क्या बिहार चुनाव में जाति और जंगलराज का मुद्दा ही हावी होगा ?


जेपी आंदोलन के बाद बिहार में समाजवादी परंपरा को आगे बढ़ाने का दावा लालू यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार ने किया। लेकिन तीनों नेता समाजवाद से दूर हैं। तीनों नेताओं ने बिहार में जाति की राजनीति की है। लोगों को जरूर समाजवाद की शिक्षा दी, लेकिन खुद को समाजवाद से दूर रखा।



कोरोना महामारी के बीच बिहार चुनाव की सुगबुगहाट शुरू हो गई है। अखबारों में जातीय आधार पर समीक्षा और फेसबुक पर जातीय आधार पर अपमान और सम्मान की बात हो रही है। चुनाव के पहले का माहौल संदेश देता है कि बिहार की चुनावी बिसात जाति पर ही बिछेगी। कोरोना महामारी, इससे आए संकट, बेरोजगारी और विकास चुनाव का मुददा नहीं होगा। नीतीश कुमार सरकार की विफलताओं के बीच जातीय गणित पर ही लोगों में हो रही चर्चा यह संदेश देने के लिए काफी है कि फिलहाल भाजपा और नीतीश का चुनावी गणित विपक्षी महागठबंधन पर भारी है। चूंकि नीतीश कुमार और भाजपा के पास आज भी जंगल राज जैसा एक महत्वपूर्ण निर्णायक शब्द है। ये शब्द बिहार की बदहाली और कोरोना के दौरान राज्य सरकार की विफलता पर हावी रहेगा।

बिहार की राजनीति दिलचस्प है। हमेशा धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाली कांग्रेस बिहार में शुरू से ही जाति की राजनीति करती रही। कांग्रेस आजादी के बाद 1990 तक बिहार में ब्राहमण, भूमिहारों और राजपूतों की वर्चस्व वाली पार्टी रही। बेशक कांग्रेस के वोटर पिछड़े, दलित, मुसलमानों की तमाम जातियां थी। हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा भी बिहार में जाति की राजनीति करती रही है। बिहार में कभी भाजपा अगड़ों की राजनीति करती थी। अब बिहार भाजपा में अगड़े हाशिए पर है। अब बिहार में भाजपा पिछड़ी जातियों की राजनीति कर रही है। 

जेपी आंदोलन के बाद बिहार में समाजवादी परंपरा को आगे बढ़ाने का दावा लालू यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार ने किया। लेकिन तीनों नेता समाजवाद से दूर है। तीनों नेताओं ने बिहार में जाति की राजनीति की है। लोगों को जरूर समाजवाद की शिक्षा दी, लेकिन खुद को समाजवाद से दूर रखा। लालू यादव ने खुलकर यादव जाति की राजनीति की। रामविलास पासवान खुलकर जाति की राजनीति करते है। नीतीश कुमार थोड़े छुपे तरीके से कुर्मी- कोयरी की राजनीति करते है।  

पिछले दो दिनों में बिहार के अंदर घटित राजनीतिक घटनाक्रम के बात की प्रतिक्रिया साफ बताती है कि बिहार में चुनाव का आधार विकास नहीं होगा। बिहार में चुनाव जातीय अस्मिता और मुद्दों पर लड़ा जाएगा। हाल ही में विधान परिषद की 2 सींटों के लिए बिहार भाजपा ने अपने उम्मीदवार तय किए। भाजपा ने अपनी प्रदेश कार्यकारणी की घोषणा भी कर दी। इधर लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के कुछ बडे नेताओं ने पार्टी छोड़ दी। उन्होंने नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यू) का दामन थामा है। 

राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह भी इस समय लालू यादव और उनके परिवार से नाराज नजर आ रहे है। बिहार में रघुवंश प्रसाद सिंह की पहचान राजपूत जाति के नेता के तौर पर नहीं है। उनकी पहचान समाजवादी नेता के तौर पर है। वे जनता के बीच आम जनता की तरह ही आज रहते है। ग्रामीण विकास को लेकर उनकी सोच और बुद्धि का दाद इस देश के तमाम नेता देते है। लेकिन राजद से उनकी नाराजगी की खबर भी आ रही है।

बिहार में घट रहे इन तमाम घटनाओं को लेकर तमाम चर्चाएं हो रही है। लेकिन चर्चा विशुद्ध जातीय आधार पर है। बिहार भाजपा की प्रदेश कार्यकारणी की सूची पर बहस और समीक्षा मीडिया से लेकर सोशल साइटों पर हो रही है। लेकिन बहस और समीक्षा का आधार जाति है। भाजपा दवारा उच्च जाति से संबंधित एक सीटिंग विधान परिषद सदस्य के टिकट काटे जाने की भी खूब चर्चा है। लेकिन चर्चा का आधार जातीय है। टिकट काटे जाने से एक जाति विशेष में बहुत रोष है, यही चर्चा हो रही है। हालांकि बिहार भाजपा ने साफ संकेत दिए है कि बिहार की राजनीति में भाजपा कमंडल के बजाए मंडल के सहारे चलेगी। 

भाजपा का संदेश है कि भाजपा पिछड़े वोटरों को नजर अंदाज कर नहीं कर सकती है। बीते दिनों भाजपा संगठन से जुड़ी एक महिला पर भाजपा के एख जिला अध्यक्ष दवारा की गई टिप्पणी पर खूब हंगामा हुआ। महिला ऊंची जाति की थी। जिला अध्यक्ष अति पिछड़ी जाति से थे। हंगामे के बावजूद प्रदेश भाजपा जिला अध्यक्ष पर कार्रवाई को लेकर तैयार नहीं थी। क्योंकि प्रदेश भाजपा के नेताओं का तर्क था कि जिला अध्यक्ष को हटाए जाने से पिछड़ी जातियों में गलत मैसेज जाएगा।

बिहार कोरोना संकट से गुजर रहा है। लेकिन बिहार की बड़ी समस्या इस समय रिवर्स माइग्रेशन है। कोरोना के दौरान लाखों मजदूर देश के दूसरे राज्यों से बिहार लौट चुके है। उन्हें बिहार सरकार गांवों में रोजगार उपलब्ध करवाने की कोशिश कर रही है। हालांकि ग्रामीण इलाकों में रोजगार की हालत अभी ठीक नहीं है। चुनावी वर्ष में कोरोना और बेरोजगारी मुद्दा न बन जाए इसलिए जातीय खेल को खूब हवा दी जा रही है। 

दरअसल विपक्षी महागठबंधन में आपसी विवाद और तेजस्वी यादव का विपक्ष का चेहरा होना नीतीश कुमार और भाजपा गठबंधन के लिए वरदान है। सतारूढ गठबंधन ने तेजस्वी यादव के खिलाफ प्रचार युद्ध शुरू कर दिया है। लोगों को लालू यादव के जंगल राज का याद दिलाया जा रहा है। सतारूढ गठबंधन का तर्क है कि महागठबंधन का चेहरा तेजस्वी यादव है। अगर तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बने तो बिहार में लालू यादव के जंगल राज की वापसी होगी। बिहार की राजनीति में यादव और जंगल राज शब्द से तमाम जातियों को एलर्जी है। क्या अगड़े, क्या अनुसूचित जातियां, क्या गैर पिछड़े। ये तमाम जातीय समूह जंगल राज से घबराते है।

दो मजबूत पिछड़ी जातियां कोयरी और कुर्मी भी तेजस्वी यादव की वापसी नहीं चाहती। नीतीश कुमार के कार्यकाल में इन दो जातियों को सत्ता में अच्छी हिस्सेदारी मिली है। ये दोनों जातियां आर्थिक रूप से भी खासी मजबूत हुई है। महागठबंधन के राज आने पर इन दोनों जातियों को नुकसान का भय है। रिएल एस्टेट, भूमि कारोबार, खनन समेत तमाम अन्य कारोबार में इन दोनों जातियों की हिस्सेदारी खासी बढ़ी है।

महागठबंधन में शामिल छोटी पार्टियां और कांग्रेस बिहार की चुनावी गणित को समझ रही है। महागठबंधन में शामिल जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किए जाने के हक में नहीं है। उधर कांग्रेस भी असमंजस में है। दरअसल कांग्रेस को यह महसूस हो रहा है कि सतारूढ़ दल के खिलाफ राज्य में इस समय माहौल तो है। लेकिन तेजस्वी यादव का चेहरा आने के बाद सताधारी दल अपनी कमजोरियों को छुपाने में सफल हो जाएगा। 

क्योंकि सतारूढ़ गठबंधन लालू यादव के जंगल राज को मुद्दा बनाएंगे। उधर कांग्रेस को यह जमीनी जानकारी है कि भाजपा और नीतीश से अगड़ी जातियों के एक तबके में नाराजगी  है। लेकिन जंगल राज का भय उन्हें वापस सताधारी गठबंधन की तरफ ले जाएगा। कांग्रेस को यह लगता है कि तेजस्वी चेहरा नहीं बनेंगे तो अगड़ों का एक तबका विपक्षी दलों की तरफ आ सकता है। अगर तेजस्वी विपक्ष का चेहरा बने तो अगड़ी जातियां मजबूरी में भाजपा-नीतीश के पक्ष में गोलबंद हो जाएंगी।

बिहार में मंडल युग और सामाजिक न्याय की राजनीति से पहले कांग्रेस का शासन था। कांग्रेस शासन में अगड़ी जातियों ने ही बिहार पर राज किया। लेकिन लालू यादव की राजनीति ने अगड़ी जातियों को हाशिए पर ला दिया। अगड़ी जातियों ने गैर यादव पिछड़ी जातियों से गठजोड़ कर नीतीश-भाजपा को सत्ता पर बिठाया। लेकिन नीतीश-भाजपा के राज में भी अगड़ी जातियों को उम्मीद के मुताबिक हिस्सेदारी नहीं मिली।

नीतीश कुमार की राजनीति गैर यादव पिछड़ी जातियां और महादलित केंद्रित हो गई। उधर भाजपा ने समय के हिसाब से अपनी राजनीति को बदला। भाजपा संगठन में धीरे-धीरे पिछड़ी जातियों को स्थान मिलने लगा। दरअसल भाजपा बिहार में लालू और नीतीश का स्वभाविक विकल्प बनना चाहती है। लेकिन पिछड़े और अनुसूचित जातियों के समर्थन के बिना यह संभव नहीं है। वैसे में बिहार भाजपा में अगड़ी जातियों को हाशिए पर जाना तय है।