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जब हम जैव विविधता के बारे में सोचते हैं, तो हमारे दिमाग में हरे-भरे जंगल, रंगीन मूंगा चट्टानें और विभिन्न प्रकार के पौधे व जीव आते हैं। वैज्ञानिक अब एक और छिपे हुए खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं – प्रजातियों के भीतर जेनेटिक विविधता में गिरावट।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जिस तरह विश्व में प्रजातियों की संख्या घट रही है, वैसे ही कई प्रजातियों के भीतर जेनेटिक विविधता भी कम हो रही है। इसका सीधा असर उनकी जलवायु परिवर्तन से निपटने, बीमारियों से लड़ने और पर्यावरणीय चुनौतियों से बचने की क्षमता पर पड़ता है। यानी, जो प्रजातियां आज स्थिर दिख रही हैं, वे शायद हमारी सोच से कहीं अधिक खतरे में हो सकती हैं।
गौरतलब है कि जेनेटिक विविधता प्रकृति की सुरक्षा व्यवस्था की तरह काम करती है। यदि किसी प्रजाति में विविध जेनेटिक लक्षण होते हैं, तो प्रजाति के कुछ सदस्य नए खतरों – जैसे बढ़ते तापमान या नई बीमारियों से बचने में सक्षम हो सकते हैं। लेकिन शहरीकरण, प्राकृतवासों का विनाश और जलवायु परिवर्तन जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण जब जीवों की आबादी घटती है, तो उनके भीतर की जेनेटिक विविधता भी कम हो जाती है। इसे ‘मौन विलुप्ति’ कहा जाता है। यानी एक धीमी और अदृश्य प्रक्रिया जो कई प्रजातियों के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए खतरा बन रही है।
इस शोध में वैज्ञानिकों ने पक्षी, स्तनधारियों, मछलियों और पौधों सहित 628 प्रजातियों पर किए गए 882 अध्ययनों का विश्लेषण किया। परिणाम चौंकाने वाले थे।
दो-तिहाई प्रजातियों में आनुवंशिक विविधता घट रही है। इसमें पहले से ही संकटग्रस्त काकेपो (न्यूज़ीलैंड का दुर्लभ उड़ानहीन तोता) जैसे जीव तो शामिल हैं ही, गौरैया और ब्लैक-टेल प्रेयरी डॉग जैसी आम प्रजातियां भी प्रभावित हो रही हैं।
पारिस्थितिक तंत्र की बहाली या नाशी जीवों के नियंत्रण जैसे कुछ संरक्षण प्रयासों का जेनेटिक विविधता के संरक्षण पर खास असर नहीं हुआ है। दूसरी ओर, प्राकृतवासों का विस्तार, अलग-थलग आबादियों को फिर से जोड़ना और छोटी होती आबादी में नए जीवों को शामिल करना जेनेटिक विविधता बनाए रखने में सहायक साबित हुए हैं।
अब तक संरक्षण के प्रयास मुख्य रूप से प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन 2022 में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता संधि ने जेनेटिक विविधता की रक्षा के महत्व को भी स्वीकार किया है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम सुझाए हैं। जैसे प्राकृतवासों की सुरक्षा और विस्तार जिसके अंतर्गत बड़े और आपस में जुड़े प्राकृतिक क्षेत्रों को संरक्षित करना आवश्यक है, ताकि प्रजातियां स्वस्थ और जेनेटिक रूप से विविध बनी रहें। इसी प्रकार से, संकटग्रस्त आबादियों में नए सदस्यों को शामिल करना जेनेटिक विविधता को बनाए रखने में मदद कर सकता है।
एक सुझाव यह भी है कि डीएनए विश्लेषण और अन्य तकनीकों का उपयोग करके जेनेटिक विविधता पर नज़र रखी जानी चाहिए।
विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा संरक्षण प्रयास जेनेटिक क्षति को पूरी तरह रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। डीएनए निगरानी जटिल और महंगी हो सकती है। लिहाज़ा इसके विकल्पों पर काम हो रहा है, जैसे आबादी के फैलाव के आधार पर जेनेटिक विविधता का अनुमान लगाना। अध्ययनों में पाया गया है कि 58 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों की आबादी इतनी सिमट चुकी है कि वे दीर्घकालिक जेनेटिक विविधता बनाए नहीं रख सकतीं।
इस स्थिति को देखते हुए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। विशेषज्ञों के अनुसार केवल प्राकृतवासों की सुरक्षा पर्याप्त नहीं है बल्कि प्रजातियों के जेनेटिक भविष्य को भी सुरक्षित करना अनिवार्य है।
यदि संरक्षण प्रयासों में जेनेटिक विविधता को प्राथमिकता दी जाए, तो हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि प्रजातियां न केवल आज जीवित रहें, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सशक्त और जीवनक्षम बनी रहें।