2020 बिहार विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बड़ी सफलता नहीं


भाजपा इस सच्चाई से वाकिफ है कि महाराष्ट्र जैसी स्थिति बिहार की नहीं है। नीतीश भले ही वोटों के बिखराव के कारण सीटों की संख्या में पीछे रह गए हैं, लेकिन नीतीश भाजपा से अपने कोर वोटर को लेकर अधिक मजबूत है। भाजपा को सामाजिक आधार बढ़ाने के साथ-साथ अपने कोर वोटरों जोड़े रखना भी एक चुनौती हैं।



बिहार में बीजेपी को विधानसभा चुनाव 2020 में शानदार सफलता मिलने के बाद बीजेपी नेता-समर्थक यह बताने से गुरेज नहीं कर रहे है कि “मोदी है तो मुमकिन है।” पिछले एक दशक पूर्व के चुनावी परिणामों को देखे तो इस नारे में बहुत हद तक सच्चाई दिखाई देती नजर नहीं आती। भले ही एनडीए को कांटे की टक्कर के बीच सरकार बनाने में सफलता मिल गई हो, लेकिन राजद सबसे बड़ी पार्टी (76) बनकर उभरी है।

फिर भी इन चुनावों में सर्वाधिक लाभ में भाजपा रही जिसे (74 ) सीटें मिली है जो पिछले चुनाव (53) से काफी अधिक है। वहीं उसकी सहयोगी जेडीयू को सबसे अधिक नुकसान हुआ है जिसकी सीटें 71 से घटकर 43 रह गई।

2010 में 85 फ़ीसदी सीटों पर कब्जा जा रहा एनडीए का

एनडीए भले जोड़-तोड़ कर सत्ता में आ गई, लेकिन इसका प्रदर्शन एक दशक पूर्व (2010 ) जैसा नहीं रहा। 2010 के विधानसभा चुनाव में एनडीए से बीजेपी 102 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें बीजेपी 91 सीटों पर विजयी रही। जिसके जीत का स्ट्राइक रेट 92.8 प्रतिशत था। वहीं जेडीयू 141 सीटों पर चुनाव लड़ी, जिसमें 115 सीटों पर जीत मिली। जेडीयू का भी प्रदर्शन बेहतर रहा।

एनडीए 2010 में बिहार में 206 सीट जीतकर करीब 85 फ़ीसदी सीटों पर कब्जा कर लिया था। वहीं 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा और जेडीयू के अलग-अलग होने से भाजपा मात्र 53 सीटों पर सिमट कर रह गई, जबकि जेडीयू महागठबंधन से चुनावी मैदान था। जिसमें जेडीयू को 71 सीट, राजद 81 वो कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत मिली।

2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए का कोई खास प्रदर्शन नहीं रहा। भले ही बीजेपी जेडीयू को लंगी मारकर 74 सीट पाने में सफल हो गयी। बीजेपी जेडीयू से छोटे भाई की भूमिका से बड़े भाई की भूमिका में आ गई। जहां 2010 में बीजेपी का सीट जीतने का स्ट्राइक रेट 92 प्रतिशत था, वहीं 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का सीट जीतने का स्ट्राइक 67 प्रतिशत हो गया।

दूसरी ओर बीजेपी के सहयोगी जेडीयू के सीट जितने का स्ट्राइक रेट 37 प्रतिशत ही रह गया। हालांकि 2000 से ही अपनी सीटों की संख्या में बढ़त बनाई हुई थी। 2000 में जडीयू को 42, फरवरी 2005 में 55 वो अक्टूबर 2005 में 88, 2010 में विधानसभा चुनाव में जेडीयू एनडीए में114 सीट जीतने में सफल रही।

“मोदी है तो मुमकिन है” का मैजिक बहुत हद तक सही नहीं

“मोदी है तो मुमकिन हैं” के मैजिक को बहुत हद तक सही नहीं कहा जा सकता। भले ही मोदी के शौचालय, घरेलू गैस कनेक्शन जैसी योजनाओं के कारण महिलाओं का एक तबका एनडीए को विजय दिलाने में सफल कारगर हुई। लेकिन एनडीए में बीजेपी को बड़े भाई की भूमिका में लाने का श्रेय चिराग पासवान को ही दिया जा सकता हैं।

एनडीए से अलग होकर चिराग पासवान मोदी के हनुमान बनकर अकेले करीब 125 से 30 सीटों पर चुनावी मैंदान में डटे रहे, जिसमें जेडीयू वीआईपी वो हम के उम्मीदवार जहां से थे, वहां से चिराग ने अपने उम्मीदवार को उतार दिए थे। जिससे जेडीयू को 30 से 35 सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा।

लोजपा ने अपने अधिकांश सीटों पर ऊंची जातियों के उम्मीदवार या एनडीए से टिकट नहीं मिलने से नाराज कद्दावर नेताओं को चुनावी मैदान में उतार दिया था। जिससे लोजपा, बीजेपी सवर्ण वोटबैंक में सेंध लगाने में काफी हद तक सफल हुई। इस तरह भी सवर्णों की थोड़ी बहुत नाराजगी नीतीश कुमार से थी।

जेडीयू के सामने विकल्प के रूप में सवर्ण मतदाताओं को लोजपा उम्मीदवार मिले तो सवर्णों ने लोजपा में अपने मतों का ट्रांसफ़र कर दिया। जेडीयू को जिस 43 सीटों पर जीत मिली है, उसमें अधिकांश सीटों पर जेडीयू बहुत कम अंतर से चुनाव जीती है। इससे स्पष्ट होता है कि मोदी का “मोदी है तो मुमकिन है” का नारा बीजेपी के वोटों के बिखराव को नहीं रोक सका, जिसका खमियाजा जेडीयू को भुगतना पड़ा।

नीतीश के वोटरों से भाजपा को मिली बड़ी सफलता

भाजपा के सामने लोजपा जैसा कोई विभीषण नहीं था। जिसका फायदा भाजपा को एनडीए में नंबर एक की पार्टी होने के तौर पर मिला। भाजपा को 53 से 74 के आंकड़े तक पहुंचाने में कई फैक्टर काम कर रहे थे। एक फैक्टर तो चिराग था ही, दूसरा नीतीश कुमार के वोटों का बिखराव ना होना सबसे बड़ा कारण था।

इस चुनाव में नीतीश के कोर वोटरों (अति पिछड़ा, महादलित) के करीब 25 से 30 प्रतिशत वोटों का बिखराव कतई नहीं हुआ है। नीतीश के वोटर चिराग के झांसे में ना आकर सीधे तौर पर अपना 90 से 95 फीसदी वोट एनडीए समर्पित उम्मीदवारों को दिया है, जिसका फायदा सीधे तौर पर बीजेपी को मिला है।

नीतीश का चौथी बार मुख्यमंत्री बनना ही उनके सुशासन की छवि को दर्शाता है। जो चुनावी पंडित नीतीश कुमार को सत्ता विरोधी लहर के कारण कमजोर मान रहे थे, उन्हें देखना चाहिए कि ऐसी कोई लहर प्रभावी नहीं साबित हुई नीतीश सरकार के काम के कारण भी। 15 साल मुख्यमंत्री रहने के बावजूद भी नीतीश पर कोई गंभीर आरोप नहीं लगा है।

हर चुनावी सभा में भाजपा वो खुद प्रधानमंत्री मोदी नीतीश कुमार को एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर प्रस्तुत किया गया। चुनाव जीतने के बाद भी भाजपा, नीतीश के कम सीट आने पर भी सहज तरीके से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार मानने पर तैयार हो गयी।

वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना भी भाजपा से कम सीट लायी थी, शिवसेना मुख्यमंत्री पद अपने पास रखना चाह रही थी। लेकिन भाजपा वहां मुख्यमंत्री पद देने को तैयार नहीं हुई। अंतत शिवसेना और भाजपा के बीच दशकों पूर्व का गठबंधन टूट गया।

भाजपा इस सच्चाई से वाकिफ है कि महाराष्ट्र जैसी स्थिति बिहार की नहीं है। नीतीश भले ही वोटों के बिखराव के कारण सीटों की संख्या में पीछे रह गए हैं, लेकिन नीतीश भाजपा से अपने कोर वोटर को लेकर अधिक मजबूत है। भाजपा को सामाजिक आधार बढ़ाने के साथ-साथ अपने कोर वोटरों जोड़े रखना भी एक चुनौती हैं।