पिछले कुछ सालों से देश के कई हिस्सों में गर्मियों में जंगलों में आग की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इस साल भी जंगल में आग की घटनाओं ने पुराने सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर ज़बर्दस्त तबाही मचायी। सबसे भयंकर हालात उत्तराखण्ड में देखने में आये जहाँ इस साल 10 जून तक जंगलों में आग की 2,154 घटनाएँ सामने आयीं। उत्तराखण्ड के अलावा हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ व उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों में भी जंगल की आग की परिघटना ख़ौफ़नाक रूप अख़्तियार कर रही है।
जंगल में आग की इन घटनाओं से जान-माल, जैव-विविधता और प्राकृतिक संसाधनों की ज़बर्दस्त तबाही होती है। उत्तराखण्ड के जंगलों में आग से इस साल कम से कम 5 लोगों की मृत्यु की ख़बरें आयीं और अनगिनत पशु-पक्षी जलकर राख हो गये। अकेले उत्तराखण्ड में 1500 हेक्टेयर से ज़्यादा जंगल सुपुर्द-ए-ख़ाक हो गये। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में क़रीब 1000 हेक्टेयर जंगल आग में स्वाहा हो गये। जंगलों में आग की ये घटनाएँ जलवायु परिवर्तन से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं और इनके नतीजे के रूप में जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी असन्तुलन की समस्या और भी भयावह हो रही है।
पिछली 13 जून को अल्मोड़ा के निकट प्रख्यात बिनसर के जंगल में लगी आग में चार वनकर्मी आग बुझाते हुए जलकर मर गये और चार अन्य वनकर्मी 50-60 प्रतिशत तक जल गये। उत्तराखण्ड के जंगलों की आग में इस वर्ष 10 वनकर्मी जलकर मर चुके हैं। बहुत से अन्य घायल हुए हैं जिनका समुचित इलाज तक नहीं हो पाया। उत्तराखण्ड के नाज़ुक पर्यावरण को ख़तरे में डालकर पर्यटकों की रेलमपेल लगाने में मस्त भाजपा सरकार केदारनाथ में रोज़ कई फेरे हेलीकॉप्टर के लगवा रही है लेकिन जंगल की आग बुझाते हुए जले वनकर्मियों को हल्दवानी के निकटतम अस्पताल में ले जाने के लिए उसे हेलीकॉप्टर नहीं मिल पाता है। बिनसर का जंगल उत्तराखण्ड के सर्वाधिक जैव विविधता वाले वनों में शामिल है। उसके दहकने से जो नुक्सान हो रहा है उसकी न तो जल्दी भरपाई की जा सकती है और न उस नुक्सान का पूरा अनुमान लगाया जा सकताहै। लेकिन सरकार और प्रशासन राज्य में टूरिस्टों की भीड़ जुटाने में ही मस्त हैं।
अब इस बात में कोई सन्देह नहीं रह गया है कि पिछली कुछ सदियों के दौरान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हुए पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन की भयावह समस्या उठ खड़ी हुई है जिसका नतीजा पृथ्वी पर लगातार बढ़ते तापमान, सूखे और बाढ़़ की बढ़ती तबाहियों के रूप में सामने आ रहा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से पहाड़ों पर ग्लेशियर बहुत तेज़ी से पिघल रहे हैं और पहाड़ी इलाक़ो में बर्फ़बारी लगातार कम होती जा रही है। नतीजतन पहाड़ी इलाक़ों में गर्मियों में मिट्टी पहले से ज़्यादा शुष्क होती जा रही है। जाड़े के बाद पतझड़ के मौसम में जंगलों में पेड़ों से गिरी सूखी पत्तियों का अम्बार लग जाता है जो आग के ईंधन का काम करती हैं।
ख़ास तौर पर चीड़ के जंगलों में आग लगने की सम्भावना ज़्यादा होती है क्योंकि चीड़ की पत्तियाँ और पेड़ बेहद ज्वलनशील होते हैं। जंगल में किसी एक जगह आग धधकने से वह बेक़ाबू होकर बहुत ही तेज़ी से आसपास के तमाम जंगली इलाक़ों तक फैल जाती है और उसे बुझाना बेहद मुश्किल हो जाता है। ख़ास तौर पर जब हवा बहुत तेज़ चलती है या आँधी-तूफ़ान आता है तो आग और भी तेज़ी से फैलती है। बारिश होने पर यह आग बुझ जाती है, लेकिन चूँकि जून से पहले मानसून के आने की सम्भावना नहीं रहती इसलिए जून से पहले जंगलों में लगी आग पर क़ाबू पाना बेहद मुश्किल होता है।
आग की शुरुआत होने का तात्कालिक कारण किसानों द्वारा पराली जलाना, ग्रामीणों द्वारा साफ़-सफ़ाई की दृष्टि से कूड़े-करकट में आग लगाना और पहाड़ी इलाक़ों में जंगलों के नज़दीक पर्यटकों द्वारा लगायी गयी आग हो सकता है या फिर कोई प्राकृतिक कारण जैसे बिजली का गिरना भी हो सकता है। ग़ौरतलब है कि पारम्परिक रूप से पहाड़ी जंगलों के आसपास रहने वाले समुदायों में सामूहिक रूप से आग पर क़ाबू पाने का प्रचलन रहा है। परन्तु पूँजीवादी विकास, खेती के संकट और पर्यावरण के विनाश की वजह से तमाम समुदाय तितर-बितर हो चुके हैं। लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में मैदानों व शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं।
अकेले उत्तराखण्ड में 1700 से ज़्यादा गाँव ऐसे हैं जो पूरी तरह से वीरान हो चुके हैं क्योंकि वहाँ के सभी बाशिंदे पलायन कर चुके हैं। जिन गाँवों में लोग बचे हुए हैं वहाँ भी ज़्यादातर बुज़ुर्ग ही रहते हैं क्योंकि युवा रोज़ी-रोटी की तलाश में पलायन कर चुके हैं। इन हालात में सामुदायिक रूप से जंगल की आग पर क़ाबू पाना और भी मुश्किल होता जा रहा है। सरकार भाड़े पर लोगों से जंगलों में सूखी पत्तियों को हटाने का काम करवा रही है, लेकिन बेहद कम मज़दूरी मिलने की वजह से इस काम में लोगों का कोई उत्साह नहीं रहता है।
उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार ने आग की समस्या को समय पर क़ाबू करने में कोताही बरती जिसकी वजह से जंगलों की आग बेक़ाबू होती गयी। जब आग भयावह रूप लेने लगी तो सरकार ने सेना के हेलीकॉप्टरों की मदद से जंगलों में लगी आग पर पानी छिड़ककर आग बुझाने की कवायद शुरू की। इसी बीच संघ परिवार के लोगों ने हमेशा की ही तरह आपदा में अवसर तलाशते हुए सोशल मीडिया पर फ़र्जी वीडियो वायरल करवाकर यह झूठ फैलाने की भी बेशर्म कोशिश की कि जंगलों में आग मुसलमानों ने फैलायी है क्योंकि वे उत्तराखण्ड सरकार द्वारा पारित किये गये समान नागरिक संहिता क़ानून का बदला लेना चाहते हैं। ऐसे मानवद्रोही फ़ासिस्ट शासन में अगर जंगलों में आग हो, भूस्खलन हो, बाढ़ हो या पर्यावरण से सम्बन्धित अन्य समस्याएँ भयावह रूप धारण कर रही हैं तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
आख़िरकार बारिश होने के बाद ही उत्तराखण्ड व अन्य पहाड़ी इलाक़ों में जंगलों में लगी आग बुझ पायी। अब जबकि मानसून आ चुका है, जंगलों में लगी आग पूरी तरह से बुझ चुकी है। लेकिन इसमें संतुष्ट होने की कोई बात नहीं है। हर साल गर्मियों में लगने वाली आग की यह विभीषिका कुदरत की एक चेतावनी है कि अगर जलवायु परिवर्तन व पारिस्थितिक असन्तुलन जैसी समस्याओं से समय रहते नहीं निपटा गया तो आने वाले दिनों में बेहिसाब तबाही व बरबादी होनी वाली है।
दुनिया भर में तमाम पूँजीवादी सरकारें व अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सियाँ पर्यावरण विनाश, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक असन्तुलन पर संगोष्ठियाँ करके घड़ियाली आँसू तो बहुत बहाती हैं परन्तु वे इन समस्याओं का समाधान कर ही नहीं सकती हैं क्योंकि वे समस्या की मूल वजह पर पर्दा डालती हैं। वे हमें यह नहीं बताती हैं कि इन विभीषिकाओं के लिए दरअसल मुनाफ़ाकेन्द्रित पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली ज़िम्मेदार है। अक्सर तमाम पर्यावरणवादी भी पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं के लिए समूची मानवता को ज़िम्मेदार ठहराते हैं और पूँजीवाद को बरी कर देते हैं। लेकिन सच तो यह है कि इन समस्याओं के लिए पूँजीवादी हुक्मरान तबका ज़िम्मेदार है जिसने मुनाफ़े की अपनी अन्तहीन हवस को पूरा करने की सनक में पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल दिया है।
चाहे जंगलों में आग की घटनाएँ हों या बाढ़ व सूखे की घटनाएँ अथवा भूस्खलन और सूनामी की घटनाएँ हों, ये सभी चीख-चीख कर हमें चेतावनी दे रही हैं कि अगर हम अनियोजित व मुनाफ़ाकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली को उखाड़कर नियोजित व लोगों की ज़रूरत पर आधारित उत्पादन प्रणाली नहीं लाते हैं यानी पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद नहीं लाते हैं तो पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। केवल एक समाजवादी समाज में ही कृषि व औद्योगिक उत्पादन को योजनाबद्ध रूप से संचालित किया जा सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मनुष्य की उत्पादक गतिविधियाँ प्रकृति की तबाही का सबब न बनें और जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असन्तुलन न पैदा हो।
चाहे जंगलों में लगी आग हो या पर्यावरण सम्बन्धी कोई भी समस्या हो, उसका जड़मूल समाधान केवल समाजवादी समाज में ही मुमकिन है क्योंकि समाजवाद में ही तमाम समस्याओं की तरह पर्यावरण की समस्या का समाधान भी आम बहुसंख्यक मेहनतकश वर्गों के हित में तथा सामुदायिक व सामूहिक तरीक़े से योजनाबद्ध ढंग से किया जा सकता है और विज्ञान व प्रौद्योगिकी का समस्त ज्ञान मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए न होकर लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने और पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने के लिए किया जा सकता है।
इस प्रकार पर्यावरण की समस्या सीधे तौर पर वर्ग संघर्ष से जुड़ी हुई है और उसे वर्ग संघर्ष से परे एक स्वतंत्र समस्या के रूप में देखने से हम उसके समाधान की दिशा में क़दम भी आगे नहीं बढ़ा सकते हैं। आज के दौर में अगर कोई व्यक्ति पर्यावरण विनाश से विचलित होता है और उसे रोकना चाहता है तो उसे पूँजीवाद के विकल्प के बारे में सोचना होगा और सर्वहारा वर्ग का पक्ष चुनना होगा।
(आनंद की रिपोर्ट)