मध्यप्रदेश में खरगोन जिले की संध्या इलाज के सिलसिले में महाराष्ट्र के वर्धा गई थी। उसे एक दवा खरीदनी थी। उस दवा के दाम सावंगी स्थित अस्पताल परिसर में स्थित दुकान में 14800 रूपये मांगे गए। सेवा ग्राम स्थित सरकारी अस्पताल के पास स्थित दुकान में उसकी कीमत 9000 रुपये मांगे गए। वर्धा में एक दवा की दुकान में उसकी कीमत 7000 रुपये बतायी गई। वही दवा उसे एक दूसरी दुकान में 4600 में मिली। उस दवा की 150 मिलीग्राम की अधिकतम कीमत 7400 और 100 एमजी की अधिकतम कीमत 4600 थी। दरअसल यह अधिकतम दाम नीति का एक नमूना है।
सरकार के विज्ञापनों में उपभोक्ताओं को जागरूक करने के लिए यह प्रचार किया जाता है कि किसी चीज पर जो अधिकतम दाम अंकित होता है उसकी खरीददारी करते वक्त वह बेचने वाले से मोल-भाव कर सकता है। मोल-मलई को अंग्रेजी में बारगेन करना कहते हैं। यानी खरीददार अधिकतम दाम में विक्रेता को मिलने वाले अधिकतम लाभ में से अपनी क्षमता अनुसार कम करवा सकता है।किसी उपभोक्ता के अंदर यह क्षमता कैसे आती है? स्थितियां ही क्षमता होती है। सीधी सी बात है कि अभावग्रस्त उपभोक्ता जरूरत के हिसाब से चीज की खरीददारी करने के लिए दुकान दर दुकान घूम सकता है।
लेकिन अभावग्रस्त होने के बावजूद उस चीज की जरूरत उपभोक्ता को जगह जगह घूमने की इजाजत नहीं देती है तो उसे दूकानदार की कीमत पर उसकी खरीददारी करनी पड़ती है। दरअसल ये दुकानदार के अधिकतम दाम में जरा भी कम नहीं करना या अधिकतम दाम से भी ज्यादा वसूलने का रास्ता बनाए ऱखने की नीति से जुड़ा मामला है। किसी भी व्यवस्था में ये बात मूल में होती है कि उसकी नीतियां किस वर्ग को ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाने की स्थितियां बनाए रखता है। ऐसी ही नीतियां उस शासन व्यवस्था के चलते रहने के आधार में होती है।
अपने देश में दो तरह की नीतियां साफ तौर पर देखी जा सकती है। पहला तो कंपनियों के ब्रांड के दाम के लिए अधिकतम की नीति है और दूसरा मजदूर वर्ग के लिए न्यूनतम की नीति होती है। न्यूनतम मजदूरी मालिकों के लिए अधिकतम हुआ करती है। सरकार मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी तय करती है। इसका ये अर्थ होता है कि सरकार ये तय करती है कि किसी मजदूर को कम से कम निर्धारित मजदूरी मिलनी चाहिए। मजदूरों के पास मोल-मलई का कोई दायरा ही नहीं होता है। मजदूरी कराने वाला इस बात के लिए केवल कानूनी तौर पर बाध्यकारी होता है कि उसे न्यूनतम मजदूरी देनी है।
न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण वर्षों में एकबार होता है। रोज ब रोज की आर्थिक स्थिति के अनुसार मजदूरी की दर निर्धारित नहीं होती है। इस बात को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि न्यूनतम मजदूरी की दर तय करके सरकारें खुद को मजदूर वर्गों की हितैषी भी बता देती है और उद्योगों या पूंजी पर आधारित किसी उत्पाद को अधिकतम कीमत वसूलने की स्थितियां बनाए रखती है, ये पूंजीवाद का नियम होता है। एक तरह से ऐसी सरकारों की घोषणाएं समाजवादी लेकिन व्यवहार के स्तर पर पूंजीवादी नीतियों की वाहक होती है।
मजदूरी के न्यूनतम और दाम के अधिकतम होने की नीतियों ने समाज में मजदूरों की स्थिति को लगातार बदतर बनाया है तो अधिकतम दाम की नीति से पूंजीवाद मजबूत होता चला गया है। संसदीय व्यवस्था में जो पार्टियां पहले न्यूनतम मजदूरी और दाम बांधों की नीतियों पर चलती थी वे कमजोर होती चली गई है। दाम बांधों की नीति केवल पूंजीवादी नीतियों को नियंत्रित करने तक ही सीमित रही है लेकिन शासन व्यवस्था पर पूंजीवादी नीतियां इस कदर हावी रही है कि उन्होने उसे नियंत्रित करने की भी इजाजत नहीं दी।
संसदीय व्यवस्था के इतिहास में इन दो विरोधाभासी नीतियों का ये परिणाम निकला है कि अब कोई भी राजनीतिक पार्टी न्यूनतम और अधिकतम के बीच में सामंजस्य तक की बात नहीं करती है। धीरे धीरे सारी पार्टियां पूंजीवादी नीतियों के सामने घुटने टेकती चली गई है। मजदूरों की हालात न केवल बदत्तर होती चली गई है बल्कि पूंजीवादी नीतियों ने आबादी के बड़े हिस्से को मजदूर वर्ग में तब्दील कर दिया है।
लेकिन इसके साथ एक और बात जुड़ी है कि पूंजीवादी नीतियों में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की बात जुड़ी होती है। इसका कोई अंत या सीमा नहीं है। पूंजीवादी नीतियां जब जितनी ज्यादा मजबूत होती जाती है सामाजिक कल्याण या समाजवादी संकल्पनाओं से जुड़े कार्यक्रमों पर उसका प्रभाव दिखाई देने लगता है। जो कानूनी स्थिति होती है वह व्यवहार में कमजोर पड़ने लगती है। मजदूरों के मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी में ही व्यवहारिक तौर पर कमी नहीं आई है बल्कि मजदूरों के मिलने वाली सारी की सारी सुविधाएं एक एक कर छिन ली गई है।
कानून धरा का धरा रह गया है। सरकारों का जोर अब नीति के तौर पर न्यूनतम राशि बढ़ाने को पर नहीं होता है। वह बहुत ज्यादा करती है कि तो कल्याणकारी योजनाएं बनाकर खुद के समाजवादी होने की पुष्टि करना चाहती है। यानी सरकार रहमो करम कर रही है ये संदेश प्रसारित करती है। समाज के किसी वर्ग के लिए चलने वाले कल्याणकारी कार्यक्रमों की सफलता भी इस बात पर निर्भर करती है कि वह खुद कितना क्षमतावान है। दीनहीन वर्ग रहमो कर्म पर ही निर्भरता महसूस करता है। कोई भी सरकार दोनों वर्गों की हितैषी एक साथ नहीं हो सकती है। एक गरीब जब ज्यादा गरीब होगा तभी दूसरा पूंजीपति और ज्यादा पूंजी का मालिक होगा।यही कारण है कि गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो पूंजी कुछ लोगों के हाथों में सीमित होती जा रही है।
सरकार की ऐसी नीतियों को थोड़ा और गहराई में जाकर समझा जा सकता है। इन दिनों कई तरह के सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों और रोजगार पैदा करने वाले कार्यक्रमों पर नजर डाली जा सकती है। सरकार की एक बहुत ही महत्वकांक्षी योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना है। इसके लिए सरकार ने कानून भी बनाया है। इसे ऐतहासिक कानून की संज्ञा दी जाती है।लेकिन इस पर बात विचार करना चाहिए इस कानून में क्या है?
कानून में एक परिवार को सौ दिनों का रोजगार देना है। उसके लिए न्यूनतम मजदूरी तय है। यानी ये निश्चित है कि उसे सौ दिनों में कितने पैसे ज्यादा से ज्यादा मिल सकते हैं। उसे परिवार को सौ दिनों का काम देने का अर्थ ये हुआ कि सौ दिनों की मजदूरी से वह तीन सौ पैसठ दिन काम चलाए।
राजनीतिक कार्यक्रमों में कहां ये मांग होती थी कि हर हाथ को काम दो वहां समूची राजनीति सौ दिनों के काम में समा गई है। सरकारी पार्टियां इसे लागू कर खुद को धन्य घोषित कर रही है तो दूसरी पार्टियां इसमें होने वाली बदइंतजामी और भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाकर अपना राजनीतिक धर्म पूरा कर रही है। एक तरह से समझा जाए कि तीन सौ पैसठ दिनों में सौ दिनों के काम देने पर एक राजनीतिक सहमति संसदीय पार्टियों के बीच में बन चुकी है।
दरअसल ये कोई एक कार्यक्रम नहीं है। बल्कि इसे नीति के तौर पर ग्रहण करना चाहिए। उदाहरण के लिए विभिन्न राज्यों में शिक्षा मित्रों की बहाली का है। उन्हें एक निश्चित राशि दी जाती है जो सरकारी स्कूलों में मिलने वाले किसी शिक्षक के वेतन से आधे से भी आधे के बराबर होती है। उस शिक्षक मित्र से वहीं काम लिया जाना है जो काम एक स्थायी शिक्षक से लिया जाता रहा है। लेकिन उसे मजदूरी न्यूनतम मिल रही है।
तीसरा उदाहरण भी कम रोचक नहीं है। जैसे कहा जाता है कि कूरियर कंपनियों के आने से बहुत सारे लोगों को रोजगार मिला है। लेकिन इस पहलू पर विचार करें कि कूरियर कंपनी में काम करने वाले किसी कर्मचारी को कितनी राशि मिलती है। उसे ज्यादा से ज्यादा न्यूनतम मजदूरी मिलती है। लेकिन एक पोस्ट ऑफिस में काम करने वाले कर्मचारी को अब जितनी राशि मिलती रही है उसकी कुल मिलने वाली राशि पर आज कितने कर्मचारी कूरियर कंपनी में काम कर रहे हैं? यदि बही खाता लेकर बैठा जाए और हिसाब लगाया जाए तो रोजगार पैदा करने का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह वास्तव में कितना छलावा है।
पोस्ट ऑफिस में काम करने वाले एक कर्मचारी के बदले में कई कई कर्मचारी पूंजीवादी व्यवस्था को मिल गए हैं। न्यूनतम मजदूरी पाने के हकदार का अर्थ यही नहीं होता है कि उसे न्यूनतम ही मिलना चाहिए। लेकिन न्यूनतम मजदूरी जैसे कानून उसे न्यूनतम मजदूरी पाने का ही हकदार बना देता है। उसे ज्यादा से ज्यादा मजदूरी हासिल करने की स्थितियां नहीं मिल पाती है। दरअसल हमारे समाज में गरीबों के प्रति दया भाव की मानसिकता बनी हुई है। गरीब बराबर के हकदार है और समाज में एक बराबरी की स्थिति बनानी है, ये विचार ही पूरी राजनीति से गायब हो गया है। नतीजे के तौर पर गरीब गरीब होता जा रहा है और अधिकतम दाम की नीति पूंजीवाद को ज्यादा से ज्यादा मजबूत कर रही है।
दरअसल एक छोटी सी बात होती है जिससे कि इस तरह की नीतियों के खिलाफ राजनीति खड़ी की जा सकती है। किसी एक गरीब को ये कहा जा सकता है कि उसे दूसरे अमीरों की तरह बनना चाहिए। जब गरीब को अमीर बनने की होड़ में खड़ी किया जाएगा तो जाहिर सी बात है कि वह अमीर परस्त नीतियों का पक्षधर हो जाएगा।
लेकिन जब उसी गरीब को ये कहा जाए कि कोई न तो गरीब हो और ना ही कोई अमीर हो तो वह ऐसी स्थितियों का पक्षघर होगा कि गरीबी अमीरी की खाई खत्म हो जाए। वह अमीर होने की होड़ में शामिल होने के बजाय समानता की नीतियों का पक्षघर होगा। हमारी राजनीति गरीबों के अमीर बनने का लालच दिखाती है और दया भाव बनाए रखने की स्थितियां भी बनाए रखती है। इसीलिए गरीब भी पूंजीवादी प्रभावों में रहता है।
आजकल के बहुत सारे युवक और युवतियां अभी बदहाली के बावजूद अमीर परस्त नीतियों की पक्षधर दिखती है। किसी भी विचारधारा का यही काम होता है कि वह अपना हथियार उसके हाथों में थमा दें जिसके खिलाफ उसे लड़ने की जरूरत होती है। विचारधारा कोई वस्तु नहीं होती है बल्कि वह दिनचर्या में सक्रिय रहती है। वह रहने बैठने उठने सोचने विचारने सब जगह मौजूद रहती है। यानी विचारधारा एक समाज व्यवस्था के ढांचे के रूप में होती है। अपने देश में न्यूनमत मजदूरी और अधिकतम दाम की अंतर्विरोधी नीतियों को विचारधारा को समझने का आधार बनाया जाए तो ये बात बेहतर तरीके से समझी जा सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)