देश का निर्माण सचिवालय में नहीं होता, अध्यापक करता है: प्रो.राजपूत


प्रो.जगमोहन सिंह राजपूत का नाम देश के प्रमुख शिक्षाविदों में शामिल है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के निदेशक रह चुके हैं। इसकेअतिरिक्त वे यूनेस्को सहित कई अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी जुड़े रहे हैं। केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति पर प्रो.जगमोहन सिंह राजपूत से अजित मिश्र की बातचीत का प्रमुख अंश :



प्रश्न : नई शिक्षा नीति से शिक्षा पर क्या सकारात्मक असर पड़ने वाला है?

प्रो. जेएस राजपूत : ये नीति करीब 34 साल बाद आई है। इसे बनाने में करीब पांच साल का समय लगाया गया है। पिछले 34 सालों में कितने बड़े परिवर्तन हमारे चारों तरफ हो गये हैं। और, शिक्षा का मूल उदेश्य होता है कि वह परिवर्तनों को दिशा दे। और जो आवश्यकताएं और अपेक्षाएं उभर रहीं हैं उनके अनुसार भी अपने को ढालती है। इस 34 साल में शिक्षा नीति को बहुत पहले आ जाना चाहिए था। लेकिन अब जो हमारे सामने नीति आई है वह गहन विचार-विमर्श के बाद आई है। लाखों लोगों की राय ली गई है। इसके लिए दो समितियां बनाईं गई थी। पहली सुब्रमण्यम और दूसरी कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में बनी। मेरी समझ में मैं भी एक सदस्य था। और, मैंने देखा कि लाखों लोगों ने पत्र लिखें, हजारों संस्थाओं ने पत्र लिखे। हर पंचायत से पूछा गया कि शिक्षा में क्या परिवर्तन होना चाहिए। इसमें कुछ चीजें विशेष रूप से निकली है, मैं उसका जिक्र करता हूं-

जैसे बस्ते का बोझ बहुत बढ़ रहा है। बच्चों पर बहुत तनाव होता था। परीक्षाओं को लेकर सारे देश में तनाव बढ़ जाता था, माता, पिता, बालक, शिक्षक सभी परेशान हो जाते थें। एक-एक अंक के लिए प्रतिस्पर्धा थी।परीक्षा से जो भय उत्पन्न होता था उससे हजारों बच्चे आत्महत्या कर लेते थे। ये बहुत बड़ी समस्या थी। इस नीति में कहा गया है कि हम बस्ते का बोझ कम करेंगे। हम परीक्षा को इस तरह से लाएंगे कि सिर्फ याद करना न रहे बच्चे सोचना प्रारंभ करें। हमारे यहां जो बड़े दार्शनिक हुए जो शिक्षा में हमें राय दी और जिन्हें हमें माना चाहिए। 

गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था-“हर बच्चे को भगवान दो बातें देता है। पहला, पावर ऑफ आइडिया और दूसरा पावर ऑफ इमेजिनेशन।”

यानी विचार की शक्ति और कल्पना की शक्ति। बच्चें कितनी कल्पनाएं करते हैं। हम सब अपने घरों में देखते हैं। लेकिन वो जब स्कूल जाते हैं तो बंधन में आ जाते हैं। उनको कहा जाता है तुमको यही पढ़ना है, यही लिखना है, यही किताब है, यही पाठ है, इसी में उत्तर देना है। अब ऐसा नहीं होगा। बच्चे पाठ पढेंगे लेकिन अब उसका उपयोग करना सिखाएंगे। सवाल पूछेंगे तो सिर्फ ये नहीं पूछेंगे कि प्रमेय क्या होता है बल्कि अब ये पूछेंगे उसका उपयोग कैसे होता है। बहुत बड़ा परिवर्तन होगा, बच्चों की विचारशक्ति बढ़ेगी। स़ोचने की शक्ति बढ़ेगी। जब ये दोनों चीज बढ़ती है, तो सक्रियता बढ़ती है, जिज्ञासा बढ़ती है उससे सर्जनात्मकता बढ़ती है। ऐसे बच्चे नवाचार में मन लगाते हैं, नई चीजों को खोजते हैं। स्कूल इसमें मदद करेंगे। 

प्रश्न: मशहूर शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी के नेतृत्व में गठित देश के प्रथम शिक्षा आयोग ने तकरीबन छह दशक पहले ही अपनी रपट में शिक्षा पर बजट का न्यूनतम छह फीसदी खर्च करने की अनुशंसा की थी, लेकिन हम उसे कभी हासिल नहीं कर पाए। अब जबकि, विगत सालों में शिक्षा के बजट में लगातार कटौती होती रही है। ऐसे में हम क्या शिक्षा में सुधार के लक्ष्य को पा सकते हैं?

प्रो. जेएस राजपूत : देखिए, जब कोठारी आयोग 1964-66 में बना था, उसके आधार पर पहली शिक्षा नीति 1968 में बनी थी। उसके बाद की शिक्षा नीति 1986 में बनी थी जो 1992 में देखी गई थी। कोठारी आयोग के बाद से ही यह विषय उठा है कि बजट का 6 फीसद शिक्षा पर खर्च होना चाहिए। लेकिन हुआ नहीं। अभी कुल 4.4 फीसद के आसपास हुआ है। इसमें राज्य और सबका मिलाकर है। देश जब स्वतं‌त्र हुआ था तब देश के सामने बड़ी समस्याएं थीं। ग़रीबी थी, भूखमरी थी, आज भी ये समस्याएं हैं। देश को अपनी प्राथमिकताएं स्थापित करने में ये सब देखना पड़ता है। ये माना जाता है कि शिक्षा में किया हुआ निवेश सबसे अधिक लाभांश देता है। लेकिन आदमी कर नहीं पाया है।

इस बार भी सरकार की तरफ से अपेक्षा की गई है कि ऐसा किया जाएगा। लेकिन आप जानते हैं कि किसी भी नीति का क्रियान्वयन इस बात पर निर्भर करता है कि उसके लिए अपेक्षित संसाधन हैं या नहीं है, और दूसरा जो लोग उसका क्रियान्वयन करेंगे उनका प्रशिक्षण कितना सही है, उनकी लगन कितनी है, उनकी कर्मठता कितनी है। विधि तो तभी सफल होगी जब प्राइमरी का अध्यापक ये समझे कि शिक्षा नीति में क्या कहा गया है। कैसे सवाल पूछें जाएंगे और वैसे सवाल कैसे बनाए जाएंगे, मूल्यांकन कैसे होगा, ये सब समझाना पड़ेगा।आपके सवाल का जवाब यही है कि संसाधनों की कमी रही है, हमारी सरकारी स्कूलों की ओर मैं विशेष रूप से कहता हूं, मैं वाक्य कहता हूं जिसे मैं हर बार दोहराता रहता हूं कि समेकित ओर समग्र विकास का रास्ता गांव के प्राइमरी स्कूल से होकर जाता है।

जब तक प्राइमरी स्कूल उस स्थिति में नहीं आएगा और जब तक माता-पिता विश्वास के साथ बच्चों को वहां नहीं भेजेंगे, ये स्थिति खत्म नहीं होगी कि जब तक हमारा सामर्थ्य निजी स्कूलों में भेजने का नहीं है तब तक सरकारी स्कूलों में भेजते हैं तब तक कोई भी बड़ी नीति पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाएगी। अतः मैं चाहूंगा कि राज्य सरकार, केंद्र सरकार सभी मिलकर सरकारी स्कूलों की स्थिति इतना सुधारें कि लोग अपने बच्चों को उसी ढंग से भेजने लगें जैसा कि 1955 से 1960 में था। हर जिले में सरकारी स्कूलों की ख्याति सबसे अधिक थी उसकी साख सबसे अधिक होती थी। और दुर्भाग्य है कि वो साख धीरे-धीरे कम हो गई।  

प्रश्न : कहा जा रहा है कि नई शिक्षा नीति से शिक्षा का निजीकरण बढ़ेगा और विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता खत्म हो जाएगी ?                             

प्रो. जेएस राजपूत : इतने सालों में जो स्थितियां बनी है इसमें करीब 45-48 फीसद बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ने लगे हूं। और उससे भी चिंताजनक स्थिति ये बनी है कि सरकारी स्कूलों में कमियां हर तरफ बढ़ती गई है। सरकारी स्कूलों को चलाना मुख्य रूप से राज्य सरकारों का काम है। केंद्र सरकार सहायता कर सकती है। समवर्ती सूची में आती है शिक्षा। इसलिए हमें ये कहना पड़ेगा कि राज्य सरकारें अध्यापकों की नियुक्तियां नहीं करती है या थोड़े से मानदेय पर उनकी नियुक्तियां करती है, अपना कर्तव्य नहीं निभा रही होती हैं। ये चीजें हर तरफ बढ़ती गई। हमारे पास ऐसे आंकड़े आते हैं कि 10 लाख, 12 लाख अध्यापकों के पद रिक्त हैं। यूपी और बिहार जैसे राज्यों में लाखों पद खाली है। इससे किसे नुकसान होता है, इससे समाज के सबसे कमजोर तबके को परेशानी होती है जिसको शिक्षा की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता  को पूरा करने के लिए सबसे पहली जरूरत है कि राज्य सरकारें शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को उचित ढंग से चलाए।
हमें बहुत सारे सरकारी संस्थान मिले हैं जहां बीएड और एमएड का शिक्षण होता है। वहां अध्यापक ही नहीं नियुक्त होते हैं, जहां डेपुटेशन पर लोगों को राजनीतिक कारणों से लाकर रख दिया जाता है जो पढ़ाते हैं। शिक्षा के गुणवत्ता के आधार पर हर क्षेत्र में गुणवत्ता बढ़ती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, हमें उस शिक्षा का कोई मतलब नहीं है जो मनुष्य का चरित्र निर्माण नहीं करती हो। जो मानवीय मूल्य नहीं सीखाती हो। ये कहां सीखाया जाता है अध्यापक जहां प्रशिक्षित होते हैं वहीं सीखाया जाता है। जब एक चरित्रवान अध्यापक स्कूल में होता है, पढ़ाता है। पढ़कर के पढ़ाता है, बच्चों से प्यार करता है तो निश्चित तौर पर चाहे ये बच्चे इंजीनियर बने, डॉक्टर बने या नेता बनें ये भी ईमानदार होंगे। देश में अच्छा वातावरण बनाने के लिए भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के लिए सबसे बड़ा केंद्र शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान हैं। अगर वहां के अध्यापक संतुष्ट हों, कर्मठ हों, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति राज्य सरकार और केंद्र सरकार करे तो प्रभाव सारे देश पर पड़ेगा।

1966 में शिक्षा आयोग की रपट का शीर्षक था – एजुकेशन फार नेशनल डेवलपमेंट यानी राष्ट्रीय विकास के लिए शिक्षा। करीब 25 साल बाद डॉ. कोठारी से पूछा गया कि यदि आप फिर से अध्यक्ष हो जाए और आपको नीति बनानी पड़े तो आप क्या परिवर्तन करेंगे तो कोठारी ने कहा, मैं उसका शीर्षक बदल दूंगा। अब नई रपट के लिए शीर्षक रखूंगा “चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा”। लोगों ने पूछा क्या फर्क है। कहा कि फर्क यह है कि 1960 के आसपास जो हमारे देश में शासन कर चुके थे वे फिर से किसी तरह देश में शासन स्थापित करना चाह रहे थे, तो वो हमें कहते थे कारखाने लगाओ, बांध बनाओ ये सब उनकी राय से हुआ करती थी। वो हमें सहायता भी देते थे, विशेषज्ञ भी देते थे और विचार भी देते थे।

डॉ. कोठारी ने कहा, अगर उस समय हम लोग ऐसी नीति बनाई होती कि बच्चों का चरित्र निर्माण करेंगे तो हमारा भाखड़ा नांगल बांध बनता दस साल बाद, बोकारो स्टील प्लांट थोड़ी देर में बनता। लेकिन जो इंजीनियर बनता वो जीवन भर ईमानदारी से काम करता। जो डॉक्टर बनता वो कमीशन नहीं लेता। गांधी जी कहते थे जो व्यक्ति अंतिम पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़ा है, उसके प्रति उनके मन में सहानुभूति होती। इस नीति में ये कहा गया है कि हर बच्चा 10 दिन तक किसी कारीगर के साथ प्रशिक्षण लेगा। गांव का हो शहर का हो वो जाएगा और प्रशिक्षण लेगा। जाएगा यदि लकड़ी का काम हो तो उसको 10 दिन ही करेगा, ऐसा दुनिया के तमाम देशों में किया गया है। इससे बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ जाता है। भले वह वकील बन जाए, वह हाथ से भी कुछ कर सकता है।  

दुनिया में जापान जैसे देश जो द्वितीय विश्व युद्ध में अपमानित और ध्वस्त देश थे, वे कैसे आगे बढ़ें,अच्छी शिक्षा नीति के कारण आगे बढ़े। उन्होंने अपने बच्चों को कहा, हम कहां से चलकर आये थे हम सबसे खराब थे। आज दुनिया का सबसे अच्छा प्रोडक्ट जापान का होता है। कैसे हुआ ? मैं वहां जाता था और पूछा, तो पता चला उन्होंने अपने स्कूलों पर ध्यान दिया।

देश का निर्माण सचिवालय में नहीं होता है, देश का निर्माण अध्यापक करता है। तो वो व्यक्ति बनाता है, चरित्र बनाता है। इस शिक्षा नीति में मानवीय मूल्यों की बात की गई है, भारत की संस्कृति से जुड़ने की बात की गई है, ये भी कहा गया है कि हर देश की शिक्षा व्यवस्था की जड़ें उस देश की मिट्टी में जानी चाहिए। जो पाठ पर्यावरण का चौथा में पढ़ाना है वह तीसरी में नहीं पढ़ा सकता। क्योंकि मेरा देश बहुत फैला हुआ है, बहुत बिखरा हुआ है, उसकी एकता को हमें बच्चे को समझाना है। सबसे बड़ी बात बच्चों को ये सीखाना है जो इस शिक्षा नीति में है-लर्निंग टू लिव टूगेदर। मेरे बगल में जो साथी बैठा है अगर मैं उसके घर के बारे में भी जानता हूं और सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता की बात हर जगह है, इससे क्या होगा सबके प्रति एक जुड़ाव पैदा होगा। 

प्रश्न: देश में एक कॉमन स्कूल सिस्टम (सीएसएस) की मांग लंबे समय से हो रही है। नई शिक्षा नीति क्या देश के सभी बच्चों के लिए मातृभाषा में शिक्षा एवं समान गुणवत्ता की शिक्षा सुनिश्चित करेगा?

प्रो. जेएस राजपूत: जो लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं उनको सोचना चाहिए कि ये पिछले छह सालों में नहीं बढ़ा है। ये कितने सालों में बढ़ा है, इस पर ध्यान देना चाहिए। अगर इसको रोकना था तो एक काम 1955,1960,1965 तक होना चाहिए था। उस समय तो हमनें निजी स्कूलों को बढ़ने दिया। वो समय था कि हर बच्चे को मातृ भाषा में शिक्षा दी जाएगी। जापान, जर्मनी, रूस में शिक्षा मातृभाषा में होता है। बड़े देशों में हम एकमात्र देश हैं जहां शिक्षा मातृभाषा में नहीं है। हमारी बड़ी-बड़ी भाषाएं हैं उनमें अच्छा-अच्छा साहित्य है विश्व प्रसिद्ध साहित्य है। तमिल, तेलुगु, मराठी सब में ऐसा है। कोई भी भाषा आप ले लीजिए। हमनें अपनी भाषाओं पर ध्यान नहीं दिया।

देश में अंग्रेजों के द्वारा स्थापित जो वर्ग था वो अपना वर्चस्व बनाने के लिए प्रारंभिक सालों में एक ऐसी गति पैदा कर दी कि हर बच्चे को लगता है कि अंग्रेजी पढ़ना जरूरी है। सरकारी नौकरियों में उस समय करना चाहिए था हर बच्चा जो मातृभाषा में पढ़कर आता है हम उसे भी स्वीकार करेंगे। हम उसे बैठाकर छह माह में अंग्रेजी सीखा देंगे। दुनिया में ऐसे बहुत से देशों में हो रहा है।

मैं वियतनाम गया था वहां छह महीने में अंग्रेजी, तीन महीने में अंग्रेजी के बोर्ड लगे थे। मैंने पूछा, तो बताया कि शिक्षा मातृभाषा में देते हैं लेकिन तीन महीने में काम लायक अंग्रेजी सीखा देते हैं। वो हमनें किया नहीं। अब प्रवाह तेज हो गया है, निजी स्कूल इतने ज्यादा हो गये हैं। लोगों की इच्छाएं इतनी बढ़ गई हैं कि इसको रोक पाना संभव नहीं है। दूसरी बात, सरकार सारी शिक्षा का खर्च नहीं उठा पाएगी ये सब जानते हैं। इसलिए एक ही विकल्प बना है कि निजी स्कूल किसी तरह का शोषण नहीं कर सके, इसको व्यापार न बना सकें और सरकार इसको देखें। सरकार दूसरा काम ये करें कि सरकारी स्कूलों का स्तर ऊंचा उठाए, उनका साख बढ़ाए और इस स्थिति में लाए की लोग अपने बच्चों को वहां मन से भेजने लगे। मजबूरी में न भेजें। 

प्रश्न :नई शिक्षा नीति में 3 से 18 साल के छात्रों के लिए 5+3+3+4 का डिजाइन तय किया गया है। और नया पाठ्यक्रम भी लागू होगा, इसके क्या लाभ होंगे ?                                

प्रो. जेएस राजपूत: पाठ्यक्रम नया बनना है। पाठ्यक्रम तो 2005 में बना था वो राजनीतिक कारणों से बना था। जो साल 2000 में बना था उसे हटाना था। ये दुर्भाग्य है कि पाठ्यक्रम अब तक नहीं बदला है। जो बार-बार बदलना चाहिए दुनिया भर में बदलता है। मैं समझता हूं कि शिक्षा नीति के आने के बाद इसे गति मिलेगी। बस्ते का बोझ कम करने के दौरान जो अनावश्यक चीजें बच्चों को पढ़नी पड़ती थी उसको खत्म किया जाएगा। निश्चित तौर पर अब जो नया पाठ्यक्रम बनेगा उसमें बच्चे को सीखाया जाएगा कि आगे कैसे सीखना है। स्वाध्याय पर जोर होगा। लर्निंग टू लर्न पर जोर होगा। यानी अपने ज्ञान को कैसे बढ़ा सकता हूं।

एक उदाहरण देता हूं, एक जमाना था टाइपराइटर सीखते दें और 35-40 साल उसी पर काम करते थे। आज जो मोबाइल पांच साल पहले इस्तेमाल होता था वो अब कोई इस्तेमाल नहीं करना चाहता । कितना बदल जाता है। ये मोबाइल उस मोबाइल से कितना कौशल बढ़ा सकता है। इसलिए हम कितना सीख सकते हैं कितना कौशल बढ़ा सकते हैं। स्कूलों में ये करना पड़ेगा मैं नया ज्ञान कहां से ले सकता हूं। आशा की किरण ये है कि हमारे बच्चे इन सब को अच्छे से स्वीकार कर रहे हैं। समझ रहे हैं अभी भी, जब स्कूल बंद है। तो यह बहुत ही आश्चर्यजनक घटना हुई है कि चारों तरफ बच्चा और अध्यापक आनलाइन टीचिंग लर्निंग में प्रवीण हो गये हैं।

इस शिक्षा नीति का प्रभाव बहुत ही सकारात्मक पड़ेगा ऐसा मेरा विश्वास है। हमें इसमें सकारात्मकता ढूंढ़नी पड़ेंगी, जो नकारात्मक ढूंढ़ेगे हम उन्हें उनका काम करने देंगे। हम अध्यापकों को प्रशिक्षित होने के अवसर दें, उन्हें प्रेरणा दें, उनके साथ काम करेंगे तो निश्चित तौर पर बहुत आगे तक उनके साथ काम कर सकेंगे। सुधार तो हमेशा होते रहते हैं। शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है, कोई भी नहीं कह सकता की आज की पुस्तक आगे पांच साल छह साल चलेगी। बदलना ही पड़ेगा, कंप्यूटर की जो किताब लिखी जाती है, आज से दस साल पहले जो किताब लिखी गई थी आज वो‌ किसी काम की नहीं रह गई है। मैं यही कहना चाहूंगा कि हर व्यक्ति को नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में योगदान देना चाहिए। 

प्रश्न: स्कूली शिक्षा औऱ उच्च शिक्षा दोनों में बदलाव के लिए, माध्यम, पाठ्यक्रम और संसाधन तीनों की जरूरत है। नई शिक्षा नीति में क्या इस संकट को हल करने की कोशिश की गई है? 
प्रो. जेएस राजपूत: बहुत सी चीजें शुरू हो गई है जैसे पाठ्यक्रम बनाने की बात शुरू हो गई है। नई नियामक संस्थाएं जैसे यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन, एआईसीटीई इनके बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।  प्रशिक्षण की योजनाएं बन गई है। बहुत सी चीजें तो अभी शुरू हो जाएंगी। कुछ लक्ष्य रखें गये हैं जैसे-50 फीसद बच्चे उच्च शिक्षा में आ जाए। ऐसे ही नीतियां बनती हैं और धीरे-धीरे उनका क्रियान्वयन होता है।