कोरोना बीमारी से देश अनोखे तरीके से निपट रहा है। कोरोना से लड़ते हुए करोड़ों मजदूर सड़कों पर पैदल अपने गृह राज्य की तरफ जा रहे हैं। दुनिया के किसी भी देश ने कोरोना संक्रमण के काल में मजदूरों और गरीबों को सड़कों पर भूखे मरने के लिए नहीं छोड़ा है। शायद पाकिस्तान औऱ बांग्लादेश जैसे गरीब मुल्क भी इस संकट काल में भारत की तरह अपने मजदूरों को सड़कों पर मरने के लिए नहीं छोड़ा है। उन देशों से मजदूरों की दुर्दशा वाली तस्वीरें और खबरें नहीं आयी है।
भारत में मजदूरों को सिर्फ सड़कों पर मरने के लिए ही नहीं छोड़ा गया है, बल्कि इनपर खुलकर राजनीति भी हो रही है। गरीबों की दशा पर केंद्र और राज्यों का शासन तंत्र मजा ले रहा है। उनके संकट को और बढ़ाया जा रहा है। प्रतिदिन सड़क पर जाते हुए मजदूर मर रहे है। कभी भूख से तो कभी गाड़ी से टक्कर खाकर। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उतर प्रदेश से मजदूरों की दुर्घटना से मौत की खबरें आ चुकी है।
इस तरह की खबरें दक्षिण एशिया के किसी गरीब देश से नहीं आ रही है। भारत ने इस तरह की खबरों में बाजी मारी है। दरअसल कोरोना ने न्यू इंडिया की सही तस्वीर पूरी दुनिया के सामने रख दिया है। दावा किया गया था कि देश को 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनाएंगे। इन्फ्रास्ट्रक्चर में 100 लाख करोड़ निवेश करेंगे। इतने ब़ड़े दावे के बाद श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में जाने वाले गरीब फटेहाल मजदूरों पर महज कुछ सौ रूपये बतौर किराए वसूल लिए गए।
माइग्रेशन का एक महत्वपूर्ण कारण होता है, बेहतर अवसर की तलाश। सदियों से बेहतर अवसर की तलाश मे माइग्रेशन होता रहा है। कठिन परिस्थितियां चाहे वो सामाजिक हो या आर्थिक या धार्मिक, मनुष्य एक जगह से दूसरी जगह जाने को मजबूर होता है। किसी जमाने में कृषि के लोभ में लोग गंगा घाटी के मैदान में पहुंचे। यहां मिट्टी उर्वर थी। जंगल थे, खनिज थे। इसी तरह आधुनिक भारत में देश के पूर्वी राज्यों के लोगों को देश के पश्चिमी, उतरी और दक्षिणी राज्यो में बेहतर रोजगार की तलाश में जाने को मजबूर किया। इसके दो परिणाम हुए है।
पूर्वी राज्य विकास के मामले में बुरी तरह से पिछड गए। क्योंकि इन राज्यों को सस्ता श्रम उपलब्ध कराने की फैक्ट्री मान लिया गया। पूर्वी राज्यों के विकास को जानबूझ कर रोका गया। इस साजिश में पूर्वी राज्यों के नेता, देश के बड़े कारपोरेट घराने और औधोगिक राज्यों के नेता शामिल है। देश में साजिशन नीति नियामकों ने एक एसी नीति बनायी कि बिहार, बंगाल, झारखंड और उड़ीसा जैसे राज्यों का विकास ही नहीं हो पाया। क्योंकि पूर्वी राज्य ही राज्य देश के बड़े महानगरों से लेकर औद्योगीकरण के केंद्रों वाले राज्यों में सस्ता श्रम देता है।
दरअसल, इस सस्ते श्रम के लोभ में बिहार, यूपी, बंगाल जैसे राज्यों को जानबूझ कर पिछड़ा रखा गया। इसे मात्र एक उदाहरण से समझा जा सकता है। केंद्र सरकार ने जानबूझ कर पिछले पांच सालों में औधोगिक घरानों के दबाव में औधौगिक राज्यों को सस्ता श्रम उपलब्ध करवाने के लिए मनरेगा जैसे कार्यक्रम को हाशिए पर लाने का काम किया।
बिहार, बंगाल, झारखंड, ओडिशा, यूपी बीमारू राज्य है। यहां की एक बड़ी आबादी दूसरे राज्यों में नरक की जिंदगी जीने को मजबूर है। अब समय आ गया है कि वे अपने राज्यों के नेताओं और सरकारों से अपने राज्यों के विकास का हिसाब-किताब मांगे। क्योंकि प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्य के नेताओं, प्रशासन और जिम्मेवार लोगों ने इस मुसीबत की घड़ी में नहीं पूछा। उन्हें सड़कों पर पैदल चलने के लिए मजबूर किया। उन्हें भूखे रहने को मजबूर किया। दिल्ली जैसे शहर में प्रवासी मजदूर धक्के खाते रहे। उन्होंने गुरूदवारों से लंगर खाकर किसी तरह से अपना समय बिताया। लेकिन लुटियंस में रहने वाले उनके गृह राज्य के नेताओं ने कोई मदद नही की, उन्हें पूछा तक नहीं।
इसमें कोई शक नहीं कि प्रवासी मजदूर जो कमाता है उसका बड़ा हिस्सा भी इस देश के निर्माण में लगा देता है। कमाई का एक हिस्सा अपने गृह राज्य में भेजता है। यह उसके गृह राज्य के विकास में योगदान देता है। क्योंकि यह पैसा जब उसके राज्य में पहुंचता है तो उससे मांग जनरेट होती है। सामान बिकता है, औधोगिक उत्पादन में यह पैसा सहायक होता है। दूसरी तरफ प्रवासी मजदूर जिस राज्य में रोजगार प्राप्त करता है वहां की इकोनॉमी को दो तरफ से मजबूती प्रदान करता है।
एक तरफ प्रवासी मजदूर जहां श्रम के माध्यम से राज्य की इकोनॉमी को मजबूत करता है, वहीं दूसरी तरफ प्रतिदिन अपनी कमाई का एक हिस्सा खर्च कर स्थानीय इकनॉमी को मजबूती देता है। वो किराए के मकान में रहता है। स्थानीय दुकानों से अपनी राशन खरीदता है। इसका सीधा लाभ स्थानीय आबादी को मिलता है। वैसे में प्रवासी मजदूर भार नहीं है। वो एक साथ कई फ्रंट पर विकास में योगदान दे रहा है।
कोरोना संकट काल में माइग्रेंट लेबर की दुर्दशा के लिए जिम्मेवार केंद्र सरकार की नासमझी, गलत नीति और अरदूरदर्शी फैसला है। लॉकडाउन से पहले केंद्र सरकार ने ने राज्यों के मुख्यमंत्री से सलाह नहीं ली। एकाएक लॉकडाउन के आदेश दिए गए। केंद्र सरकार ने यह सोचा भी नहीं कि देश की उस अस्सी करोड़ गरीब आबादी का क्या होगा, जिनका कामकाज लॉकडाउन के कारण ठप हो जाएगा?
केंद्र सरकार ने लॉकडाउन से पहले यह भी नहीं सोचा कि लगभग 11 करोड़ माइग्रेंट लेबरों का क्या होगा, जो प्रतिदिन कमाकर शाम को खाते है? आखिर परिणाम घातक ही निकले। लॉक डाउन के पहले सप्ताह से ही अभी तक मजदूर सड़क पर है। केंद्र और राज्यों के बीच कोई संवाद-संयोजन तक नही बन पाया। संयोजन का आभाव अभी तक है। श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को लेकर अभी तक विवाद है। केंद्र राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है, राज्य केंद्र पर दोषारोपण कर रहे है। लेकिन सच्चाई यही है कि एक बड़ी लॉबी माइग्रेंट लेबर को बंधक बनाकर रखना चाहती है। क्योंकि अगर ये अपन गांव की तरफ चले गए तो उधोगों को सस्ते लेबर नहीं मिल पाएंगे।
भारत की इकोनॉमी को गंभीर चोट अभी लगेगी। जो दुष्परिणाम आने है उसका अंदाजा सरकारों को नहीं है। अगर अंदाजा है, तो जानबूझ कर अनजान बना जा रहा है। इकोनॉमी पर चोट इस कदर है कि शायद 2.5 ट्रिलियन डालर की इंडियन इकोनॉमी 2 ट्रिलियन डालर की रह जाए। कहां इसे 5 ट्रिलियन डालर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया था। इकोनॉमी को भारी नुकसान पहुंचने का मुख्य कारण कोरोना नहीं है। इकोनॉमी के नुकसान का मुख्य कारण सरकार का अदूरदर्शी फैसले है। सरकार कोरोना से निपटने के लिए खजाने से 1 लाख करोड़ रुपए हेल्थ सर्विस पर तत्काल खर्च करने के बजाए फुल लॉकडाउन की थ्योरी पर चली।
फुल लॉकडाउन से देश की इकोनॉमी को प्रति सप्ताह लगभग 2 लाख करोड़ रुपये नुकसान पहुंचा। अगर सीमित लॉकडाउन कर इमरजेंसी हेल्थ सर्विस पर पैसा खर्च सरकार करती तो शायद ये दिन देखने नहीं प़ड़ते है। दक्षिण कोरिया, वियतनाम और ताइवान इसके उदाहरण है, जिन्होंने फुल लॉकडाउन से दूरी रखी। दिलचस्प बात है कि फुल लॉकडाउन को सबसे बेहतर तरीका बता सरकार पीठ थपथपा रही है। दूसरी तरफ भारत ने कोरना संक्रमित मरीजों की संख्या में चीन को पीछे छोड़ दिया है।
(संजीव पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और चंडीगढ़ में रहते हैं।)