
बिहार की राजनीति में मुख्यत: दो विकल्प है। इन दो विकल्पों की पिछली सीटों पर देश की एक-एक राष्ट्रीय पार्टी बैठी हैं। कुछ छोटे राजनीतिक दल दो प्रमुख विकल्पों से छिटक कर निकले हैं, इधऱ-उधर छलांग लगाकर सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने की कोशिश इस बार भी करेंगे। मुकाबला राजद नेतृत्व वाले महागठबंधन और जदयू नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के बीच होगा। चुनावों से पहले इधर-उधर छलांग लगाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। कुछ दबाव की राजनीति भी चल रही है।
बिहार में दलित पॉलिटिक्स करने वाले दो नेता अपने-अपने गठबंधन में रंग दिखा रहे है। हालांकि दोनों का आधार एक-एक दलित जाति है। लोकजनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान जहां नीतीश कुमार को आंख दिखा रहे है, वहीं हम पार्टी के जीतनराम मांझी तेजस्वी यादव को आंख दिखा रहे हैं। दोनों की पॉलिटिक्स साफ है। दबाव देकर कुछ ज्यादा सीट हासिल कर ली जाए। चिराग पासवान रामविलास पासवान के उत्तराधिकारी है। कांग्रेस से अपने जीवन की राजनीति शुरू करने वाले जीतनराम मांझी राजद, जदयू होते हुए अब अपनी पार्टी की कमान संभाले हुए है।
इस बीच पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने भी बिहार की राजनीति में इस बार भूमिका निभाने का संकेत दिया है। यशवंत सिन्हा ने बिहार में एक तीसरे गठबंधन को चुनाव मैदान में उतारने की बात की है। इसमें कुछ छोटे दल शामिल है। कुछ इलाकों में वामपंथी दलों का प्रभाव है। लेकिन अकेले बिहार में वामपंथी दल भी कुछ नहीं कर सकते। इन्हें विधानसभा में कुछ सीट हासिल करने के लिए किसी गठबंधन में जाना पड़ेगा।
पिछले तीन चुनावों में बिहार की राजनीति में विकास मुददा बना। 2005 और 2010 में विकास के मुद्दे पर जदयू और भाजपा गठबंधन ने चुनाव जीता। 2015 में नीतीश ने भाजपा का साथ छोड़ा, जातीय समीकरण के आधार पर एक बार विधानसभा चुनाव जीत लिया। 2015 में विकास के बजाए जातीय समीकरण पर जोर था और जातीय समीकरण की जीत भी हुई। 2005 में जंगलराज बनाम विकास का दावा चुनाव में मुद्दा बना था।
इसमें कोई शक नहीं कि बिहार में पिछले 15 सालों में विकास हुआ है। लेकिन राज्य में भ्रष्टाचार भी चरम सीमा पर है। बिहार की राजनीति का एक दुर्भाग्य यह भी है कि कुछ राजनेता ही बिहार की राजनीति को 30 सालों से कंट्रोल कर रहे है। इन्हीं राजनेताओं के आसपास कुछ और राजनेता पैदा हो गए। ये राजनेता परिस्थितियों के हिसाब से अपनी निष्ठा बदलते है। ताकि सत्ता में भागीदारी बनी रहे। विचारधारा त्यागकर बिहार के राजनीतिक दल कभी सेक्यूलर हो जाते हैं तो कभी जातीय गुणा गणित में लग जाते है। कभी सत्ता हासिल करने के लिए कर्मकांडी भी हो जाते हैं।
2020 के विधानसभा चुनाव में वही राजनीतिक दल आपस में टकराएंगे जो पिछले कई चुनावों में बिहार में टकराते रहे है। वही नेता जनता के सामने जाएंगे जो पिछले तीन दशक से बिहार के विकास को लेकर तमाम दावे कर रहे है। सामाजिक न्याय को लेकर तमाम दावे कर रहे है। बिहार की जनता ने इन नेताओं के जातीय और विकास संबंधी कार्यक्रमों को तीन दशकों में खूब देखा है। हालांकि जनता तो इनसे उबती हुई नजर आ रही है। लेकिन करें क्या, कोई नया विकल्प ही नहीं है। अगर विकल्प मिले तो पुराने सारे राजनीतिक चेहरों और ढांचों को जनता छोड़े । लेकिन इस बार भी जनता को पुराने विकल्प ही अजमाने होंगे।
विकास की बात चाहे जितना करें, बिहार में चुनाव नजदीक आते-आते जाति मुद्दा बन जाता है। इस बार भी यही होगा। हालांकि नीतीश कुमार के राज में आंकड़ों में विकास बढ़ा है। जमीन पर भी विकास दिखता है। हां उतना नहीं जितना दावा किया जाता है।
राज्य का जीडीपी ग्रोथ रेट अच्छा है। पर प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में बिहार अभी भी काफी पीछे है। राज्य के बजट में कुल खर्च बढ़ा है। राज्य की राजस्व प्राप्ति में भी बढ़ोतरी हुई है। राज्य का कुल बजट 2.11 लाख करोड़ रुपए का हो गया है। हालांकि इसके बावजूद देश में प्रवासी मजदूरों की संख्या में बिहार यूपी के बाद अव्वल है। कोरोना महामारी के दौरान बिहार के लाखों प्रवासी मजदूर सड़कों पर पैदल जाते दिखे। यह बिहार की वास्तविक बदहाली दिखाने के लिए काफी है।
बिहार में इस बार मतदान कोरोना के प्रभाव तले होगा। लाखों प्रवासी बिहार पहुंच गए है। उन्हें वहां गांवों में काम नहीं मिल रहा है। घर लौटने वाले मजदूर परेशान है। इसके बावजूद संकेत यही है कि चुनाव में जातीय ध्रुवीकरण होगा। यादव बनाम अन्य पिछड़ी जाति, दलित बनाम दलित, अगड़ा बनाम यादव के आधार पर वोटों का बंटवारा होगा। अल्पसंख्यकों का वोट खुलकर भाजपा के विरोध मे जाएगा। पिछड़ी जातियों का वोट दो गठबंधनों में बंटेगा। यादवों का वोट लालू यादव के महागठबंधन को जाएगा। अन्य पिछड़ी जातियां एनडीए गठबंधन की तरफ ज्यादा जाएंगी। पिछड़ों में दो नई शक्तियां कोयरी और कुर्मी नीतीश के साथ खुलकर हैं।
हालांकि लालू यादव के महागठबंधन में शामिल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेद्र कुशवाहा कोयरी नेता है। लेकिन उत्तर बिहार के कुछ इलाकों को छोड़ प्रदेश भर के कोयरी उन्हें नेता नहीं मानते है। ज्यादातर कोयरी नीतीश कुमार के साथ है। दलित वोटों में बंटवारा है। पासवान जाति पूरी तरह से रामविलास पासवान के साथ है। कुछ इलाकों में राष्ट्रीय जनता के दल के एक दो प्रभावशाली पासवान नेताओं को पासवान जरूर वोट देते है। वहीं महादलित वोट का एक हिस्सा एनडीए के साथ भी है। बिहार के मगध इलाके में दलित मूसहर जाति में जीतन राम मांझी का भी प्रभाव है। वे फिलहाल लालू यादव के साथ महागठबंधन में है।
चुनाव से ठीक पहले बिहार की दलित राजनीति में तोड़फोड़ के प्रयास जारी है। नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन में रामविलास पासवान और उनके चिराग पासवान को नियंत्रण में रखना चाहते है। नीतीश कुमार ने हाल ही में जीतनराम मांझी पर डोरे डाले है। उन्हें एनडीए मे लाने की कोशिश की गई है। दरअसल बिहार में सुविधा के हिसाब से नेता पाला बदलते हैं। अपने दुश्मन भी बदलते है। जीतन राम मांझी किसी जमाने में लालू यादव के खास थे। फिर नीतीश कुमार के खास हो गए।
2014 के लोकसभा चुनावों में भारी हार के बाद नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था। मांझी ने नीतीश कुमार को ही आंख दिखा दी। नीतीश ने उन्हें गद्दी से उतार दिया। जीतन राम मांझी 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन में शामिल हो गए। उस समय नीतीश कुमार और लालू यादव का गठबंधन हो गया था। बाद में नीतीश और लालू का गठबंधन टूट गया। नीतीश फिर भाजपा के खेमे में चले गए।
इधर 2019 के लोकसभा चुनाव में जीतन राम मांझी लालू यादव के साथ महागठबंधन में शामिल हो गए। अब एक बार फिर जीतन राम तेजस्वी यादव पर ज्यादा सीटों के लिए दबाव बना रहे है। इधऱ नीतीश कुमार ने उनसे पुरानी दुश्मनी भूल उन्हें साधने की कोशिश की है। नीतीश के इस कोशिश से रामविलास पासवान और उनके बेटे चिराग पासवान नाराज है। उन्होंने नीतीश को चुनौती दे दी है। चिराग नीतीश कुमार की राजनीति को समझ रहे है। उन्हें पता है कि जीतनराम को एनडीए में लाकर नीतीश उनके कद को कम करना चाहते है।
भाजपा और कांग्रेस की अपनी मजबूरी है। कांग्रेस का बिहार में संगठन जमीन पर नहीं है। कांग्रेस की कोशिश महागठबंधन में ज्यादा से ज्यादा सीट हासिल करने की है। 2015 में नीतीश कुमार लालू यादव के साथ थे। अब नीतीश भाजपा के साथ है। 2015 में नीतीश कुमार 101 और लालू यादव 101 सीट पर चुनाव लड़े थे। कांग्रेस को 41 सीटें मिली थी। कांग्रेस चाहती है कि नीतीश के हिस्से वाली 101 सीटों में से कम से कम 40 सीट कांग्रेस के लिए लालू यादव छोड़े। कांग्रेस इस बार कम से कम 80 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है।
लालू यादव इस बार कांग्रेस को पहले से ज्यादा सीटें दे सकते है। क्योंकि इस समय लालू यादव को भाजपा से बचाव के लिए कांग्रेस की जरूरत है। उधर फिलहाल भाजपा जदयू के साथ ही रहेगी। 2015 विधानसभा चुनाव में भाजपा नीतीश के बिना चुनाव लड़कर अपना हाल देख चुकी है। इसलिए भाजपा कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं है। बिहार में भाजपा अकेले अपने दम पर सत्ता हासिल नहीं कर सकती है। क्योंकि विधानसभा चुनाव में पिछड़ों की पसंद या तो नीतीश है या लालू यादव। विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने पर भाजपा को पिछड़ों और दलितों का समर्थन नहीं मिलेगा।
विधानसभा चुनाव में भाजपा का महत्वपूर्ण वोट बैंक अभी भी सिर्फ अगड़ी जातियां है। हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा को पिछड़ों और दलितों का वोट भी मिला था। लेकिन बिहार विधानसभा में पिछडी जातियां क्षेत्रीए दलों को ही वोट करती है। हालांकि भाजपा ने कई पिछड़ीं जातियों को अपने पाले में करने के लिए पिछड़ी जाति के नेताओं को पार्टी में महत्वपूर्ण पद दिया है। अगड़ी जातियों के नेताओं को पार्टी में हाशिए पर भी डाला गया है।