ग्रामयुग डायरी : किताब का चयन करते समय लेखक की राष्ट्रीयता से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता


किताबों की बात चल रही है तो हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि देशी-विदेशी सभी किताबें हमारे ज्ञान के साथ-साथ ‘अज्ञान’ के ज्ञान को भी बढ़ाती हैं। इनकी मदद से हम जान पाते हैं कि हम क्या-क्या नहीं जानते।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

19 अक्टूबर को कोल्हापुर से दिल्ली पहुंचने के बाद मैंने दशमी वाले फार्मेट में अपनी दूसरी ग्रामयुग डायरी लिखी। इस डायरी के जवाब में मुझे व्हाट्सऐप पर एक संदेश मिला जो मेंरे एक पुराने परिचित ने लिखा था। संदेश कुछ इस प्रकार था, “आपकी ग्रामयुग डायरियों में अभी तक एक भी भारतीय लेखक की पुस्तक का उल्लेख नहीं मिला। सारी की सारी विदेशियों की पुस्तकें हैं। तो क्या यह माना जाए कि ग्राम विकास का जो प्रारूप आप खड़ा करना चाहते हैं, भारत में उसका कोई आधार संभव ही नहीं है? उसके सारे वैचारिक आधार विदेश से ही हमें आयात करने होंगे? और सामाजिक कार्य करने के लिए हमें विदेशी विचारों पर ही निर्भर रहना है?”

इस प्रश्न का एक संक्षिप्त उत्तर देते हुए मैंने लिखा, “नहीं ऐसा नहीं है। मैं जो जानता हूं, वह लिखता हूँ । जो नहीं जानता, उसे अस्वीकार नहीं करता, उसका सम्मान करता हूँ ।” मेरे इस संक्षिप्त उत्तर से प्रश्नकर्ता संतुष्ट हुए या नहीं, इसे जानने की मैंने कोई कोशिश नहीं की। मुझे लगा कि यह मामला व्यक्तिगत नहीं बल्कि सार्वजनिक महत्व का है। इसलिए इस विषय पर सबके सामने कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा की जानी चाहिए।

यह सच है कि मेरी डायरी में विदेशी लेखकों की किताबों का उल्लेख अधिक होता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ग्राम विकास की मेरी परिकल्पना में भारतीय विचारों के लिए कोई जगह नहीं है। वास्तव में मैं इन किताबों का उपयोग भारतीय विचारों के प्रतिपादन में ही करता आया हूं। जिस डायरी की प्रतिक्रिया में मुझे उक्त संदेश मिला, उसमें मैं कुछ और नहीं बल्कि एकादशी के महत्व पर चर्चा कर रहा था। इसके पहले 24 जुलाई 2022 को मैंने जो डायरी लिखी थी, उसमें ग्रामयुग को परिभाषित करते हुए मैंने लिखा था, “मोटे तौर पर मैं ग्रामयुग शब्द को रामराज्य, प्रकृति केन्द्रित विकास, व्यवस्था परिवर्तन और अक्षय विकास जैसे शब्दों का समानार्थी मानता हूं।”

इसी तरह 15 अगस्त 2021 की डायरी (धर्म से दूरी क्यों?) में मैंने लिखा था, “व्यवस्था परिवर्तन जैसे मुश्किल मार्ग पर ठीक से चलने के लिए जो भी सेक्यूलर तरीके हैं, उनकी मुझे कामचलाऊ समझ है। उन पर यथासंभव मैं अमल भी करता हूं। लेकिन अगर कोई कहे कि मैंने केवल उन्हीं के दम पर यह रास्ता चुना है तो यह सच नहीं है। इन सारे उपायों को मैं पूरक और सहयोगी मानता हूं। वास्तव में इस मार्ग पर चलने का हौसला मुझे उस आस्था और विश्वास से मिला है जो एक सनातनी हिंदू होने के नाते मुझे जन्म से प्राप्त है।”

प्रश्नकर्ता को मेरी विदेशी किताबें दिखाई दीं, किंतु मेरे ये विचार नहीं दिखाई दिए। ऐसा क्यों हुआ? मनौवैज्ञानिकों का कहना है कि यदि कोई अपनी किसी धारणा को अंतिम सत्य मान चुका है तो उस स्थिति में उसका मन वही सबूत देखता है जो उसकी धारणा के अनुकूल हैं। ऐसे में अपनी धारणा के प्रतिकूल सबूतों को देख पाने की क्षमता लगभग समाप्त हो जाती है। इस स्थिति को मनोविज्ञान की भाषा में Confirmation Bias कहते हैं। कनफर्मेशन बायस को सभी भ्रांतियों की जननी कहा गया है। रॉल्फ डोबेली ने अपनी किताब “द आर्ट आफ थिंकिंग क्लीयरली” के सातवें और आठवें अध्याय में इस पर विस्तार से चर्चा की है।

कनफर्मेशन बायस हमारी वह प्रवृत्ति है जो हम सबके जीन में हैं। कोई इससे अछूता नहीं है। इसे खत्म नहीं किया जा सकता लेकिन इसका असर कम करने की कुछ तकनीकें जरूर हैं। विद्वानों का कहना है कि जब हम अपनी किसी धारणा के पक्ष में सबूत जुटा रहे हों तो हमें एक क्षण रुककर यह भी देखना चाहिए कि क्या कोई ऐसा सबूत भी है जो हमारी धारणा को चुनौती दे रहा है। बेहतर होगा कि हम अपनी धारणाओं को Prima Facie (अस्थायी) मान कर चलें और पर्याप्त सबूत मिलने पर उन्हें बदलने के लिए तैयार रहें। यह बात कहने में जितनी आसान हैं, व्यवहार में उतनी ही मुश्किल हैं। लेकिन फिर भी सतत् अभ्यास से ऐसा करना कुछ हद तक संभव हो पाता है।

अगर मेरी डायरी में विदेशी किताबों का अधिक उल्लेख होता है तो इसके पीछे मेरी पसंद, नापसंद नहीं बल्कि कुछ व्यवहारिक कारण हैं। पहली बात यह कि ये किताबें आंशिक या पूर्ण रूप में इंटरनेट पर फ्री में मिल जाती हैं। ये अपने लिखित स्वरूप के साथ-साथ आडियो-विडियो फार्मेट में भी मिलती हैं। मेरे साथ प्रायः यह होता है कि मैं पहले इंटरनेट की फ्री सामग्री को पढ़ता, देखता या सुनता हूं और फिर जब कुछ विशेष बात हो तो संबंधित किताब भी खरीद लेता हूं। समय और पैसे की बचत के साथ-साथ उपलब्धता भी एक पहलू है जिसके कारण मैं विदेशी किताबों की ओर खिंचा चला जाता हूं। जिस सहजता से विदेशी लेखकों की हर विषय पर किताबें मिल जाती हैं, उतनी सहजता से भारतीयों लेखकों की पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं।

किताब का चयन करते समय लेखक की राष्ट्रीयता से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरा मानना है कि ज्ञान को देशी-विदेशी के चश्मे से देखना कोई अच्छी बात नहीं। संपूर्ण मानवजाति ने अब तक जो ज्ञान सृजित किया है, वह सब हमारा है। हमें उसे खुले मन से जानना और समझना चाहिए। किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर विदेशी विद्वानों से दूर रहना ठीक नहीं है। हमें किस लेखक को पढ़ना चाहिए, इसका निर्धारण हम किसी जड़ नियम की बजाए यदि अपने शुद्ध विवेक से करें तो ज्यादा अच्छा होगा।

सच कहें तो किताब चुनते समय मेरी प्राथमिकता में हमेशा संबंधित विषय होता है। मैं ये किताबें किसी शोधार्थी या विचारक की नहीं बल्कि एक कार्यकर्ता की दृष्टि से पढ़ता हूं। मैं कम से कम समय में अपने मतलब की जानकारी जुटाकर उसका अपने दैनंदिन जीवन में इस्तेमाल करना चाहता हूं। किताब का नाम साझा करने के पीछे मेरी सोच है कि लोग मेरी निर्णय प्रक्रिया को जानें और उसे बेहतर बनाने में मेरी मदद करें। अगर कोई व्यक्ति संबंधित विषय पर मुझे पूरक जानकारी प्रदान करता है तो मैं निश्चित रूप से उसके प्रति विशेष कृतज्ञता का अनुभव करूंगा।

किताबों की बात चल रही है तो हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि देशी-विदेशी सभी किताबें हमारे ज्ञान के साथ-साथ ‘अज्ञान’ के ज्ञान को भी बढ़ाती हैं। इनकी मदद से हम जान पाते हैं कि हम क्या-क्या नहीं जानते। इटली में एक प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं, उनका नाम है – Umberto Eco. उनकी व्यक्तिगत लाइब्रेरी में लगभग 30,000 किताबें हैं। जो लोग उनसे मिलने आते, इतनी किताबें देख दंग रह जाते और उनसे पूछ बैठते – आप इस जिंदगी में इतनी किताबें पढ़ नहीं सकते, फिर आपने इन्हें यहां क्यों रखा है? अम्बर्टो का जवाब होता- ये किताबें मैं इस जीवन में नहीं पढ़ पाऊंगा, फिर भी ये मेरे बड़े काम की हैं। जब मैं इन्हें देखता हूं तो मुझे एहसास होता है कि मैं कितना कम जानता हूं।

अम्बर्टो की इन अनपढ़ी किताबों को ही मशहूर लेखक नसीम निकोलस तालिब एंटी लाइब्रेरी कहते हैं। उनका कहना है कि हमारी व्यक्तिगत लाइब्रेरी में दो तरह की किताबें होती हैं- एक पढ़ी हुई और दूसरी बिना पढ़ी हुई। ये बिना पढ़ी हुई किताबें ही एंटी लाइब्रेरी का निर्माण करती हैं। इनका महत्व पढ़ी हुई किताबों से कम नहीं होता। ये हमें हमारे अज्ञान की एक झलक दिखलाती हैं। इसलिए वे सुझाव देते हैं कि किताबों के व्यक्तिगत संग्रह में अनपढ़ी किताबों की संख्या हमेशा पढ़ी हुई किताबों से अधिक होनी चाहिए।

वास्तव में विद्वान व्यक्ति जितना अपने ज्ञान से परिचित होता है, उससे ज्यादा वह अपने अज्ञान के बारे में जानता है। मूर्ख के पास वह क्षमता नहीं होती कि वह अपने अज्ञान का हिसाब रख सके। वास्तव में अपने अज्ञान को जानना, पहचानना और उसे साधना ही मानव जीवन की चुनौती है। किताबें इस दिशा में मदद करती हैं किंतु अंतिम समाधान उनके पास भी नहीं है। अगर आपको अपने अज्ञान का पक्का निदान चाहिए तो आपको अपने ईष्ट की शरण में जाना होगा। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को यही तो कहा था।

मानव जीवन की विडंबना है कि हमारी इच्छाएं प्रायः अज्ञान के कारण उपजती हैं। जब हम अज्ञान के घुप्प अंधियारे में उन इच्छाओं को पाने के लिए आगे बढ़ते हैं तो हमारा सामना यदा-कदा ज्ञान की कुछ किरणों से होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे जीवन की शुरुआत हमेशा एक दोषपूर्ण नक्शे के साथ होती है। मजे की बात यह कि हममें से किसी को पता नहीं होता कि हमारे हाथ में जो नक्शा है, वह गलत है। जैसे-जैसे हम जीवन में आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे हमें कुछ सबूत मिलते हैं जो इशारा करते हैं कि हमारे नक्शे में कुछ कमी है। अगर हम सचेत रहे और कनफर्मेशन बायस के शिकार नहीं हुए तो उन कमियों को पहचान कर अपना रास्ता ठीक करते चलते हैं। लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो हम काम, क्रोध और लोभ नामक त्रिदोषों के अधीन होकर समझ ही नहीं पाते कि जिस नक्शे के सहारे हम आगे बढ़ रहे हैं, वह नक्शा ही गलत है। गीता के अध्याय 16, श्लोक 21 में भगवान संभवतः यही बात कह रहे हैं।

(विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान।)