इस समय नेहरू और मोदी की चीन कूटनीति की तुलना की जा रही है। कहा जा रहा है कि जिन परिस्थितियों में पंडित नेहरू को माओ ने फंसा दिया था, ठीक उसी तरह की परिस्थिति में नरेंद्र मोदी को शी जिनपिंग ने फंसा दिया है। जिनपिंग और मोदी की नजदीकी को लेकर तमाम दावे किए गए। मोदी ने अपने सार्वजनिक भाषणों में जिनपिंग की जमकर तारीफ की थी। यही नहीं मोदी और जिनपिंग की कई बैठकें आयोजित हुई। इन बैठकों को देखकर यही उम्मीद जतायी जा रही थी कि भारत-चीन संबंध के एक नए युग की शुरूआत हो रही है। लेकिन लद्दाख में चीन की धूर्तता और बदमाशी एक नई स्थिति पैदा कर दी है। अब सवाल यह उठ रहे है कि नेहरू की चीन नीति में कुछ मजबूरी थी। लेकिन मोदी की चीन नीति में क्या मजबूरी है?
1962 की जंग से 15 साल पहले ही देश आजाद हुआ था। आजादी के बाद देश को एक साथ कई मोर्चों पर लड़ना पड़ा था। भारत उस समय एक गरीब देश था। भारत का विभाजन हुआ था। विभाजन एक बड़ी त्रासदी थी। आजादी के बाद देश की अर्थव्यवस्था की हालत काफी खराब थी। इन परिस्थितियों में देश को आर्थिक मोर्चे पर मजबूत करना नेहरू का पहला लक्ष्य था। लोग बेशक नेहरू की चीन नीति की आलोचना करते है। लेकिन आलोचना करने वाले भी इस बात को स्वीकार करते है कि नेहरू के पास उस वक्त काफी सीमित विकल्प थे। नेहरू या तो देश को आर्थिक रूप से मजबूत करते या चीन से तनाव बढ़ाकर देश का सैन्यीकरण करते। अगर नेहरू सैन्यीकरण को बढावा देते तो बड़े पैमाने पर आर्थिक संसाधन को सैन्यीकरण में झोंकना पड़ता। जबकि उस समय देश को खाद्य सामाग्री के लिए आत्मनिर्भर बनाना जरूरी था। रोजगार और देश के विकास के लिए उस समय समेत उधोगीकरण जरूरी था। जबकि भारत के पास संसाधन उस समय सीमित थे।
लेकिन इन आभावों का सामना करते हुए नेहरू ने कृषि क्षेत्र को मजबूत करने के लिए भाखड़ा और हीराकुंड डैम का निर्माण करवाया। लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करने के लिए एम्स दिल्ली और पीजीआई चडीगढ़ जैसे दो रिसर्च इंस्टीटयूट की शुरूआत की। लोगों को रोजगार मिले इसके लिए भिलाई और बोकारो जैसे स्टील प्लांट लगवाए। अगर नेहरू चीन से जंग के लिए सैन्यीकरण करते तो न स्टील प्लांट लगते न भाख़ड़ा और हीराकुंड डैम बनता। अगर नेहरू आधुनिक मिसाइल सिस्टम, परमाणु बम बनाने में लग जाते तो भारत की वही स्थिति आज होती जो वर्तमान में पाकिस्तान की है। पाकिस्तान के सैन्यीकरण ने पाकिस्तान को तबाह कर दिया। नेहरू जब कई फ्रंट पर देश में संघर्ष कर रहे थे तो चीन ने नेहरू को धोखा दिया।
लेकिन नरेंद्र मोदी की आज क्या मजबूरी है ? भारत आज विश्व की एक बड़ी अर्थव्यवस्था में शामिल है। भारत की इकनॉमी लगभग तीन ट्रिलियन के करीब पहुंचने वाली है। मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य अक्सर कहते है कि भारत 1962 का भारत नहीं है। हालांकि इसमें काफी हद तक सच्चाई भी है। भारत के पास एक आधुनिक सेना है। भारत के पास आधुनिक मिसाइल सिस्टम है। भारत के पास आधुनिक एयरफोर्स है। आधुनिक हथियारों से लैस नौ सेना है। भारत आज परमाणु शक्ति संपन्न है। फिर प्रधानमंत्री मोदी की स्थिति की तुलना नेहरू से क्यों की जा रही है?
आखिर माओ ने नेहरू के साथ जो किया, वही मोदी के सथ जिनपिंग कर रहे है। हालात यह है कि भारतीय इलाके में चीनी सैनिक बैठे है। प्रधानमंत्री मोदी कहते है कि भारतीय इलाके में घुसपैठ ही नहीं हुई है। पीएम के इस स्टैंड से सबसे ज्यादा जिनपिंग खुश होंगे। क्योंकि मोदी का ब्यान जिनपिंग के स्टैंड का समर्थन करता है। चीन अभी तक यही तो कह रहा है कि भारत के इलाके में चीन तो गया ही नहीं, बल्कि भारत चीन के अधिकार वाले गलवान घाटी में घुसपैठ की कोशिश कर रहा है।
मोदी की विदेश नीति पर सवाल उठाए जा रहे है। यह भी कहा जा रहा है कि मोदी ने विदेश यात्राओं के दौरान भारत की नहीं, बल्कि अपनी खुद की ब्रांडिंग की है। मोदी की ब्रांडिंग के लिए विदेशों में कार्यक्रमों का आयोजन करवाया गया। विदेश यात्राएं नेहरू ने भी की थी। लेकिन नेहरू समर्थक कहते है कि नेहरू को अपनी ब्रांडिंग की जरूरत नहीं पड़ी थी। नेहरू समर्थकों का कहना है कि दुनिया के बड़े-बड़े राष्ट्राध्यक्ष नेहरू के सम्मान में अपना गर्व समझते थे। यह भी कहा जा रहा है कि मोदी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के उस गेम को नहीं समझ पाए जिसमें विचारधारा की कोई जगह नहीं है, बल्कि मुनाफे को प्राथमिकता दी जाती है। अगर मुनाफे की प्राथमिकता की गेम को मोदी समझ गए होते तो चीन के गेम को भी समझ जाते।
मोदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से खूब नजदीकी बढ़ायी। ट्रंप भारत को इंडो पैसेफिक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए उत्साहित करते रहे। एक नया गठजोड़ बनाया गया, जिसमें आस्ट्रेलिया और जापान भी शामिल हुए। लेकिन शायद मोदी यह नहीं समझ पाए कि ट्रंप तो मुनाफे के खिलाड़ी है। जिस ट्रंप के कहने पर मोदी इंडो पैसेफिक में अपनी भूमिका को बढ़ा रहे थे वो ट्रंप तो खुद चीन के साथ मिला हुआ है। मोदी को अब पता चला है कि ट्रंप तो अमेरिका के अगले राष्ट्रपति चुनाव में अपनी जीत पक्की करने के लिए चीन से सहायता मांग रहे है। इसका खुलासा ट्रंप के पूर्व एनएसए जॉन बोल्टन ने कर दी है। यह वही ट्रंप है, जिनपर पिछले राष्ट्रपति चुनाव में रूस से सहयोग लेने का आरोप लगा था।
मोदी अगर नेहरू की तरह मजबूर है तो इसके वाजिब कारण भी है। यह सच्चाई है कि मोदी को विरासत में एक मजबूत भारत मिला है। पंडित नेहरू दवारा बनाए गए मजबूत पब्लिक सेक्टर मोदी को विरासत में मिला। इन्हीं पब्लिक सेक्टरों को बेचकर सरकार अतिरिक्त धन का जुगाड़ कर कर रही है। पर चीन के फ्रंट पर मोदी की कई मजबूरियां है। निश्चित तौर पऱ भारत की सेना मजबूत है।
भारत से जंग की स्थिति में चीन को भारी नुकसान होगा। पर वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था चीन से जंग की अनुमति नहीं देती है। अगर जंग छिड़ी तो भारत की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होगा। चीन के साथ होने वाला जंग का स्वरूप पाकिस्तान से अभी तक हुई जंग से बिल्कुल अलग होगा। क्योंकि चीन के साथ जंग हिमालय क्षेत्र में अरूणाचल प्रदेश से लेकर लद्दाख के बीच होगी। वैसे में जंग में खर्च बहुत ज्यादा होगा। चीन अपनी सीमा में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के मामले में भारत से काफी आगे निकल चुका है। वहीं आज चीन भारत से कहीं ज्यादा मजबूत आर्थिक शक्ति है।
कोरोना ने भारत की आर्थिक स्थिति काफी खराब कर दी है। भारत के ग्रोथ रेट और जीडीपी को लेकर तमाम नकारात्मक संकेत है। वर्तमान वित्त वर्ष में भारत सरकार की राजस्व प्राप्ति को लेकर भी अच्छे संकेत नहीं है। वैसे में चीन से जंग अर्थव्यवस्था पर भारी चोट पहुंचाएगी। दरअसल चीन ने काफी सोच समझ कर लद्दाख सीमा पर खेल किया है। उसने अपने अनुकूल समय का चुनाव किया है। भारत में कोरोना महामारी से बचने के लिए किए गए सख्त लॉकडाउन के आर्थिक परिणामों की जानकारी चीन को है। इसलिए चीन धूर्तता से इस स्थिति का लाभ उठाना चाह रहा है। गौरतलब है कि चीन ने वियतनाम और ताइवान के इलाके में भी बदमाशी की है। लेकिन ताइवान और वियतनाम चीन की साजिश को नकाम करने में सफल रहे है।