
उत्तराखंड की नदियां और पहाड़ प्रकृति का अनमोल तोहफा हैं, लेकिन इंसानी लापरवाही और जलवायु परिवर्तन ने इन्हें तबाही का हथियार बना दिया है। भागीरथी, अलकनंदा और ऋषिगंगा जैसी नदियां जो कभी जीवन का आधार थीं, अब गलत नीतियों और पर्यावरण की अनदेखी के कारण यही खतरा बन रही हैं। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि अगर हम समय रहते सतर्क नहीं हुए,तो ऐसी आपदाएं और बढ़ेंगी।
अनुशासनहीन मानवीय गतिविधियां प्रकृति पर बोझ उत्तराखंड में बढ़ते पर्यटन, अनियोजित निर्माण और जलविद्युत परियोजनाएं तबाही को और बढ़ा रही हैं।
अनियोजित निर्माण और खनन पहाड़ों में सड़कें, सुरंगें और बांध बनाने के लिए बड़े पैमाने पर ड्रिलिंग और विस्फोट किए जाते हैं। इससे चट्टानें कमजोर होती हैं। भूस्खलन का बढ़ता खतरा चमोली जिले में रांति पहाड़ का 550 मीटर चौड़ा हिस्सा 2021 में टूट गया, जिससे तपोवन में भारी तबाही हुई। पर्यावरणविदों का कहना है कि यह बांध निर्माण के कारण हुआ। पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा, राधा भट्ट जैसे लोग तो इस खतरे के प्रति वर्षों से आगाह करते रहे हैं।
पर्यटन का दबाव उत्तराखंड में हर साल 4 करोड़ से ज्यादा पर्यटक आते हैं, खासकर बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे तीर्थ स्थलों पर। इससे जंगलों की कटाई, कचरा और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता है।
क्या हैं समाधान?
उत्तराखंड की नदियों और पहाड़ों को तबाही का कारण बनने से रोकने के लिए ये कुछ कदम उठाए जा सकते हैं:-
टिकाऊ विकास सड़कों और बांधों का निर्माण भूकंप और पर्यावरण को ध्यान में रखकर करना चाहिए। वैज्ञानिकों का सुझाव है कि छोटे और पर्यावरण-अनुकूल बांध बनाए जाएं।
ग्लेशियर निगरानी ग्लेशियरों की निगरानी के लिए सैटेलाइट और सेंसर का उपयोग बढ़ाना चाहिए ताकि अचानक बाढ़ की चेतावनी पहले मिल सके।
पर्यटन नियंत्रण तीर्थ स्थलों पर पर्यटकों की संख्या सीमित करनी चाहिए और कचरे के प्रबंधन के लिए सख्त नियम लागू करने चाहिए।
जंगल और पर्यावरण संरक्षण जंगलों की कटाई रोककर और पेड़ लगाकर भूस्खलन को कम किया जा सकता है। उत्तराखंड में 60% से ज्यादा क्षेत्र वनों से घिरा है, लेकिन अवैध कटाई इसे कमजोर कर रही है।
स्थानीय जागरूकता स्थानीय लोगों को आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग देनी चाहिए ताकि वे मुश्किल हालात में तुरंत कार्रवाई कर सकें।
(डॉ. एके अरुण प्रसिद्ध होम्योपैथिक चिकित्सक हैं और हील इनिशिएटिव से जुड़े हैं)