पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज गया है. राजनीतिक दल नए-नए नारे और वादों के साथ मैदान में हैं. राजनीतिक दल जनता के बुनियादी सवालों की बजाय भावनात्मक मुद्दों को चुनावी विमर्श के केंद्र में लाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की टकराहट में कुछ सवाल ऐसे भी हैं, जिसे अनचाहे ही सही राजनीतिक दलों को उठाना पड़ रहा है. फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहा है. हर राज्य की कुछ समस्याएं अलग हैं लेकिन देश के अधिकांश राज्यों और पांचों चुनावी राज्यों में कृषि संकट, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, सांप्रदायिक धुव्रीकरण जैसे मुद्दे समान है.
भौगोलिक स्थिति और सामाजिक-धार्मिक बुनावट के कारण पंजाब का देश की राजनीति में विशिष्ट स्थान है. लेकिन इस चुनाव में पंजाब ही नहीं पांचों राज्यों में एक खास परिघटना देखी जा रही है. वह है टिकट न मिलने के कारण दलबदल. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब और मणिपुर में बड़े पैमाने पर दलबदल की खबर है. चुनाव बाद क्या होगा, यह कहा नहीं जा सकता. यह आज के राजनीति का एक यथार्थ है. किसी दल को दलबदुओं से परहेज नहीं है.
पांचों राज्यों के चुनावी माहौल में परिवारवाद, धनबल, बहुसंख्यकवाद, अल्पसंख्यकवाद, अगड़ा-पिछड़ा, दलित, युवा, महिला आदि शब्दों से जुड़ें राजनीतिक मुहावरों पर चर्चा आम है. लेकिन इसके साथ ही हिंदुत्व और भावनात्मक मुद्दा भी उभार पर है. इस चर्चा में राजनीतिक शुचिता, आदर्श और जन सरोकार गायब है. लेकिन राजनीतिक दलों की यह मजबूरी भी है कि बगैर जनता के सवालों को उठाए वे चुनाव जीत नहीं सकते, इसलिए कहने के लिए ही सही वे जनता के मुद्दों को भी उठा रहे हैं. लेकिन सबसे ऊपर जातीय-धार्मिक, क्षेत्रीय समीकरण और भावनात्मक मुद्दे है. जिसके सहारे राजनीतिक पार्टियां चुनावी वैतरणी पार करना चाह रही हैं.
पंजाब के चुनावी माहौल और चुनाव के मुद्दे की चर्चा करें इससे पहले यहां की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर नजर दौड़ाना होगा. पंजाब विधान सभा में कुल 117 सीटें हैं. 2017 में हुए विधान सभा चुनावों में कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ने इन 117 सीटों में से 77 सीटें जीत कर सरकार बनाई थी. लगातार 10 साल सत्ता में रहने के बाद शिरोमणि अकाली दल 2017 के चुनावों में मात्र 15 सीटें ही जीत सकी थी. इस हार के बावजूद शिरोमणि अकाली दल का वोट-प्रतिशत 25.24 प्रतिशत था. 20 सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. 2017 के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 23.72 प्रतिशत वोट हासिल किया था.
पंजाब चुनाव में उतरे राजनीतिक दल एवं गठबंधन
इस बार पंजाब का राजनीतिक माहौल बदला हुआ है. जनता भावनात्मक मुद्दों के पेर फंस नहीं रही है. किसान आंदोलन ने पंजाब के घर-घर तक किसानों की उपेक्षा का संदेश प्रसारित कर दिया है. सत्ता का चेहरा बेनकाब हो गया है. इन्हीं बेनकाब चेहरों में से किसी एक चुनना है. लेकिन जनता के सामने किसान आंदोलन करने वाले संगठन ने ने भी राजनीतिक पार्टी का गठन करके जनता के सामने एक विकल्प पेश किया है. फिलहाल पंजाब में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, अकाली दल-बसपा गठबंधन, भाजपा-पंजाब लोक कांग्रेस और किसान संगठनों का राजनीतिक मोर्चा संयुक्त समाज मोर्चा मैदान में हैं.
राज्य में शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन टूट चुका है. पंजाब कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरा कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से बाहर है. बहुजन समाज पार्टी तीन दशक बाद एक बाऱ फिर शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन में है. आम आदमी पार्टी पूरे जोश के साथ दूसरी बार चुनावी मैदान में है. ऐसे में बाजी किसके हाथ लगेगी कुछ कह पाना मुश्किल है.
पंजाब में 2017 की राजनीतिक स्थिति इस बार नहीं है. कांग्रेस पिछली बार कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में चुनावी मैदान में थी. तब अकाली-भाजपा गठबंधन की दस वर्षीय सरकार के विरोध में भारी जनाक्रोश था. बादल परिवार का भ्रष्टाचार और सुखदेव बादल के साले और मंत्री बिक्रमजीत सिंह मजीठिया पर ड्रग्स के अवैध कारोबार का आरोप था, जो चुनावी मुद्दा बना था. लेकिन इस बार पंजाब में कांग्रेस सत्ता में है और कांग्रेस का नेतृत्व एक दलित सिख के हाथ में है. और पंजाब ही नहीं पूरे देश में किसान आंदोलन के साथ केंद्र सरकार की नाइंसाफी का मुद्दा है. लेकिन कांग्रेस अंतर्कलह, गुटबाजी और नेतृत्वहीनता की शिकार है. मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच तलवारें खिंची हुई हैं. टिकट को लेकर दूसरे कांग्रेसियों की क्या कहें खुद मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के भाई और रिश्तेदार कांग्रेस से बगावत कर आजाद उम्मीदवार के बतौर चुनाव मैदान में उतरने का ऐलान कर चुके हैं.
कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई राजनीतिक पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस का भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन है. भाजपा पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी लोक कांग्रेस, बैंस बंधुओं की लोक इंसाफ पार्टी और सुखदेव सिंह ढींडसा की अकाली दल संयुक्त के साथ गठबंधन करके चुनावी दंगल में उतरी है. इसमें सीटों का बंटवारा भी उसी तरीके से किया गया है. बैंस बंधुओं की लोक इंसाफ पार्टी के 5 सीटें दी जा रही हैं, जबकि भाजपा चुनावी दंगल में अपने 70 प्रत्याशियों को उतारेगी. जबकि शेष 42 सीटें कैप्टन अमरिंदर सिंह और संयुक्त अकाली दल के लिए छोड़ी गई हैं.
वहीं शिरोमणि अकाली दल बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में है तो दूसरी तरफ किसान आंदोलन में शामिल 22 किसान संगठनों ने मिलकर संयुक्त समाज मोर्चा बनाया है, वो भी मैदान में है. पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अकेले चुनावी मैदान में हैं. दोनों दल यानि कांग्रेस अपनी सत्ता बचाने तो आम आदमी पार्टी कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में लगे है.
चुनाव के पहले प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक का मुद्दा और रविदास जयंती पर राजनीति
पंजाब विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले से ही वहां भावनात्मक मुद्दे तलाशने की कोशिश होने लगी थी. गुरुग्रंथ साहिब की बेअदबी का मामला उठा. जिसके आरोप में दो लोगों की पीट-पीटकर हत्या हो गयी. लोगों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पंजाब रैली से होती है. पीएम मोदी रैली के लिए पंजाब गए और रैली स्थल पर भीड़ न होने के कारण वहां जाने की बजाय वापस दिल्ली लौटने लगे. एयरपोर्ट पर उन्होंने पंजाब सरकार पर सुरक्षा न करने का ठींकरा फोंड़ दिया. इसके बाद पंजाब के साथ ही देश की राजनीति में उबाल आ गया. लेकिन कहते हैं कि काठ की हाड़ी बार-बार नहीं चढ़ती. चंद दिनों बाद ही प्रधानमंत्री के तथाकथित ‘सुरक्षा चूक’ की असलियत सामने आ गयी.
अब बारी कांग्रेस की थी. चुनाव आयोग ने पंजाब विधानसभा के लिए मतदान की तिथि 14 फरवरी घोषित की थी. लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर मतदान को 14 फरवरी की बजाय 20 फरवरी करने का आग्रह किया. इसके पीछे उनका तर्क था कि 14 फरवरी को संत रविदास जयंती है. इस दिन पंजाब के दलित समुदाय के लोग रविदास जयंती मनाने में व्यस्त रहते हैं, लिहाजा मतदान में व्यवधान होगा. कांग्रेस को देखकर भाजपा ने भी चुनाव आयोग से मतदान की तिथि बदलने का आग्रह किया. भाजपा को डर था कि कहीं कांग्रेस का यह कदम दलितों के वोट बैंक को अपनी तरफ न खींच ले.
पंजाब में कृषि संकट, बेरोजगारी और नशे का व्य़ापार
पंजाब खेती-किसानी का समृद्ध इलाका है. हरित क्रांति से पंजाब के किसानों को बहुत लाभ मिला. लेकिन देश के अन्य राज्यों की तरह अब पंजाब की खेती भी घाटे का सौदा बन गयी है. राज्य के किसान महंगी उर्वरक, कीटनाशक, बीज और सिचाईं के लिए पानी की किल्लत से परेशान हैं तो फसल तैयार होने पर उचित मूल्य न मिलना बड़ी समस्या है. कृषि जमीनों का अधिग्रहण और सीमापार से होने वाले नशे की तस्करी ने राज्य के युवाओं को अपने चंगुल में फंसा लिया है. राज्य की आधी से अधिक आबादी को खेती से जुड़ी समस्याओं के साथ ही नशा के साम्राज्य से भी लड़ना पड़ रहा है.
पंजाब चुनाव में कृषि संकट, नशा और अवैध खनन और बेरोजगारी इस समय प्रमुख मुद्दा बना हुआ है. आम आदमी पार्टी ने पिछले यानी 2017 के चुनाव में नशे की तस्करी करने वालों को जेल भेजने की बात कही थी. लेकिन चुनाव होने के बाद वह मुद्दा फुस्स हो गया. आम आदमी पार्टी ने पंजाब में हो रहे अवैध खनन और नशा की तस्करी रोकने और सिचाईं के लिए लगने वाली बिजली की दर को कम करने का ऐलान किया है. आम आदमी पार्टी के अलावा दूसरे दल भी किसानों के मुद्दे और बिजली दर को कम करने का मुद्दा उठा रहे हैं.
पंजाब भौगोलिक रूप से तीन भागों में बंटा है. मालवा, मांझा और दोआबा. मालवा क्षेत्र ने पंजाब को सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री दिए है. प्रकाश सिंह बादल, कैप्टन अमरिंदर सिंह, हरचरण सिंह बरार, राजिंदर कौर भट्टल आदि मालवा क्षेत्र से ही तालुक्क रखते हैं. लेकिन आगर समस्याओं की दृष्टि से देखा जाये तो पंजाब में मलवा क्षेत्र ही सबसे अधिक समस्याग्रस्त है. क्योंकि यह क्षेत्र किसानों का है, और युवाओं में नशाखोरी भी यहीं सबसे अधिक है. तीनों कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली में चले धरने में पंजाब के किसान ऐसे ही सबसे अधिक नहीं शरीक थे. इसका कारण पंजाब की खेती-किसानी का संकट था.
सिख बनाम गैर सिख, जाट सिख बनाम दलित सिख
देश के अन्य राज्यों की जो धार्मिक और जातीय समस्या है पंजाब में भी वैसे ही है. भारतीय समाज जाति और धर्म के आधार पर बहुत कुछ तय करता है. चुनाव में यह दरार और चौड़ी हो जाती है. पंजाब की राजनीति, गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और आर्थिक क्षेत्र में जाट सिखों का दबदबा है. पंजाब में जाट सिखों की आबादी 25 प्रतिशत के आसपास है तो दलितों की आबादी 32 प्रतिशत के आसपास है. कांग्रेस ने दलित मुख्यमंत्री बनाकर बड़ा दांव चला है. लेकिन शिरोमणि अकाली दल बसपा से गठबंधन करके कांग्रेस की हवा निकालने में लगी है. अकाली दल औऱ बसपा का यह दूसरी बार गठबंधन है. वर्ष 1996 में भी शिरोमणि अकाली दल औऱ बसपा गठबंधन ने चुनाव लड़ा था. तब दोनों दलों को फायदा हुआ था.
फिलहाल यह देखते हैं कि पंजाब में दलित राजनीति की क्या स्थिति है
देश में बहुजन राजनीति को सत्ता तक ले जाने वाले बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम का जन्म स्थान पंजाब का होशियारपुर जिला है. कांशी राम ने पंजाब में दलितों को एकजुट करने के लिए काफ़ी मेहनत और उनके बीच राजनैतिक जागरूकता फैलाने के लिए भी काफ़ी प्रयास किया था. बहुजन समाज पार्टी का सबसे बेहतर प्रदर्शन वर्ष 1992 में रहा जब उसे 16 प्रतिशत मत मिले. 1996 में बसपा और शिरोमणि अकाली दल का गठबंधन था इसका नतीजा ये हुआ कि वर्ष 1996 में उन्हें जीत हासिल हुई. लेकिन 1997 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को 7.5 प्रतिशत मत ही मिल पाए थे जो वर्ष 2017 में हुए विधानसभा के चुनावों में सिमटकर 1.5 प्रतिशत पर आ गए. लेकिन समय के साथ पार्टी का प्रभाव कम होता चला गया और वो सिमटकर पंजाब के दोआबा क्षेत्र के कुछ इलाकों में रह गयी.
दलित मुख्यमंत्री से कांग्रेस को लाभ या अकाली दल का बसपा से गठबंधन भारी
जाट सिखों के दबदबे वाले राज्य में चुनाव से कुछ समय पहले कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया. पार्टी हाईकमान का मानना है कि इस कदम से पंजाब के दलितों का वोट कांग्रेस की तरफ आयेगा. पंजाब में पहली बार किसी दलित सिख को मुक्यमंत्री बनाया गया है. लेकिन सवाल यह भी है कि एक जाट सिख को हटाकर. जहां तक पंजाब में दलितों की संख्या और वोटबैंक का मामला है, यह सीधा नहीं है. पंजाब में दलितों की जनसंख्या बेशक 32 प्रतिशत है लेकिन अनुसूचित जाति की आबादी भी बंटी हुई है. दलित सिख दलित और हिंदू दलितों के बीच में बंटे हैं.
कांशी राम ने पंजाब के विभिन्न दलित समाज के लोगों के बीच सामंजस्य और गठजोड़ बनाने की कोशिश ज़रूर की मगर वह कामयाब नहीं हो सके. क्योंकि ‘मज़हबी सिख’ यानी वो सिख जो अनुसूचित जाति से आते हैं और वाल्मीकि – इन दोनों समाज के लोगों ने हमेशा ख़ुद को इस पार्टी से अलग रखा. शायद यही वजह है कि इतनी मेहनत के बावजूद कांशी राम पंजाब में दलितों को एकजुट नहीं कर पाए और उन्होंने पंजाब से बहार निकलकर उत्तर प्रदेश और देश के अन्य इलाकों में दलितों के बीच काम करना शुरू किया.
आंकड़ों की अगर बात की जाए तो पंजाब की अनुसूचित जातियों में सबसे बड़ा 26.33 प्रतिशत मज़हबी सिखों का है. वहीं रामदासिया समाज की आबादी 20.73 प्रतिशत है जबकि आधी धर्मियों की आबादी 10.17 और वाल्मीकियों की आबादी 8.66 है. आज़ादी के बाद से लंबे समय तक मज़हबी सिखों और वाल्मीकियों ने परंपरागत तौर पर कांग्रेस का समर्थन किया था. कांग्रेस द्वारा किसी सिख दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाना राजनीतिक रूप से उसे कितना फ़ायदा पहुंचाएगा यह अभी कहना जल्दबाज़ी ही होगी क्योंकि अभी कई पेंच फंसे हुए हैं. पंजाब विधानसभा के कुल 117 सीटों में से 30 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. कुल 50 सीटें ऐसी हैं जिनपर दलितों का मत मायने रखता है. मगर इसके बावजूद इन सीटों पर अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का भी प्रभाव है.
पंजाब में सियासत की लड़ाई यूं भी कांटे की होती है, लेकिन इस बार हो रहा ये चुनाव कई मायनों में ख़ास बन गया है. जहां एक ओर सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता में लौटने के लिए हर कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़ अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी अपने गठबंधन के साथ सत्ता हासिल करने के प्रयास में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते.पिछले विधान सभा चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी आम आदमी पार्टी इस बार पहले से अधिक आक्रामक नज़र आ रही है. आम आदमी पार्टी पंजाब में दिल्ली मॉडल का सपना दिखा रही है. अब देखना यह है कि पंजाब की जनता किसे पसंद करती है.