बिहार विधानसभा में प्रचार तेज हो गया है। अब सारे दल वर्चुअल रैली के बजाए सीधे जनता से रूबरू होने की कोशिश कर रहे है। इस बीच जहां एनडीए गठबंधन में तनाव बढ़ा हुआ है।भाजपा की चिंता भी बढ़ी हुई है। दरअसल भाजपा की चिंता सिर्फ नीतीश कुमार नहीं है। भाजपा नीतीश कुमार को हाशिए पर लाना चाहती है। भाजपा चाहती है कि नीतीश कुमार भाजपा से कम सीटें हासिल कर सके। लेकिन भाजपा की चिंता दूसरे फ्रंट पर है। बिहार में दक्षिणपंथी राजनीति को मजबूत कर रही भाजपा की चिंता इस बार बढ़ गई है। वामपंथी दलों का एक मोर्चे पर आना ही भाजपा के लिए चिंता का विषय है।
भाजपा की दूसरी बड़ी चिंता सीपीआई-एमएल जैसी पार्टियों का राजद से गठबंधन होना भी है। वहीं सीपीएम और सीपीआई का भी सीपीआई-एमएल के साथ एक गठबंधन के अंदर आना भाजपा को रास नहीं आ रहा है। दरअसल बिहार की वामपंधियों पार्टियों में आपसी टकराव लंबे समय से है। बिहार में सक्रिय तीनों वामपंथी पार्टिंयों का प्रभाव बेशक कम है, लेकिन कुछ इलाकों में इनका प्रभाव राजद और कांग्रेस को लाभ दिला रहा है। सीपीआई-एमएल का जहां दक्षिण पश्चिम बिहार के कुछ जिलों मे प्रभाव है, वहीं सीपीआई का प्रभाव बेगूसराय समेत उतर बिहार के कुछ जिलों में है।
वामपंथी दलों के साथ राजद के गठबंधन पर कई कयास है। एक कयास यह है कि कांग्रेस के दबाव में तेजस्वी यादव ने वामपंथी दलों को महत्व दिया। दूसरा कयास यह है कि वामपंथी विधायक विचारधारा के प्रति समर्पित रहते है। अगर वामपंथी विधायक जीतकर आएंगे और बाद में तोड़फोड़ की स्थिति पैदा होगी तो इन विधायकों को तोड़ना आसान नहीं होगा। कांग्रेस और राजद के बड़े नेता इस बात को स्वीकार करते है कि महागठबंधन से बाहर गए उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी के कुछ विधायक अगर महागठबंधन में जीतकर आते तो एनडीए के लिए उन्हें तोड़ना आसान होता। वैसे सलाह जिसकी भी रही हो तेजस्वी यादव और लालू यादव ने इस बार समझदारी भरा फैसला लिया है।
राजद ने संकेत दिया है कि बिहार में राजद वामपंथी दलों के साथ सहयोग की राजनीति करेगी। 1990 के दशक में वामपंथी दलों का लालू यादव के साथ गठबंधन था। लेकिन बाद में लालू यादव ने वामपंथी दलों के आधार वोट को उड़ा लिया। वामपंथी दल हाशिए पर आ गए। बिहार में वामपंथी दल लंबे समय से अपने आधार को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे है। इस बार चमत्कारिक रूप से लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव ने उपेंद्र कुशवाहा के रालोसपा और मुकेश सहनी के विकासशील इंसान पार्टी की कीमत पर वामपंथी दलों को चुनाव लड़ने के लिए गठबंधन में 29 सीटें दी है।
हालांकि तेजस्वी यादव ने वामपंथी दलों के सीट आंवटन में खेल किया है। सीपीआई के कन्हैया कुमार के कद को कमजोर रखने के लिए गठबंधन में सीपीआई के लिए मात्र 6 सीटें छोड़ी गई। हालांकि बिहार में कन्हैया कुमार तेजस्वी के लिए चुनौती नहीं है। लेकिन तेजस्वी यादव अंदर खाते कन्हैया कुमार से खौफ खाते है। उनके करीबी बुद्धिजीवी सहयोगियों ने उन्हें समझा रखा है कि भविष्य में कन्हैया कुमार बिहार के मुख्यमंत्री के दावेदार बन सकते है। इसलिए उन्हें एक सीमा से ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है।
2019 के लोकसभा चुनाव में तमाम कोशिशों के बावजूद लालू यादव की पार्टी ने बेगूसराय से कन्हैया कुमार के खिलाफ उम्मीदवार उतार दिया था। जबकि अंतिम समय तक लालू यादव से कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बेगूसराय सीट छोड़ने की अपील करते रहे। वैसे भी बिहार का जातीय समीकरण भूमिहार जाति के कन्हैया कुमार को मुख्यमंत्री उम्मीदवार नहीं बनने देगा।
बिहार की राजनीति में जाति एक कटु सच्चाई है। लेकिन तेजस्वी यादव का भय इसके बावजूद कन्हैया को लेकर खत्म नहीं हुआ। उन्होंने कन्हैया पर नकेल कसे रखने के लिए सीपीआई-एमएल के लिए 19 विधानसभा सीटें चुनाव लड़ने के लिए छोड़ दी है। वहीं बिहार में सीपीआई के मुकाबले कमजोर सीपीएम को भी सीपीआई के 6 सीटों के मुकाबले सीपीएम को 4 सीटें चुनाव लड़ने के लिए दे दिया है। सीट बंटवारे में तेजस्वी यादव ने यही संकेत दिया गया कि कन्हैया कुमार पर वे सीपीएम और सीपीआई-एमएल के माध्यम से कंट्रोल रखना चाहते है।
हालांकि यह एक माइक्रो लेवल का राजनीतिक विश्लेषण है। लेकिन भाजपा की बिहार में चिंता यह है कि अगर वामपंथी दलों के 15 उम्मीदवार और कांग्रेस के 30 उम्मीदवार भी चुनाव जीतने में कामयाब हो गए तो यह बिहार की राजनीति में परिवर्तन के संकेत होंगे। अभी बिहार में मुकाबला कांटे का नजर आ रहा है। अगर एनडीए गठबंधन को बहुमत नहीं मिला और सरकार नहीं बनी तो महागठबंधन की सरकार बनेगी।
महागठबंधन को बहुमत मिलने के बाद तेजस्वी यादव अगर मुख्यमंत्री बन भी गए तो उनपर वामपंथी दल और कांग्रेस नकेल डालकर रखेंगे। तेजस्वी स्वतंत्र रूप से काम तभी कर पाएंगे जब उनकी पार्टी राजद खुद कम से कम 100 सीटें हासिल कर ले। इसकी संभावना काफी कम दिख रही है। अगर राजद की सीटें 60 से 70 के बीच रहेगी तो वामपंथी दलों और कांग्रेस पार्टी पर उनकी निर्भरता बढ़ेगी। दरअसल इस बार कांग्रेस ने तेजस्वी यादव से 70 सीटें लेकर बिहार में अपने राजनीतिक वजूद को स्थापित करने की कोशिश की है। वहीं वामपंथी दलों को भी महागठबंधन में सम्मानजनक सीटें मिल गई है।
राजनीतिक विश्लेषकों को एक और आश्चर्य हो रहा है। तेजस्वी यादव ने अपने पिता लालू यादव के खास, सिवान के पूर्व सांसद शाहाबुद्दीन को इस बार नजरअंदाज किया है। शाहाबुददीन के इलाके सिवान में तेजस्वी यादव ने शहाबुद्दीन के विरोधी सीपीआई-एमएल को खासा तव्वजो दिया है। इस इलाके के दरौली, जीरादेई और दरौंदा सीट तेजस्वी यादव ने सीपीआई-एमएल को चुनाव लड़ने के लिए दे दी है। इसमें से सिर्फ दरौली सीट पर अभी सीपीआई-एमएल का विधायक है।
दरअसल सिवान में लंबे समय से शाहाबुद्दीन और सीपीआई-एमएल के बीच संघर्ष रहा है। सीपीआई-एमएल के नेता चंद्रशेखर की हत्या के बाद इस इलाके में शाहाबुद्दीन के साथ सीपीआई-एमएल का तनाव काफी बढ़ गया। सीपीआई-एमएल को सिवान में ज्यादा महत्व से शाहाबुद्दीन के समर्थक भी परेशान है। इस इलाके में शाहाबुददीन के आतंक के कारण तेजस्वी यादव के समर्थक यादव मतदाता भी भाजपा के खेमें में चले गए है। इस सच्चाई को तेजस्वी यादव समझते है।