कश्मीरी लोगों के बारे में एक कहावत है कि किसी भी घटना पर वो तत्काल प्रतिक्रिया नहीं देते। समय का इंतजार करते हैं और समय आने पर लंबे समय तक प्रतिक्रिया देते हैं। तिहाड़ जेल में अफजल गुरु की फांसी के बाद कश्मीर घाटी में हम ऐसा होते हुए देख चुके हैं। 2013 में अफजल गुरु को फांसी देने के बाद घाटी में कुछ महीने तक लोगों को घरों में बंद रखा गया लेकिन सात सालों से हम देख रहे हैं कि कश्मीर में आतंकवाद के रूप में जंगे आजादी दोबारा लौट आयी है। बीते सात सालों से घाटी दोबारा अशांत है और इसी अशांति के बीच केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा एक ऐसा कदम उठाया गया जिसे वो शांति की दिशा में “स्थाई कदम” मानते हैं। 5 अगस्त 2019 को धारा 370 में संशोधन करके उसे लगभग समाप्त कर दिया।
तकनीकि तौर पर कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करना असंभव है इसलिए उस धारा को बनाये रखते हुए उसमें ऐसे संशोधन किये गये कि अब उस धारा का कोई “महत्व” ही नहीं रह गया। किसी भी पहाड़ी क्षेत्र की तरह कश्मीरी भी अपना अलग अस्तित्व चाहते हैं। वो चाहते हैं कि उनकी जमीन, जनसंख्या और सभ्यता संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए। भारत के जितने पहाड़ी राज्य हैं हर जगह ऐसे प्रावधान किये गये हैं कि “बाहरी लोग” आकर उनकी जमीन का अतिक्रमण न कर सकें।
उत्तराखण्ड, हिमाचल और उत्तर पूर्वी राज्यों को धारा 371 के तहत अलग अलग प्रावधान करके उन्हें कुछ विशिष्ट अधिकार दिये गये हैं। कश्मीर में भी ऐसा ही प्रावधान 370 और संविधान के एनेक्सर 35 ए के तहत प्रदान किये गये थे। जनसंघ के समय से संघ समर्थित नेताओं ने इसका विरोध किया और भाजपा के गठन के समय तो उनके तीन सूत्रीय एजेंडे में एक एजंडा ये भी रहा कि कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करेंगे जो दो विधान, दो निशान (झंडा) और दो संविधान प्रदान करके जम्मू कश्मीर के भारत गणराज्य में संपूर्ण विलय को रोके हुए है।
2014 में प्रंचड बहुमत से केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद से सुगबुगाहट शुरु हो गयी थी कि अब पार्टी को अपने तीन सूत्रीय एंजेडे पर ध्यान देना चाहिए। 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर निर्माण या कश्मीर समस्या में से किसी एक का समाधान करने की योजना भी बनी थी। एक सभा में उस समय के भाजपा संगठन मंत्री रामलाल ने संकेत भी किया था कि कार्यकर्ता चिंता न करें “कश्मीर से कुछ अच्छी खबर मिल सकती है।”
उस समय तक ऐसी चर्चा थी कि केन्द्र सरकार 35 ए को समाप्त कर सकता है जो कि कश्मीर में जमीन खरीदने या सरकारी नौकरी पाने से बाहरी लोगों को रोकता है। इसके लिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत भी नहीं थी सिर्फ राष्ट्रपति के एक अध्यादेश से ये काम किया जा सकता था। लेकिन आम चुनाव बीत गया और 2019 के चुनाव में मोदी पहले से ज्यादा प्रचंड बहुमत से चुनाव जीतकर आये। रामलाल ने आम चुनाव से पहले विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं के सामने जिस अच्छी खबर की उम्मीद जताई थी कि वह अच्छी खबर आम चुनाव के बाद आयी।
पांच अगस्त को धारा 370 में संशोधन और 35 ए की समाप्ति का विधेयक पहले राज्यसभा में पारित किया गया और फिर लोकसभा में। इतना ही नहीं हुआ। लद्दाख और जम्मू कश्मीर को अलग अलग केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया गया। इस तरह स्वतंत्रता के बहत्तर साल बाद कश्मीर का भारत में संपूर्ण विलय हो गया। इस “संपूर्ण विलय” का घाटी में प्रतिक्रिया न हो इसकी व्यवस्था पहले ही कर ली गयी थी। पीडीपी और नेशनल कांफ्रेस के नेताओं को नजरबंद कर दिया गया। घाटी सहित जम्मू में भी कर्फ्यू लगाकर इंटरनेट बंद कर दिया गया।
लद्दाख की पुरानी मांग पूरी हो गयी थी इसलिए वहां इस निर्णय का स्वागत किया गया। कुछ महीनों की रोक टोक के बाद पहले जम्मू में और बाद में कश्मीर घाटी में स्थितियां “सामान्य” हो गयीं। कश्मीरियों के बारे में कही गयी कहावत को जानने के बाद हालात कितने सामान्य हुए यह कहना तो आज भी मुश्किल है लेकिन इतना जरूर है कि हिंसा आगजनी और पत्थरबाजी की घटनाएं उतने बड़े स्तर पर नहीं हुई जिसकी आशंका थी। इधर मोदी अपने मिशन कश्मीर पर आगे बढे और उन्होंने अपने विश्वासपात्र नौकरशाह गीरिश चंद्र मुर्मु को उपराज्यपाल बनाकर जम्मू कश्मीर भेज दिया।
बीते एक साल में केन्द्र सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि वह पाकिस्तान को इस मौके का फायदा उठाने से रोक सके और घाटी में व्यापक स्तर पर हिंसा और विरोध प्रदर्शन न होने दे। केन्द्र सरकार बहुत हद तक इसमें सफल भी रही लेकिन दूसरी चुनौती थी 370 को सीमित करने के बाद नयी कानून व्यवस्था बनाना और केन्द्र सरकार के कानूनों को शत प्रतिशत जम्मू कश्मीर में लागू करवाना। जम्मू कश्मीर में भारत सरकार द्वारा बनाये गये सारे कानून और प्रावधान लागू नहीं थे। मूर्मू इसी दिशा में काम कर रहे हैं और बीते एक साल में जो सबसे बड़ी उपलब्धि रही है वो है नयी डोमिसाइल नीति को लागू करना।
बंटवारे के समय पीओके से भागकर आये हिन्दू और सिख शरणार्थियों को भारत की नागरिकता इसलिए नहीं मिल सकी क्योंकि जम्मू कश्मीर में उनका निवास प्रमाणपत्र नहीं बना। इसी तरह पंजाब से गये अनुसूचित जाति के लोगों का भी जम्मू कश्मीर में निवास प्रमाणपत्र नहीं था जिसकी वजह से न तो वो वोटर थे और न ही जम्मू कश्मीर सरकार की नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते थे। नयी डोमिसाइल नीति के तहत अब तक जम्मू कश्मीर में चार लाख लोगों को निवास प्रमाणपत्र दिया जा चुका है।
इसमें सवा तीन लाख जम्मू और बाकी कश्मीर में निवास प्रमाणपत्र दिये गये। निवास प्रमाणपत्र पानेवालों में कश्मीर के दूसरी तरफ से आये शरणार्थी, गोरखा और पंजाब के दलित सहित कुछ सैन्य अधिकारी भी शामिल हैं। हालांकि जम्मू कश्मीर में नागरिकता प्रमाणपत्र पाने के लिए पंद्रह साल निवास को अनिवार्य किया गया है जिससे जम्मू कश्मीर में लंबे समय से रहते आ रहे लोग ही वहां के निवासी हो सकें। इससे कम से कम उस प्रोपेगेण्डा पर विराम लगेगा कि भारत सरकार कश्मीर की जनसांख्यिकी बदलना चाहती है।
लेकिन नयी डोमिसाइल नीति ही ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसे सालभर में अर्जित किया गया है। केन्द्र सरकार के सभी कानून अब जम्मू कश्मीर में प्रभावी हैं। उद्योग जगत के लिए जमीन आवंटित करने के नियम सरल किये गये। कश्मीरी पंडितों के लिए कालोनी बनाने के लिए जमीन आवंटित की गयी। जम्मू में तिरुपति देवस्थान बोर्ड को जमीन आवंटित की गयी। भ्रष्टाचार, आरक्षण और महिला सशक्तिकरण के कानून प्रभावी किये गये जो अब तक जम्मू कश्मीर में लागू नहीं होते थे। कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों को मिलनेवाली सरकारी सुविधाओं पर रोक लगायी गयी। विश्वविद्यालयों से राजनीतिक परिवारों का वर्चस्व समाप्त किया गया।
ऐसे और भी अनेक काम हैं जिन्हें जम्मू कश्मीर में किया जा रहा है। लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया और जम्मू कश्मीर को वापस राज्य का दर्जी मिलने में अभी समय लगेगा। भले ही अब्दुल्ला परिवार की नजरबंदी समाप्त हो गयी हो और अब्दुल्ला परिवार 370 पर चुप्पी साधे हुए है लेकिन इस चुप्पी को स्वीकारोक्ति समझना भूल होगी। भारत गणराज्य की मुख्यधारा में शामिल होने में अभी भी कश्मीर को लंबा समय लगेगा, लेकिन इतना अवश्य कह सकते हैं इस राह की सबसे बड़ी बाधा, सत्तर साल बाद ही सही समाप्त हो चुकी है।
(संजय तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)