हमारी आत्मा पर दस्तक देता है सोनम वांगचुक

योगेन्द्र यादव
मत-विमत Updated On :

हिमालय हमारे पास आया है, सोनम वांग्चुक के भेस में। उम्र है सिर्फ़ 5 करोड़ साल। हमारे लिए बुजुर्ग है, पहाड़ के लिहाज से युवा ही कहलायेगा। वो नन्हा सा बूढ़ा हमसे सवाल पूछता है। तुम मुझे सिर्फ पत्थरों और चट्टानों का ढेर समझते हो? तुम जिसे अपना संतरी मानते हो, उसकी आवाज सुनने और उसका दर्द जानने की तुम्हें फुर्सत है? जब मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ, तुम चंद सिक्के मेरी तरफ़ फेंक देते हो। तुम क्या हिमालय को ख़रीद सकते हो? तुम मुझे विकास सिखाना चाहते हो? विकास और विनाश का भेद पहचानते हो? दरअसल वो हमसे सवाल नहीं पूछ रहा। पौराणिक कथाओं का यह पात्र हमारी परीक्षा लेने आया है, हमे चेताने आया है, हमारी आत्मा पर दस्तक देने आया है।

सोनम वांग्चुक कोई ऐरा गेरा व्यक्ति नहीं है। आमिर ख़ान की फ़िल्म “थ्री इडियट्स” के किरदार की प्रेरणा भर नहीं है। सिर्फ़ शिक्षा में नवाचार का अग्रदूत नहीं है। केवल नई तकनीक ईज़ाद करने वाला अद्भुत इंजीनियर नहीं है। अपने इलाक़े और समुदाय की माँग उठाने वाला एक आंदोलनकारी भर नहीं है। सोनम वांगचुक वैकल्पिक विकास का चिंतक है, नवसृजन का वैज्ञानिक है। भारत की शान है और लद्दाख का गांधी है सोनम वांगचुक।

वही सोनम वांगचुक हमारे सामने वो मुद्दा रखता है, जो उसका अपना मुद्दा नहीं है। वहाँ के दोनों जनसंगठन अपैक्स बॉडी लेह और कारगिल डेमोक्रेटिक एसोसिएशन इस मुद्दे पर एकमत हैं। यह पूरे लद्दाख का मुद्दा है।एक ऐसा मुद्दा जिसका लद्दाख की प्रत्येक पार्टी समर्थन कर चुकी है, जिसका वादा बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो में किया गया था।इसलिए आज उसकी रिहाई को लेकर लेह का बौद्ध समुदाय और कारगिल का मुस्लिम समुदाय एकजुट हो गया है। पूरे लद्दाख का संकल्प है-सोनम वांगचुक नहीं तो केंद्र सरकार से बातचीत नहीं।

उस सोनम वांगचुक के ज़रिए हिमालय हमारे पूछता है: हमारी माँग में ऐसा क्या है जो संभव ना हो, संवैधानिक ना हो? जब संविधान से अनुच्छेद 370 को हटाया गया तो लद्दाख की जनता को यह आस बंधी थी की अब वो जम्मू और कश्मीर की गिरफ्त से बाहर निकल कर अपने भाग्य विधाता बन सकेंगे। इसी गलतफहमी के चलते सोनम वांग्चुक ने इस फैसले का खुले दिल से स्वागत किया, मोदी जी को बधाई भी दे डाली।

पिछले छह साल में केंद्र सरकार ने लद्दाख की जनता की आकांक्षाओं पर कुठाराघात किया। राज्य का दर्जा देने की बात तो छोड़िए, पुडुचेरी की तर्ज पर केंद्र प्रशासित प्रदेश को चुनी हुई विधान सभा देने से भी इंकार कर दिया। मतलब श्रीनगर के बेरुखी भरे राज से मुक्त हुए तो दिल्ली दरबार के औपनिवेशिक चंगुल में फंसे। लद्दाख की जनता लोकतंत्र माँगती है, दिल्ली दरबार पैसे फेंकता है। लद्दाख का युवा रोजगार माँगता है, सरकार योजनाओं के नाम गिनवाती है।

हिमालय बात को आगे बढ़ाता है: बाक़ी माँग छोड़ भी दो तो लद्दाख को भारत के संविधान की छठी अनुसूची के तहत लाने पर क्या एतराज़ हो सकता है? संविधान के इस प्रावधान के अनुसार केंद्र सरकार देश के किसी भी आदिवासी क्षेत्र में अपने स्थानीय फैसले करने के लिए एक स्वायत्त परिषद बना सकती है। जनता के द्वारा चुनी गई इस परिषद के प्रतिनिधियों को स्थानीय रस्मों रिवाज और प्राकृतिक संसाधनों का नियमन करने में बाहरी दख़ल से मुक्ति मिल जाती है। असम में बोडोलैंड और कार्बी आंगलोंग जैसे इलाक़ों में यह प्रावधान लागू हैं।

लद्दाख में इसे लागू करने से वहाँ के अलग अलग आदिवासी समुदाय को अलग अलग स्वायत्त परिषद मिल जायेंगी। उनके आपसी तनाव की गुंजाइश भी घट जाएगी। और स्थानीय संसाधनों पर बाहरी कब्जे का ख़तरा भी टल जाएगा। लेकिन केंद्र सरकार इस सवाल पर अड़ी हुई है। और उसकी जिद को देखकर लद्दाखियों का शक गहरा होता जाता है कि हो ना हो दिल्ली दरबार लद्दाख की ज़मीन कुछ बड़ी कंपनियों को सौंपने की तैयारी कर रहा है। विकास का सपना दिखा कर विनाश की तैयारी चल रही है।

हिमालय हमारे नजदीक आता है, प्यार से कहता है: कम से कम इतना तो मान लो कि पिछले छह साल से यह एक अहिंसक आंदोलन की मिसाल रहा है। लद्दाख के लोगों ने सरकार को ज्ञापन दिए, माइनस 20 डिग्री तापमान में धरना दिया, अनिश्चितकालीन उपवास किया, लेह से दिल्ली तक 1000 किमी की पदयात्रा की। लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। मानो सत्ता इस इंतज़ार में थी कि आंदोलनकारियों का धैर्य कब टूटे, और उसके बहाने कब उनपर टूट पड़ा जाय।

हैरानी इस बात की नहीं है की इस आंदोलन से निकल कर कुछ युवा हिंसक हो गए, हैरानी इस बात की होनी चाहिए कि छह वर्ष तक यह आंदोलन अहिंसक कैसे रहा। और नमन उस नेतृत्व को करना चाहिए जिसने उस हिंसा की आलोचना की हिम्मत दिखाई और आंदोलन को स्थगित करने का फैसला लिया।

हमारी पथराई हुई आँखों को देखकर हिमालय हँसता है, देखो तुम मुझे पत्थर कह रहे थे! चलो छोड़ो, बस इतना तो मान लो कि इन आंदोलनकारियों को अपराधी नहीं कहा जा सकता। बिना एक भी वीडियो का प्रमाण दिखाए सोनम वांगचुक पर हिंसा भड़काने का आरोप आकाश पर थूकने जैसी हरकत है। कारगिल युद्ध में और चीन के साथ हर भिड़ंत में भारतीय सेना के साथ कंधे से कंधा जोड़कर लड़ने वाले लद्दाखियों को देशद्रोही नहीं कहा जा सकता। मेरी सुरक्षा की चिंता छोड़ दो, राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता तो कर लो। ना जाने कबसे तुम अपने आप को देश का मालिक और बाक़ी सब को किरायेदार मानते रहे हो। पहले कश्मीर, फिर पंजाब, उसके बाद मणिपुर और अब लद्दाख-कितने सीमावर्ती इलाक़ों में अलगाव फैलाओगे, कहाँ कहाँ देश के प्रहरियों को देश का दुश्मन बनाओगे?

हिमालय धीरज नहीं खोता। बस जाते जाते हमे इशारा कर देता है-जो हिमालय का कहा नहीं समझते वो हिमालय का कहर झेलने को अभिशप्त होते हैं।

(योगेन्द्र यादव चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक चिंतक हैं)