
विदिशा, जो कभी भेलसा था, के पास उदयगिरी की गुफाएँ विश्वप्रसिद्ध हैं। वहाँ का रास्ता बड़ा आम सा, गाँव के बीच से हो कर जाता है। लगेगा ही नहीं कि हम इतिहास की किसी महत्वपूर्ण सदी में प्रवेश करने जा रहे हैं, उसे जीने जा रहे हैं।
जहां ये गुफाएँ हैं, उनके ठीक सामने घर बने हुए हैं, उनमें वैसे ही जीवन यापन होता है, जैसे अमूमन ग्रामीण भारतीय घरों मे होता है। आधे पक्के से घरों के बाहर लगभग सड़क पर ही घर के पुरुष सदस्य और बच्चे खेलते दिख जाते हैं। रास्ते में इमली के विशाल वृक्ष खड़े हैं, जिनमे लटकती इमलियों को देख मुँह में पानी भर आता है। पत्थर तबीयत से भी उछालो तो, गलती से इक्का दुक्का इमली गिरती है। डर ये भी लगता है कि किसी को लग न जाए।
पिछले महीने कुछ विद्यार्थियों के साथ सांची और उदयगिरी घूमने जाना हुआ। करीब बीस साल पहले उदयगिरी गई थी, उसके बाद इतने सालों बाद…
विदिशा ध्रुवस्वामिनी और सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की साक्षी भूमि रही है। शकों के षडयंत्रों से ध्रुवस्वामिनी को मुक्त कर उससे प्रथम परिणय भी सम्राट ने किया था। चन्द्रगुप्त ने मीलों तक गुफाओं की रचना करवाई, और उदयगिरी की भित्तियों पर अनेक सजीव और ओजपूर्ण प्रस्तर प्रतिमाओ को बनवाया। गुप्त सम्राट वैष्णव थे, लेकिन फ़ाहियान ने लिखा है की उनका धार्मिक दृष्टिकोण उदार था। वे सभी धर्मों को आदर से देखते थे।
भूमि का उद्धार करते भगवान वाराह, शेषसायी विष्णु, महिष का मर्दन करती दुर्गा, ये सभी सबसे अनूठी और हैरान कर देने वाली, आकर्षित करती हुई प्रतिमाएँ हैं। इनके बारे में जितना कहा जाए कम ही है। किसी का भी इनको देखकर आश्चर्यचकित हो जाना स्वाभाविक है।
गुफा नं 5 में स्थित ‘वाराह’ प्रतिमा कई कारणों से प्रसिद्ध है। इसकी व्याख्या शौर्य के प्रतिमान के रूप में की गई है। भगवान वाराह की प्रतिमा के सामने ही इसका इतिहास दर्शाती पट्टिका लगी है, जिस पर इसका वर्णन कुछ इस प्रकार है- ‘एक पौराणिक कथा के अनुसार- हिरण्याक्ष नामक दानव ने भू देवी को (पृथ्वी) को पकड़ लिया और उसे समुद्र के गहरे तल में छुपा दिया था। तब भगवान विष्णु ने ‘वाराह’ का रूप धरण कर भूदेवी की रक्षा की। दानव को मारकर पृथ्वी को लौकिक संसार से मुक्त करवाया। भूदेवी को अपने दाहिने दाँत पर उठाए हुए ब्रह्मांड में उनके स्थान पर उनको वापस स्थापित किया।’
इसकी व्याख्या इतिहासकारों ने अपने अपने शब्दों में कुछ इस प्रकार की है- यह भारतीय शिल्प का अकेला वो नमूना है जिसे भारत में कहीं और नहीं पाया गया है। इस प्रतिमा में केवल मुँह वाला हिस्सा वाराह का है, बाकी शरीर, कमर पर हाथ रखे एक बलशाली योद्धा का है। जिस शिल्पी ने भी इसे गढ़ा होगा ये उसकी सफलता का सर्वश्रेष्ठ नमूना है।
वाराह मे मुख पर मुक्ति की मुस्कान है, उन्ही के पास पुरुषवेश में शेषनाग अपनी पत्नी के साथ हाथ जोड़े हुए उनके सामने सर झुकाए खड़े हैं। पीछे देखेंगे तो लहराता सागर दिखया गया है। और बाकी सारे देवगण भी दर्शाये गए हैं। ऐसा भी माना जाता है की ये पराक्रमी सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हैं जो शकों से भारत भूमि का उद्धार करते दिखाए गए हैं। उन्ही के प्रतीकात्मक स्वरूप यह शिल्प बनाया गया है।
गुफा नं 13 में एकाश्म पत्थर में काटी गई शेषशायी विष्णु की प्रतिमा है। भगवान विष्णु को शेषनाग के ऊपर लेटे हुए दर्शाया है। उनके वहाँ गरुड को भी पक्षी रूप में बैठे दिखाया है। यह शेषशायी विष्णु की प्राचीनतम एवं बड़ी प्रतिमाओ में से एक है।
इन दिनों इसके संरक्षण के लिए इसे कांच में बंद कर दिया गया है, ताकि पर्यटक इसे बार बार हाथ न लगाएँ।
इस मूर्ति में विष्णु अनंत की शैया पर आनदपूर्वक लेते हुए हैं। पास ही सारे देवगण भी दिखलाई देते हैं। इस मूर्ति की विशेषता यह है की इसमे सेवा करती लक्ष्मी और कमलनाल से निकले ब्रह्मा नहीं हैं। विष्णु प्रतिमाएँ गुप्तकालीन मूर्ति शिल्पियों का प्रिय विषय रही हैं।
पट्टिकाओं पर कथाएँ जो भी लिखी हों, पर शिल्पियों के हुनर और उनकी कल्पना शक्ति का कोई मुकाबला नहीं। पूरे भारत भर में अपनी अनोखी पहचान के लिए जाना जाने वाला यह शिल्प अतुलनीय है…. अगली बार सांची से थोड़ा आगे जरूर बढ़ जाईएगा..।