मोदी-नीतीश राज में बिहार पर बढ़ा कर्ज का बोझ


प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बढ़े-चढ़े दावे के बादजूद सच्चाई यही है कि उनकी डबल इंजन की सरकार ने राज्य को कर्ज के भंवर में फंसा दिया है।


अमरनाथ झा
बिहार चुनाव 2020 Updated On :

पटना। बिहार का हर मतदाता भारी कर्ज से दबा है। इसकी वित्तीय हालत के बारे में जानकारी रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट से मिली है। राज्य सरकार पर इस साल के आरंभ में 1.86 लाख करोड़ रुपए का कर्ज था जिसका उल्लेख बजटीय आंकलन में है। इसका मतलब होता है कि राज्य के प्रत्येक मतदाता पर 25 हजार 461 रुपए का कर्ज है। राज्य की देनदारी के बोझ में पिछले पांच साल के दौरान 71 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है।

चुनाव-प्रचार के दौरान 23 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक आमसभा में दावा किया कि केन्द्र में उनकी सरकार बनने के बाद बीते तीन-चार साल में बिहार में नीतीश सरकार के नेतृत्व में कई बेहतरीन काम हुए हैं। परन्तु वित्तीय स्थिति के बारे में उपलब्ध आंकडें बताते हैं कि इस दौरान बिहार दिवालिया होने की स्थिति में पहुंच गया है। उल्लेखनीय है कि राज्य के वित्तमंत्री सुशील मोदी भाजपा के ही हैं और 15 साल से वित्तमंत्री हैं।

प्रत्येक मतदाता पर कर्ज में पांच साल में आया 71 प्रतिशत का उछाल चिंताजनक है। भाजपा-जदयू के शासनकाल में 2005 से ही लगातार बढ़ोतरी हुई है। पर बीते पांच साल में इसमें अत्यधिक बढ़ोतरी हुई। कोरोना महामारी के दौरान कितनी बढ़ोतरी हुई, इसका आंकड़ा अभी नहीं आया है।

आंकड़ों के अनुसार बिहार समेत देश के कई राज्यों पर भारी कर्ज का बोझ है। अमीर राज्यों में राज्य की अर्थव्यवस्था औद्योंगिकरण होने और सेवा क्षेत्र से अच्छी खासी आमदनी हो जाती है। पर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्यों पर कर्ज का बोझ बढ़ने से पता चलता है कि राज्य की अर्थव्यवस्था बाहरी कर्ज पर निर्भर होती जा रही है। कर्ज का बोझ बढ़ने का एक बड़ा कारण मोदी सरकार द्वारा जीएसटी जैसे कानून थोपा जाना भी है। यह कानून 2017 में लागू हुआ। इससे राज्यों का अपनी आमदनी बढ़ने के लिए टैक्स लगाने की सुविधा खत्म हो गई।

बारहवें वित्त आयोग (2005 में लागू) की अनुशंसा पर राज्यों को यह सुविधा मिली कि वे अपनी सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के 3.5 प्रतिशत तक रकम राज्य विकास ऋण (एसडीएल) के माध्यम से संग्रह कर सकते हैं। दूसरे स्रोतों से कर्ज लेने की सुविधा जैसे राष्ट्रीय लघु बचत कोष को सीमित कर दिया गया। इसलिए राज्य सरकारे एसडीएल जारी करके कर्ज लेने लगी। बिहार सरकार के कर्जों में 54 प्रतिशत अर्थात करीब एक लाख करोड़ एसडीएल के माध्यम से लिए गए हैं।

राज्य सरकार के विभिन्न वित्तीय संस्थानों (बैंक व बीमा कंपनियों) से बड़ी रकम कर्ज लेने से समाजिक कल्याण के कार्यों पर खर्च करने की राज्य की क्षमता घटती है क्योंकि कर्ज और ब्याज के भुगतान का दबाव बना रहता है। जिसका परिणाम आखिरकार राज्य की जनता को भुगतना पड़ता है।

प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बढ़े-चढ़े दावे के बादजूद सच्चाई यही है कि उनकी डबल इंजन की सरकार ने राज्य को कर्ज के भंवर में फंसा दिया है। निवेश बढ़ाने की कोई ठोस योजना नहीं होने से रोजगार का पैदा करने में सरकार अक्षम हो जाती है और कामगरों की मजदूरी में बढ़ोतरी करना संभव नहीं होता। गरीबी के ग्रस्त राज्य में संपन्नता लाने के दावे इसतरह पूरी तरह खोखले साबित हो जाते हैं।