1960 से राजस्थान में एक कानून अस्तित्व में है। इस कानून के तहत किसी की मृत्यु पर दिये जानेवाले मृत्युभोज पर कानूनी रोक है। इस कानून के तहत, नुक्ता और चहल्लुम पर कानूनी रोक है। अगर कोई व्यक्ति इनमें से कोई अयोजन करता है तो उसे एक साल तक की सजा और एक हजार रुपये का अर्थदंड लग सकता है, अथवा दोनों सजा हो सकती है।
ये कानून बन गया, लेकिन लोग मृत्युभोज भी करते रहे और चहल्लुम भी बनाते रहे। लेकिन अब राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने फिर से इस कानून को सख्ती से लागू करने का फैसला किया है। इस कानून के जो प्रावधान हैं उसमें कहा गया है कि मृत्युभोज, नुक्ता या चेहल्लुम में 100 से अधिक व्यक्ति नहीं होने चाहिए, जिसमें पंडे-पुजारी और पीर फकीर सभी शामिल हैं। इस तरह ये कानून मृत्युभोज पर पूरी तरह से तो रोक नहीं लगाता लेकिन उसे सीमित अवश्य करता है। कानून कहता है कि “मृत्युभोज सिर्फ पारिवारिक स्तर पर ही आयोजित होगा जिसमें पुजारी को भी शामिल किया जा सकता है। लेकिन संख्या सौ के ऊपर नहीं होनी चाहिए।”
यह कानून सीधे तौर पर तो मृत्युभोज, नुक्ता, रोसाई या चेहल्लुम पर रोक तो नहीं लगाता लेकिन उसे सीमित कर देता है। हो सकता है जिस समय यह कानून बना था, इसे भी किसी सामाजिक सुधार के तौर पर देखा गया हो लेकिन क्या सरकार के स्तर पर ऐसे अजीबो गरीब सामाजिक सुधार वाले कानून बनाये जा सकते हैं? इस कानून के तहत ग्राम प्रधान या सरपंच को ये जिम्मेदारी दी गयी है कि वो जिला प्रशासन को ऐसे आयोजनों के बारे में सूचित करे जहां मृत्युभोज कानून का उल्लंघन हो रहा हो?
क्या यह संभव है कि कोई सरपंच अपने ही गांव की किसी सामाजिक परंपरा के बारे में कोई ऐसी जानकारी जिला प्रशासन को देगा जिससे वह अपने ही गांव में अलोकप्रिय हो जाए? फिर यह तय तो सरपंच को ही करना है कि मृत्युभोज में कितने लोग आये तो फिर वो सौ का पांच सौ भी बना सकता है और पांच सौ का सौ भी बना सकता है।
इस कानून का आज तक राजस्थान में पालन न हुआ और न ही पालन करना संभव है। जन्मभोज, विवाह भोज मृत्युभोज या फिर कोई भी भोज व्यक्ति की सामाजिक हैसियत का प्रतीक भी होता है। वह अपने यहां आयोजित किसी भोज में कितने लोगों को बुलायेगा ये तय करने का अधिकार सरकार को तब तक नहीं है जब तक सरकार ऐसे आयोजन का खर्च स्वयं नहीं उठाती है। हां, इस कानून में एक प्रावधान जरूर महत्वपूर्ण है कि ऐसे आयोजनों के लिए कोई बैंक ऋण उपलब्ध नहीं करा सकता। अगर ऐसा करता है तो संबंधित बैंक पर भी कार्रवाई होगी। इस प्रावधान का जरूर स्वागत किया जाना चाहिए कि मृत्युभोज के लिए भी किसी व्यक्ति को ऋण लेकर आयोजन करना पड़े तो यह निंदनीय है।
राजस्थान में शायद इसी कारण समाजसेवी इस कानून का विरोध करने की बजाय स्वागत कर रहे हैं। राजस्थान में रजवाड़ों का प्रभाव आज भी मौजूद है जिसका प्रभाव उसकी सामाजिक संरचना पर भी पड़ा है। राजस्थान में सतीप्रथा हो या मृत्युभोज की भीडभाड़ इसे संभवत: सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया। इसलिए एक सामान्य सी प्रथा कुप्रथा बन गयी। सतीप्रथा को बहुत पहले ही राजस्थान के समाज से हटाया जा चुका है। मृत्युभोज का कानून तो बन गया था लेकिन इसका पालन उचित ढंग से नहीं हो पा रहा था इसलिए एक बार फिर सरकार ने जोर दिया है कि वो इस कानून को पंचायत स्तर पर लागू करवायेगी।
लेकिन अंतत: तो कोई भी कानून व्यक्ति सा समाज को ही स्वीकार करना पड़ता है उसी में उस कानून की सफलता या असफलता निर्भर करती है। राजस्थान के राजशाही से प्रभावित समाज को सोचना होगा कि न तो वो दौर रहा जब ऐसी प्रथाओं का जन्म हुआ था और न वो लोग रहे जिन्होंने ऐसी प्रथाओं का पालन किया। अब बदलते समाज में अगर जोर जबर्दस्ती से उन प्रथाओं को लागू करवाया जाएगा तो कानूनन सरकार का हस्तक्षेप करना स्वाभाविक है। अच्छा हो कि ऐसी सामाजिक परंपराओं को समाज बदलते समय के अनुसार स्वयं बदल ले। वरना कानून का हस्तक्षेप फिर और तरह की समस्याओं को जन्म देता है।
(संजय तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)
