ग्रामयुग डायरी : लाइन और स्टाफ


कोल्हापुर के अपने इस प्रवास में मैं रोज संकल्पित होता हूं कि मुझे अब अतीत की गलतियां नहीं दोहरानी है। अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में मैं कई बड़े-बड़े आयोजनों और अभियानों का हिस्सा रहा हूं। लेकिन दुर्भाग्य से आयोजन बीतते-बीतते मेरा कई लोगों के साथ तनाव बढ़ जाता है।


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लोकोत्सव की तैयारियों को लेकर जो बैठक 18 दिसंबर से शुरू हुई, वह अभी भी नियमित हो रही है। प्रायः सोचता हूं कि इस बैठक को और उपयोगी बनाने के लिए कुछ नियम बनाए जाएं। अगर मेरे पास अतीत का अनुभव न होता तो मैं कुछ लिखित नियम बनाकर उसे लागू करवाने में पूरा जोर लगा देता। लेकिन अब मैं समझ गया हूं कि किसी भी समूह को संगठन बनने में समय लगता है। अचानक नियम बनाकर उसके स्वभाव और कार्यप्रणाली को बदला नहीं जा सकता। मेरे जैसा व्यक्ति जो किसी बाहरी परिवेश से आता है, उसे यह बात विशेष रूप से ध्यान रखनी चाहिए। कोई कार्यप्रणाली चाहे वह कितनी भी प्रभावी क्यों न, उसे देश-काल और व्यक्ति का विचार किए बिना लागू करने से प्रतिकूल परिणाम ही निकलते हैं।

कोल्हापुर के अपने इस प्रवास में मैं रोज संकल्पित होता हूं कि मुझे अब अतीत की गलतियां नहीं दोहरानी है। अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में मैं कई बड़े-बड़े आयोजनों और अभियानों का हिस्सा रहा हूं। लेकिन दुर्भाग्य से आयोजन बीतते-बीतते मेरा कई लोगों के साथ तनाव बढ़ जाता है। सीधे किसी से लड़ाई-झगड़ा तो नहीं होता, लेकिन संबंधों में एक खिंचाव या दूरी अवश्य आ जाती है।

आयोजन की प्रक्रिया में कुछ लोगों से दूरी बढ़ती है तो कुछ लोगों से नजदीकी भी बढ़ जाती है। कहा भी गया है, बर्ड्स आफ ए फेदर फ्लाक टुगेदर। कुल मिलाकर मामला घाटे का नहीं होता। हर आयोजन के बाद मेरे खाते में कुछ नए संबंध आ ही जाते हैं। लेकिन जो लोग दूर हो गए, उसका मलाल भी रहता है। मैं चाहता हूं कि आगे कुछ ऐसा किया जाए जिससे संबंधों का नुक्सान कम से कम हो।

कोल्हापुर में मेरे सामने सबसे बड़ा खतरा यह है कि मेरी भूमिका यहां बहुत ही जनरलाइज्ड है। बैठकों में स्वामी जी मेरा परिचय यह कह कर करवाते हैं कि ये विमल जी हैं और सारा उत्सव इन्हीं की देखरेख में होगा। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वे यह भी कहते हैं कि इन्होंने (मैंने) 2015 के भारतीय संस्कृति उत्सव का संचालन किया था। स्वामी जी जिस उदारता से मेरा परिचय करवाते हैं, उसके अपने खतरे हैं। मुझे अच्छे से मालूम है कि मैं इस महा-आयोजन में एक छोटे से पुर्जे की तरह हूं जिसे अपनी सही जगह ढूंढकर खुद ही कहीं फिट हो जाना है। अभी मेरे सामने ढेर सारे काम हैं जिनके बारे में मैं कुछ न कुछ कर रहा हूं लेकिन जैसे-जैसे आयोजन की तिथि 20 फरवरी नजदीक आ रही है, मैं अपना फोकस सीमित करता जा रहा हूं। फिलहाल मेरे सामने जो काम हैं, वे कुछ इस प्रकार हैंः

1. पर्यवेक्षक- कनेरी मठ अपने आप में एक छोटा सा संसार है। इसे मैं काफी हद तक जानता हूं, लेकिन यहां इतना कुछ होता रहता है कि प्रायः अतीत की जानकारी पुरानी पड़ जाती है। इसलिए मेरे लिए जरूरी है कि मठ की पुरानी-नई सभी गतिविधियों को निरपेक्ष भाव से देखूं और उनका आकलन करूं। इससे भविष्य में कई आवश्यक निर्णय लेने में मदद मिलेगी।

2. प्रशिक्षु- मेरी दृष्टि में कनेरी मठ एक ऐसी पाठशाला है जहां मुझे ग्रामयुग अभियान के कई व्यवहारिक पहलुओं के बारे में सीखना-समझना है। यहां स्वामी जी ने ग्रामीण जीवन और खेती-किसानी को लेकर जो कुछ किया है, वह अद्भुत है। मैं चाहता हूं कि इस आयोजन के माध्यम से मेरा इस मठ से संबंध और प्रगाढ़ हो जाए ताकि मैं लंबे समय तक यहां से जुड़कर कुछ न कुछ सीखता रहूं।

3. लेखक- पंचमहाभूत लोकोत्सव को मैं गांवों का ही उत्सव मानता हूं। इसलिए पूरे आयोजन के वैचारिक अधिष्ठान को समझने और उसे अभिव्यक्त करने में मैं अपने को सहज पाता हूं। तदनुरूप इस आयोजन के निमित्त सामान्य पत्र लिखने से लेकर विविध प्रकार के ब्रोशर, बुकलेट, लेख, रिपोर्ट, प्रस्ताव, नोट, स्क्रिप्ट , कॉपी या किसी भी तरह का कान्टेन्ट तैयार करने में मेरी विशेष भूमिका है।

4. संपादक- कई वर्षों तक संपादन मेरा मूल कर्म रहा है। मेरी इच्छा है कि लोकोत्सव के संदर्भ में मठ की ओर से विशेष प्रकार का संकलन आए जिसमें देश भर के लेखकों की रचनाएं शामिल हों।

5. फिल्मकार- मैंने अब तक मठ की दो डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाई हैं। उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए इस बार उत्सव के बारे में एक छोटी सी तीसरी डाक्यूमेन्ट्री बनाई है। इसका लिंक नीचे दिया गया है। आगे चलकर हम विजुअल मीडिया की दृष्टि से यहां कई और प्रयोग करने वाले हैं।

6. सोशल मीडिया स्ट्रैटेजिस्ट- यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर आदि के माध्यम से पंचमहाभूत लोकोत्सव और मठ की बात दूर-दूर तक जाए, इसके लिए यथोचित सामग्री तैयार करना और उसे एक विशेष रणनीति के तहत धीरे-धीरे जारी करना।

7. शोधकर्ता- मठ और विशेष रूप से लोकोत्सव में जो संभावनाएं छिपी हुई हैं, उन्हें साकार करने के लिए आवश्यक शोध करना।

8. सलाहकार- मठ की ताकत-कमजोरी और लोकोत्सव की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए स्वामी जी को आवश्यक सलाह देना। जहां जरूरत होती है, वहां मैं आयोजन समिति के अन्य सदस्यों को भी सलाह देता हूं।

9. संगठक- लोकोत्सव में जो बहुत सारे वालंटियर्स आ रहे हैं, उनकी क्षमता को पहचान कर उन्हें काम देना और उन्हें हर तरीके से सक्षम बनाना। इसी के साथ स्वामी जी से देश भर में जो कार्यकर्ता जुड़े हैं, उन्हें किसी सांगठनिक ढांचे का अंग बनाना और उनके साथ मिलकर काम करना। मेरे संपर्क के जो लोग इस आयोजन में रुचि दिखा रहे हैं, उन्हें भी मैं साथ लेने की कोशिश कर रहा हूं।

10. सूचना प्रबंधन- लोकोत्सव की दृष्टि से यहां 50 से अधिक विभाग बने हैं। उन सभी की जानकारी मेरे पास आती है। प्रबंधन की दृष्टि से जहां जरूरत होती है, वहां मैं आवश्यक निर्णय भी लेता हूं। लेकिन मेरी मुख्य भूमिका यह है कि सभी विभागों के बीच सूचनाओं का यथोचित प्रवाह बना रहे। लोग अपने काम के साथ-साथ दूसरे के कार्यक्षेत्र को जानें और उसका सम्मान करें, यह भी मेरी प्राथमिकता में शामिल है।

11. ‘स्टाफ’ कार्य- प्रबंधन की भाषा में दो तरह के काम होते हैं- लाइन वर्क और स्टाफ वर्क। मैंने ऊपर जो दस काम गिनाए हैं, वे मोटे तौर पर लाइन वर्क की श्रेणी में आते हैं। जहां लोग कम संख्या में काम कर रहे हों और कार्य की प्रकृति अल्पकालीन हो, वहां सभी काम लाइन वर्क ही होते हैं। किंतु जब समूह बड़ा हो और कार्य की प्रकृति दीर्घकालीन हो तो वहां स्टाफ वर्क की अलग से जरूरत होती है। किसी बड़े संगठन या अभियान में यदि स्टाफ वर्क अच्छे से नहीं हो रहा है तो वहां अव्यवस्था और अराजकता की संभावना बहुत बढ़ जाती है।

‘स्टाफ’ की आधुनिक अवधारणा सैन्य संगठन से निकली है। अगर इतिहास की बात करें तो यह प्रणाली नेपोलियन से हार के बाद आज के जर्मनी और तब के प्रशिया में विशेष रूप से विकसित हुई थी। उन्होंने इसके लिए ‘जनरल स्टाफ आफिस’ के नाम से एक विशेष इकाई बनाई थी। आज भारत सहित दुनिया भर के बड़े संस्थान सैनिक ही नहीं बल्कि असैनिक मामलों में भी इस प्रणाली का उपयोग करते हैं। स्टाफ की व्यवस्था को यदि आप साकार रूप में समझना चाहते हैं तो उसे आप भारत में पीएमओ से समझ सकते हैं। वास्तव में पीएमओ प्रधानमंत्री के स्टाफ आफिस की तरह ही काम करता है।

स्वामी जी का कार्य जिस तेजी से फैल रहा है, उसे देखते हुए उन्हें एक स्टाफ आफिस की सख्त जरूरत है। लेकिन अगले एक-दो महीने में इस तरह की कोई आफिस खुल पाएगी, इसमें मुझे संदेह है। फिर भी इस दिशा में कुछ बुनियादी प्रयास जरूर करूंगा।

मुझे कोल्हापुर में रहते हुए एक महीना हो चुका है। मराठी नहीं आने के कारण थोड़ा काम प्रभावित होता है, लेकिन बहुत दिक्कत नहीं होती। फिर भी चाहता हूं कि मराठी सीख ली जाए। फरवरी के बाद यदि हो सका तो इस पर विशेष ध्यान दूंगा। यहां कोल्हापुर में मेरा भोजन संबंधी प्रयोग ठीक से चल रहा है। गेहूं, चावल और सभी प्रकार के पारंपरिक भोजन को छोड़ने से शरीर में कमजोरी के कोई लक्षण नहीं हैं। पिछले कुछ दिनों से मैंने एक नया प्रयोग शुरू किया है। अब दूध बंद करके उसकी जगह दही ले रहा हूं। मैं देखना चाहता हूं कि मेरा शरीर किसे अधिक पसंद करता है।

(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)