राजशाही के दौर में राजा का उत्तराधिकारी उसका बेटा ही हुआ करता था। जिस राजा के एक से अधिक पुत्र होते थे उसे उत्तराधिकारी बनाने में थोड़ी दिक्कत जरूर आती थी लेकिन यह मसला भी आसानी से हल हो जाया करता था क्योंकि मान्य परंपरा के मुताबिक बड़े राजकुमार का ही राजतिलक करने की परंपरा थी। किसी कारण वश अगर बड़े राजकुमार को शासन की बागडोर नहीं मिल पाती थी तब दूसरे नंबर के राजकुमार को यह मौका दिया जाता था। इस तरह उत्तराधिकार का यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता था।
लोकतंत्र में यह व्यवस्था काम नहीं आती। लोकतंत्र में बहुमत का बोलबाला होता है और सत्ता का हस्तांतरण उसी व्यक्ति को होता है जिसके पास बहुमत होता है। बहुमत जुटाना आसान काम नहीं है। इसके लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है लेकिन अगर आप उस व्यवस्था से परिचित हैं, व्यवस्था की भूल-भुलैया में फंस कर उससे बाहर निकलना जानते हैं, आपके पास बहुमत जुटाने के लिए माहौल बनाने के वास्ते पर्याप्त पैसा है और अगर आप संयोग से किसी नेता के पुत्र या पुत्री हैं तो आपकी आधी से ज्यादा मुश्किलें खुदबखुद दूर होती जायेंगी और आप घर में बैठे ही सत्ता या संगठन के शीर्ष पर पहुंच सकते हैं।
अपने वंश और परिवार को राजनीति में आगे बढ़ाने का यह सिलसिला भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में किस सीमा तक आगे बढ़ चुका है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार यह पता ही नहीं चल पाता कि हम आज भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं या राजा-रानी और राजकुमार वाले पुरानी सामंती परंपरा में जी रहे हैं।
इसी वजह से देश की राजनीति में आज भी वंशवाद अथवा परिवारवाद का मुद्दा छाया रहता है। राजस्थान के गहलोत बनाम पायलट विवाद और बिहार विधान सभा के चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में एक बार फिर देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी को वंशवाद के बहाने निशाने पर लिया गया है। यह बात निश्चित रूप से सही है कि कांग्रेस पूरी तरह परिवारवाद की जकड़ में है। लम्बे समय से इसकी कमान नेहरु- गांधी परिवार के हाथों में ही रही है।
आज भी इस पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष इसी परिवार की सदस्य सोनिया गांधी ही हैं। उन्होंने भी अपने सांसद बेटे राहुल गांधी से यह पद हासिल किया था जबकि राहुल गांधी ने भी अपनी मां सोनिया गांधी से ही हासिल किया था। यह ठीक है कि 1998 के पास जब सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था उससे पहले स्वर्गीय सीताराम केसरी इस पार्टी के अध्यक्ष थे और सीताराम केसरी को पार्टी की कमान तब सौंपी गई थी जब 1996 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में इस पार्टी को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा था।
नरसिंह राव इस पार्टी के अध्यक्ष तब बनाए गए थे जब 1991 में एक आतंकी हमले में पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गांधी ने सरकार और संगठन में कोई भी जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया था। राजीव गांधी 1984 में अपनी मां, तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी बनाए गए थे।
राहुल गांधी उनकी मां सोनिया गांधी, सोनिया गांधी के पति राजीव गांधी, राजीव गांधी की मां इंदिरा गांधी और इंदिरा गांधी के पिता और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु तक, नेहरु-गांधी परिवार के सदस्य एक लम्बे समय तक बारी-बारी से कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं। इसलिए इस पार्टी पर वंशवाद या परिवारवाद के जकड़ में होने का आरोप लगना स्वाभाविक भी है। ये अलग बात है कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से लेकर पट्टाभि सीतारमैय्या, बाबू जगजीवन राम, नीलम संजीव रेड्डी, नरसिम्ह राव समेत करीब दो दर्जन से अधिक ऐसे व्यक्ति भी इस पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हैं जो नेहरु-गांधी परिवार के सदस्य नहीं थे।
कुछ व्यक्तियों और पार्टियों को भारत में इस लिहाज से अपवाद माना जा सकता है जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से या फिर संगठनात्मक स्तर पर अपनी राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकार अपनी संतान को नहीं सौंपा। इन अपवादों के अलावा तो देश की कोई भी पार्टी वंशवाद को बढ़ावा देने में किसी से पीछे नहीं है। ऐसे अपवादों की बात करें तो इनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी के नाम लिए जा सकते हैं जिन्होंने अपनी संतानों को राजनीतिक विरासत का हिस्सेदार नहीं बनाया।
भाजपा के कई ऐसे भी नेता हैं जो राजनीति में अपनी विरासत को इसलिए भी आगे नहीं बढ़ा सके क्योंकि या तो भाजपा के ऐसे नेता चिर कुंआरे थे या हैं अथवा जिनकी अपनी कोई संतान नहीं है। ऐसे नेताओं में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी तक कई भाजपा नेताओं के नाम लिए जा सकते हैं।
क्षेत्रीय दलों में ममता बनर्जी को ऐसा एक अपवाद नेता कहा जा सकता है जिसने अपनी विरासत को विस्तार नहीं दिया। इसकी एक बड़ी वजह उनका आविवाहित होना माना जा सकता है। ममता की तरह उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती भी अविवाहित हैं लेकिन उन्होंने विरासत को आगे बढ़ाने के नाम पर अपने भाई-भतीजों को खूब लाभ पहुंचाया। इसी राज्य के मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता की समाजवादी पार्टी, बिहार में लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल, बीजू पटनायक का बीजू जनता दल, रामविलास पासवान की लोजपा, शिबू सोरेन का झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस, ओम प्रकाश चौटाला का इंडियन नेशनल लोक दल, अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल, कर्णाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौडा और उनके प्रतिद्वंदी भाजपा नेता येदिदुराप्पा जैसे असंख्य ऐसे नेता इस देश में वंशवाद और परिवारवाद की राजनीति कर रहे हैं। कर सब रहे हैं लेकिन बदनाम कांग्रेस है।