फ्रेंच साहित्याकार आंन्द्रे मॉलरो के शब्दों में जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री के साथ ‘राष्ट्र के गुरु’ भी थे। 2014 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद सत्तारूढ़ दल लगातार नेहरू को कटघरे में खड़ा कर रहा है। इसके साथ ही नेहरू की इतिहास, संस्कृति और राजनीतिक दृष्टि को भारत विरोधी ठहराने की सुनियोजित साजिश हो रही है। सच तो यह है कि आज अधिकांश लोगों का साहित्य और इतिहास-बोध सोशल मीडिया से प्राप्त सामग्री पर निर्भर करने लगा है। साहित्य और इतिहास के प्रति सजगता और रुचि का यह हाल करने में स्वयं नेहरू की पार्टी कांग्रेस द्वारा अपनाई गईं ‘मानव संसाधन विकास’ की नीतियों की भूमिका कुछ कम नहीं।
इन दिनों गढ़े जा रहे ‘न्यू इंडिया’ का राजनीतिक भ्रम और अफवाहों से गहरा रिश्ता है। इस न्यू आइडिया ऑफ इंडिया में निहित चुनौती के प्रति और लापरवाही बरतना घातक समझ कर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ‘कौन हैं भारत माता?’ पुस्तक का संपादन किया है। इस पुस्तक में नेहरू और उनकी बौद्धिक विरासत के साथ ही इतिहास, संस्कृति और भारत की संकल्पना से संबंधित लेखों का संग्रह है।
सबसे पहले अंग्रेजी में ‘हू इज भारत माता’ प्रकाशित हुई। इसके बाद प्रो. राधाकृष्ण ने ‘यारु भारत माते’ नाम से कन्नड़ में अनुवाद किया। अब पूजा श्रीवास्तव ने हिंदी में ‘कौन हैं भारत माता ?’ का अनुवाद किया है। पिछले कुछ समय से भारत माता की जय के नारों के बीच नेहरू और उनकी बौद्धिक विरासत को लेकर बहस भी गरम है। ‘कौन हैं भारत माता?’ पुस्तक ने भारतीय इतिहास, संस्कृति और भारत माता की संकल्पना को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल से प्रदीप सिंह की बातचीत का मुख्य अंश :
प्रश्न: हमारे देश में लगभग हर राजनीतिक आयोजन एवं सभाओं में ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाने का चलन है। इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई और भारत माता का सही अर्थ क्या है ?
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश में कैसे जन-जागरण किया जा रहा था और देशवासियों को शिक्षित-प्रशिक्षित किया जा रहा था, इसका एक उदाहरण है यह प्रसंग। नेहरू आंदोलन के दौरान आम लोगों से मिलते तो लोग भारत माता की जय बोल कर उनका स्वागत करते थे। यह बात 1946 की है। उनका सवाल लोगों से था कि जब आप भारत माता की जय कहते हैं, तो इसका मतलब क्या होता है? प्रसंग का सार तत्व यह है कि भारत में रहने वाले करोड़ों आम आदमी, आम इंसान ही भारत माता हैं। आम इंसान की जय ही भारत माता की जय है। दुर्भाग्य से आज आम नहीं, कुछ खास लोगों की जय को ही देश की जय बताया जा रहा है।
प्रश्न: वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी का कहना है कि पिछले सत्तर सालों में देश में कुछ नहीं किया गया। आजादी के बाद देश पर शासन करने वाले दलों ने विकास और प्रगति के मामले में कुछ खास नहीं किया। क्या यह बात सही है कि पिछले सत्तर सालों में देश में कुछ नहीं हुआ ?
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: आजादी के बाद भारत माता में कितना बदलाव आया, यह जानने के लिए हमें 1947 में जब देश आजाद हुआ था, तब का मानव विकास सूचकांक देखना होगा। फिर 17 साल बाद जब नेहरू का निधन हुआ तब और सत्तर साल बाद आज मानव विकास सूचकांक क्या है? सिर्फ दो मिसालों से बात साफ हो जाएगी। 1947 में औसत जीवन प्रत्याशा 31 साल और साक्षरता दर 18 फीसदी थी। आज औसत आयु 70 वर्ष और साक्षरता दर 75 प्रतिशत से ऊपर है।
इन सत्तर सालों में लोकतंत्र को बनाए रखते हुए बिना तानाशाही अपनाए औसत आयु में वृद्धि कर देना कम महत्वपूर्ण नहीं है। औसत आयु के बढ़ने का मतलब है पौष्टिक आहार और स्वास्थ्य- चिकित्सा सुविधाओं का उपलब्ध होना। इसलिए मैं नहीं मानता कि सत्तर सालों में देश में कुछ नहीं हुआ। हां, देश के नाम और उपलब्धियां हो सकती थीं, लेकिन जो हुआ है उसे कम आंकना सही नहीं है।
प्रश्न: आरएसएस भारत माता की जो संकल्पना पेश करती है उसमें देश के अधिकांश लोग बाहर हो जाते हैं। नेहरू की भारत, इतिहास और संस्कृति को लेकर जो संकल्पना है उसको लेकर काफी भ्रम का माहौल बना दिया गया है ?
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: देखिए, देश में जो प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतें हैं, ये काम उनका था। कई वर्षों से कांग्रेस यानी नेहरू की अपनी पार्टी और दूसरी डेमोक्रेटिक सेक्युलर पार्टियों ने वैचारिक संप्रेषण की उपेक्षा की है। राजनीतिक दल विचार से दूर होते गए। इसलिए केवल भारत की संकल्पना पर ही नहीं, चारों ओर बहुत सारा भ्रम फैला हुआ है। कांग्रेस एवं दूसरे दलों के वैचारिक उपेक्षा ने संघ को अपना विचार प्रचारित-प्रसारित करने के लिए बहुत स्पेस उपलब्ध कराया।
आज इतिहास, धर्म और महापुरुषों के बारे में जो भ्रामक तथ्य विमर्श के केंद्र में है उसे बहुत सुनियोजित तरीके से फैलाया गया है। हम भूल जाते हैं कि दो सौ साल की औपनिवेशिक लूट में 43 ट्रिलियन डॉलर इंग्लैंड ने भारत से खींचा। 1942-43 में बंगाल में बनावटी अकाल लाया गया। लाखों लोग मारे गए। इन विपदाओं से निपटते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं।
आज हम खुद कोरोना की वैक्सीन बना रहे हैं। 1960 में नेहरू इसी चीज को विजुआलाइज कर रहे थे, वे वैज्ञानिकों से जेनरिक दवाएं और वैक्सीन बनाने पर ध्यान देने को कह रहे थे। कह रहे थे कि हमें महामारियों पर कंट्रोल करना है। ऐसी स्थिति में इन सब उपलब्धियों के परे यह देखिए कि जाति-धर्म, लिंग के भेदभाव के बिना हम सब भारत माता की संतान हैं। इस बात को लोगों तक पहुंचाने में लापरवाही की गई।
प्रश्न: इतिहास और संस्कृति में भारत की जो संकल्पना है, आज भारत उसके कितना नजदीक है?
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: इतिहास और संस्कृति कोई स्थिर, जड़ वस्तु नहीं होती। उसमें संकल्पनाओं और विभिन्न विचारों का विकास होता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति को समझने के लिए नेहरू रूपक का इस्तेमाल करते हैं। वे कहते हैं कि यह मुझे किसी पुरानी पांडुलिपि के पन्नों की तरह लगती है, जिसमें कभी किसी ने कुछ इबारत लिखी, फिर किसी दूसरे ने इबारत लिखी। इस तरह से उस पर दसियों इबारत लिखी गईं, लेकिन कोई भी अगली इबारत पिछली इबारत को पूरी तरह मिटा नहीं पाई। आखिरी इबारत के बीच अभी भी पहली इबारत के चिह्न झलक जाते हैं।
भारतीय संस्कृति मिली-जुली संस्कृति रही है। खान-पान से लेकर पहनावे तक इसे देख सकते हैं। भारत में आलू को पुर्तगाली ब्राजील से लाए थे। समोसा, जलेबी और हलवा तुर्क लाए। आज उत्तर भारत में बढ़िया नाश्ते की कल्पना आप इन चीजों के बिना नहीं कर सकते। कहने का मतलब है कि हमारी संस्कृति खुली संस्कृति है। इसने बहुत चीजों को स्वीकार किया और रिजेक्ट भी किया।
प्रश्न: नेहरू के उदारवाद को उच्चवर्गीय अभिजात्यवाद से भी जोड़ा जाता रहा है, जिसकी सीमाएं बाद में वाम, दक्षिण और सोशलिस्ट, तीनों खेमों ने अपने-अपने तरीके से रेखांकित कीं। क्या नेहरू के यहां इन आलोचनाओं की रोशनी में भारत माता या भारतीय राष्ट्र की अवधारणा को लेकर कभी कोई पुनर्विचार भी दिखता है?
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: पहली बात अभिजात्य यानी सॉफिस्टिकेशन, शिष्टता अपने आप में कोई बुरी नहीं, बल्कि अच्छी चीज है। दूसरी बात, नेहरू का जन्म जरूर एक बहुत संपन्न परिवार में हुआ था, लेकिन उस संपन्नता की सीमाओं को उन्होंने प्रयत्नपूर्वक लांघा और गरीब से गरीब हिंदुस्तानी का विश्वास अर्जित किया। उनका सपना न्याय आधारित समाज का था और उनकी राजनीति जनोन्मुख, लोकतांत्रिक थी। इसीलिए तो वे मानते थे कि गरीब से गरीब हिंदुस्तानी की जय ही असल में भारत माता की जय है।