसी भी पक्ष की गोली हममें से किसी को भी अपने साथ उड़ा कर ले जा सकती थी। लेकिन विदेशी इन क्षणों में भी अपने कैमरों में मौत और ज़िंदगी के फासले को क़ैद करने से चूक नहीं रहे थे। मैं अपने दिमाग में इन पलों को दर्ज़ करता जा रहा था। कुछ देर बाद फायरिंग थमी। सैनिक अफसरों के संरक्षण में डांट झेलते हुए हम सुरक्षित स्थान पर लग सके।
दिल्ली के 1984 के दंगों में भी मैं मौत से अखियां लड़ा चुका हूँ। तब मैं जंगपुरा में एक सिख के मकान में किराये पर रहता था। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजधानी में दंगे भड़क चुके थे। इन्हें मैं अपने दैनिक अखबार नई दुनिया के लिए कवर कर रहा था। जंगपुरा से सटे लाजपतनगर का अनुभव है : एक। लाजपतनगर के एक गुरुद्वारे को जलाया जा रहा था ; मैं इस अग्रिकांड के चित्र-पर-चित्र ले रहा था; अचानक हिन्दू बलवाइयों का ध्यान मेरी गया और मेरी तरफ दौड़ने लगे; यह देख कर मैं अपने स्कूटर की तरफ लपका, स्टार्ट कर उसे दौड़ाया ; पीछे पीछे दंगाई दौड़े कुछ दूर तक और उनके हाथ में कैमरे का कवर आ गया लेकिन मैं बच गया, कैमरा भी सुरक्षित रहा, इत्तफ़ाक़ से पीछे दौड़नेवाले ज़मीन पर गिर पड़े ;। दूसरे दिन मैं भोगल से लौट रहा था। अचानक सिखों ने किसी मकान की छत से फायरिंग शुरू करदी। मैं घबराया। पास के एक मकान की दीवार से चिपक कर जान बचाई। ऐसे क्षणों में बांग्लादेश के अनुभव दिमाग़ पर दस्तक़ देने लगे थे।
1987 में अफगानिस्तान यात्रा में भी मैं ‘अलविदा’ का सामना कर चूका हूँ। काबुल में हम लोग (मैं, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता और इटली का पत्रकार) एक पहाड़ी पर स्थित इंटर कॉन्टिनेंटल होटल में ठहरे हुए थे। एक शाम लाउन्ज में चाय पी रहे थे। कुछ ही देर में हमसे कुछ दूर ज़ोर का धमाका हुआ। हम लोगों को वहां से तुरत-फुरत हटाया गया और सुरक्षित कमरे में ले जाया गया। होटल के बाहर मशीनगनें तैनात करदी गईं। फिरसे आँखों में अगरतला और खुलना तैरने लगे। ऐसे अवसरों को ‘प्रोफेशनल हैज़ार्डस’ समझ कर युद्ध संवाददाता अपना ज़ी हल्का करते रहते हैं।
दिसंबर के अंतिम सप्ताह में मैं भारतीय सेना की एक टुकड़ी के साथ कुमिल्ला होता हुआ ढाका पहुँचा। अगरतला के अखौड़ा बॉर्डर से लेकर ढाका तक विध्वन्स के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं दिया ; चारों तरफ मानव द्वारा मानव -विनाश का तांडव था ; खेत-मकान -इंसान जल रहे थे ; नदी -नालों -पोखरों में लाशें सड़ रहीं थीं। आदि काल से लेकर बीसवीं सदी तक मनुष्य कितना सभ्य -सुसंस्कृत बन सका है , यह प्रश्न मस्तिष्क में रह रह कर कौंध रहा था। मुझे सर्किट हाउस ठहराया गया।
अगले रोज़ पूर्बानी होटल में दिनमान के सम्पादक रघुवीर सहाय टकरा गए। दो रोज़ साथ रहे। लेखकों -नेताओं से मिले। प्रसिद्ध कवि जसीमुद्दीन के यहाँ तो दोनों का खूब आना-जाना रहा। वे विचारों से समाजवादी थे, और उनके पुत्र वामपंथी थे। उन्होंने ही मुझे कम्युनिस्ट पार्टी के शिखर नेता मोनीसिंह से मिलवाया था। शायरा व कथाकार लैला समद के यहाँ ले गए। जसीमुद्दीन की छोटी पुत्री आसमां ने मेरे लिए बांस का आचार रघुवीर सहाय जी के साथ भेजा। दिल्ली पहुँच कर मुझे दिया। विध्वंस के बीच भी मधुर स्मृति अंकुरित हो जाती है। ऐसे ही मानवीय सम्बन्ध मनुष्य के अस्तित्व को सुरक्षित रखते आये हैं। असंख्य युद्धों और हिरोशिमा -नागासाकी परमाणु बम विस्फोटों के बावजूद मानवता इस धरा पर पल्ल्वित है।
जनवरी (1972) के पहले सप्ताह में कलकत्ता के लिए उड़ान भरने के लिए हवाई अड्डा पहुँचा। लाउन्ज में तत्कालीन जनसंघ के नेता प्रो. विष्णुकांत शास्त्री टकरा गए। वे धर्मयुग के लिए रिपोर्ताज लिख रहे थे। बहस शुरू हो गई। प्रो। शास्त्री कहने लगे, ‘बांग्लादेश’ बन गया है। अब हिन्दुओं को चाहिए कि वे संगठित हो कर अपनी गतिविधियां शुरू करदें। हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार करें, वरना उन पर इस्लाम हावी हो जायेगा। मैंने इस सोच का प्रतिवाद किया और कहा , ‘शास्त्री जी, अभी युद्ध के ज़ख़्म तो भरने दें। विनाश से दोनों क़ौमों को उभरने दें। मरहम लगाएं।’
मेरे विचार शास्त्री जी को रास नहीं आये। बहस इतनी छिड़ गई कि बोर्डिंग टाइम का ध्यान ही नहीं रहा। एयरपोर्ट का अफसर चिल्लाता हुआ आया और हम दोनों को डकोटा विमान में चढ़ाया गया। हमारी वजह से विमान -रवानगी दस -पंद्रह मिनिट लेट हो रही थी। दोनों जैसे -तैसे विमान में धंस गए। मेरी बगल की सीट पर कलकत्ता से प्रकाशित दैनिक स्टेट्समैन के रिपोर्टर सान्याल बैठे मिले। अनुभवों का आदान -प्रदान होने लगा।
अपने अनुभव -विश्लेषण पर आधारित सान्याल की भविष्यवाणी करीब साढ़े तीन साल बाद सही निकली। सान्याल ने कहा था, “जोशी जी, स्वतंत्र बांग्लादेश बन जाने के बाद भी ग्रामीण इलाकों में कट्टर इस्लामपंथी ज़िंदा हैं। अमेरिका की सीआईए भी सक्रिय है। लम्बे समय तक बंगबंधु को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, देख लेना।” इस चेतावनी को मैंने हंस कर टाल दिया। लेकिन, इसी चेतावनी ने 15 अगस्त,1975 की भोर में ‘वास्तविकता’ का रूप ले ही लिया ! दमदम हवाई अड्डे पर डकोटा उतर रहा था।
(रामशरण जोशी उन चंद हिंदी पत्रकारों में से हैं जिन्होंने युद्ध क्षेत्र में रह कर सोनार बांग्लादेश की प्रसव पीड़ा को कवर किया था। )
समाप्त…।