तेजस्वी को चिराग ने जिताया और भाजपा को ओवैसी ने ?


गोह, औरंगाबाद, हिसुआ, विक्रम, तरारी, अरवल जैसी कई विधानसभा सीटों पर जहां लोजपा का उम्मीदवार नहीं था वहां भाजपा हार गई है। भाजपा को कई शहरी सीटों पर जोरदार टक्कर मिली है। आखिर इस सच्चाई को क्यों दबाया जा रहा है?


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
बिहार चुनाव 2020 Updated On :

बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद अलग-अलग नजरिए से विश्लेषण हो रहा है। विश्लेषणों में कई सच्चाइयों को छुपाया जा रहा है। कई तथ्यों को अलग-अलग तरीके से पेश किया जा रहा है। न्यूज चैनलों पर एनडीए की जीत का डंका बज रहा है। एनडीए की बहुमत को कोरोना से निपटने में केंद्र सरकार की सफलता का परिणाम भी बताया जा रहा है। वेसे तो चुनाव परिणामों की समीक्षा करें तो बिहार में कांटे की टक्कर हुई है। कड़ा मुकाबला हुआ है। लेकिन बिहार चुनाव में भाजपा की भारी जीत हुई है, का नैरेटिव बनाया जा रहा है।

भाजपा से 1 सीट ज्यादा लेने के बाद भी तेजस्वी यादव को मिली सीटों को चिराग पासवान की मेहरबानी बतायी जा रही है। हालांकि अगर इसी लाइन पर परिणामों की समीक्षा होगी तो एक दूसरी सच्चाई भी सामने आएगी। दूसरी सच्चाई यह है कि भाजपा को तीसरे चरण में मिली सफलता के पीछे ओवैसी की पार्टी है। नीतीश और कांग्रेस की सीटें क्यों घटी, इसके भी अलग-अलग कारण बताए जा रहे है। लेफ्ट पार्टियों के अच्छे प्रदर्शन पर चुप्पी है।

एक दिलचस्प नैरेटिव चिराग पासवान और नीतीश कुमार को लेकर बनाया जा रहा है। नैरेटिव बनाया जा रहा है कि अगर चिराग पासवान की लोजपा नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं करती तो तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को 30 सीटों का नुकसान होता। इस नैरेटिव में कुछ हदतक ही सच्चाई है। लेकिन एक दूसरी सच्चाई को जानबूझ कर नजर अंदाज किया जा रहा है। आखिर पहले चरण में भाजपा अपनी कई महत्वपूर्ण सीटें क्यों हार गई, जहां चिराग पासवान ने उम्मीदवार नहीं ख़ड़ा किया था ?

गोह, औरंगाबाद, हिसुआ, विक्रम, तरारी, अरवल जैसी कई विधानसभा सीटों पर जहां लोजपा का उम्मीदवार नहीं था वहां भाजपा हार गई है। भाजपा को कई शहरी सीटों पर जोरदार टक्कर मिली है। आखिर इस सच्चाई को क्यों दबाया जा रहा है ? एक सच्चाई यह भी है कि एनडीए गठबंधन को जोरदार सफलता तीसरे चरण में मिली। पहले चरण की 71 सीटों पर हुए चुनाव में महागठबंधन ने 47 सीटें जीती। पहले चरण में जिन इलाकों में चुनाव हुआ वो इलाका एनडीए का गढ़ था। दूसरे चरण में भी 94 सीटों पर चुनाव हुआ और महागठबंधन 42 सीटे जीतने में सफल रहा।

लेकिन महागठबंधन तीसरे चरण में बुरी तरह से हारा। कुल 78 सीटों पर हुए तीसरे चरण में चुनाव हुआ। इस चरण में महागठबंधन को मात्र 21 सीटें मिली। तीसरे चरण में मिथिलांचल और सीमांचल के इलाके में चुनाव हुआ था। यहां ओवैसी की पार्टी ने महागठबंधन को जोरदार चोट मारी। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। मुस्लिम मतदाता ने इस इलाके में ओवैसी की पार्टी को वोट दिया। इसका लाभ सीधा एनडीए को मिला। एनडीए ने तीसरे फज में 52 सीटें जीती है।

बिहार विधानसभा चुनाव में मुस्लिम-यादव समीकरण में आंशिक रूप से टूटा है। तीसरे फेज में मुस्लिम वोटर विभाजित हो गया। वैसे में सवाल यह भी है कि महागठबंधन को यादवों के अलावा और किन जातियों का वोट मिला ? निश्चित तौर पर महागठबंधन ने इस बार एनडीए के वोट बैंक में सेंध लगायी है। महागठबंधन को महादलित वोटों में भी हिस्सा मिला है। ऊंची जातियों के वोट बैंक में भी महागठबंधन ने कुछ हद तक सेंध लगा दी है।

यही नहीं दक्षिण बिहार और दक्षिण पश्चिम बिहार में लेफ्ट पार्टियों के महागठबंधन में शामिल होने का लाभ महागठबंधन के दलों को मिला है। बिहार की राजनीति में इसके दूरगामी परिणाम आने वाले समय में सामने आएंगे। लेफ्ट पार्टियों के आने से पटना के ग्रामीण इलाके, बेगूसराय, आरा, सासाराम, बक्सर, औरंगबाद और जहानाबाद में महागठबंधन ने एनडीए को बुरी तरह से पराजित किया है। अगर वोटों का आंकड़ा देखा जाए तो एनडीए को महागठबंधन से पूरे प्रदेश मे कुछ हजार वोट ही ज्यादा मिले है।

अब बिहार में भाजपा की भविष्य की राजनीति क्या होगी? एनडीए को बेशक बहुमत मिल गया है। लेकिन रिश्तों में गांठ पड़ गई है। इस गांठ को हटाना मुश्किल काम है। क्योंकि गांठ के किसे भी हिस्से में सर्जरी का लाभ महागठबंधन को मिलेगा। अगर एनडीए में भाजपा नीतीश के दबाव में चिराग को बाहर करती है या केंद्र में मंत्री नहीं बनाती है तो अगले लोकसभा चुनाव में चिराग के लिए विकल्प खुले है। उन्हें 6 प्रतिशत वोट मिला है। वे राजद के साथ एलांयस कर सकते है।

दलितों में सबसे ज्यादा संख्या वाली जाति पासवान जाति चिराग के साथ गोलबंद है। चिराग के साथ कई इलाकों में अगड़ी जातियां भी है। अगर वे महागठबंधन में चले गए तो आने वाले लोकसभा चुनाव में खेल बदल जाएगा। अगर भाजपा नीतीश कुमार को नाराज करते है कि तो भी खतरा कम नहीं है। नीतीश कुमार की पार्टी 15 प्रतिशत वोट चुनाव में मिला है।

अगर चिराग एकछत्र पासवान जाति के नेता है तो नीतीश एकछत्र कुर्मी और धानुक जाति के नेता है। यही नहीं लव-कुश (कुर्मी-कोयरी) की जोड़ी के सामाजिक ताने-बाने के कारण कुशवाहा जाति में भी नीतीश स्वीकार्य है। भाजपा आज भी बिहार में अगड़ी जातियो और शहरी मतदाताओं में स्वीकार्य है। वैसे में भाजपा की राह आसान नहीं है।

भाजपा नेता 2020 के विधानसभा में हुई जीत को भारी जीत बता रहे है। निश्चित तौर पर 2015 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा की सीटें 2020 में बढ़ गई है। लेकिन यह भारी जीत नहीं है। यह आपार सफलता नहीं है। भाजपा नेता कुछ सच्चाइयों को छुपा रहे है। अपनी कई विफलताओं को छुपा रहे है। भाजपा के नेता यह नहीं बता रहे है कि 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को इससे कहीं ज्यादा भारी जीत मिली थी। उस समय भी नीतीश कुमार के साथ भाजपा का गठबंधन था।

2010 में भाजपा 102 सीटों पर चुनाव लड़ कर 91 सीटों पर जीती थी। उस समय केंद्र में भाजपा की सरकार के बजाए मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार थी। 2015 में भाजपा और नीतीश कुमार की राह जुदा हो गयी थी। भाजपा लोजपा, हम समेत कुछ छोटी पार्टियों के गठबंधन कर लड़ी थी और भाजपा को 53 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन इस बार फिर भाजपा ने 2010 की तरह नीतीश के साथ गठबंधन कर 110 सीटों पर चुनाव लड़ा। इसके बावजूद भाजपा को सिर्फ 74 सीटों पर ही जीत मिली। नीतीश कुमार की पार्टी की घटी सीटों पर खूब बहस हो रही है।

लेकिन यह चर्चा नहीं हो रही है कि 2010 की तरह 2020 में नीतीश के साथ गठबंधन के बावजूद भाजपा का प्रदर्शन बहुत अच्छा क्यों नहीं रहा ? नीतीश कुमार के साथ गठबंधन के बावजूद भाजपा उन सीटों पर कैसे हार गई, जिसे अति पिछड़ा और ऊंची जातियों के वोट के सहारे आसानी से जीता जा सकता था ?