
बिहार विधानसभा के चुनाव में जनता दल यूनाइटेड ने 115 सीटों पर दावा ठोंका है। उसने भारतीय जनता पार्टी के लिए 128 सीटें छोड़ने की पेशकश की है जिसमें लोक जनशक्ति पार्टी भी शामिल होगी। इससे सीटों के बंटवारे में गतिरोध आ गया है क्योंकि लोजपा चाहती है कि एनडीए में भाजपा को सबसे अधिक सीटें मिले और लोजपा कम से कम 35 सीटों पर चुनाव लड़े।
भाजपा ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि एनडीए के तीनों दल-भाजपा, जदयू और एकसाथ चुनाव लड़ेंगे और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाएगा। हालांकि लोजपा के चिराग पासवान के एतराज के बाद पार्टी ने प्रधानमंत्री मोदी का नाम और काम और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का फारमुला निकाला। 2019 की लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू ने बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ा था। इसके लिए भाजपा ने अपनी जीती हुई 22 सीटों में से पांच जदयू को दे दिए थे। दोनों ने 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ा जिससे जदयू की सीटें 2 से बढ़कर 16 हो गई। लेकिन जदयू विधानसभा चुनावों में बराबरी के फारमुले को मानने के लिए तैयार नहीं है।
भाजपा ने नवें दशक के मध्य से ही नीतीश कुमार को सामने रखकर चुनाव लड़ा और उसे इसका लाभ भी मिला है। लालू यादव के करिश्मा का मुकाबला करने में नीतीश कुमार को आगे करना कारगर रहा। नीतीश कुमार की दबंग पिछडी जाति का होने से लालू का मुकाबला संभव हो सका। फिर 2005 में पार्टी ने नीतीश को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तुत किया और उस साल दो बार हुए चुनावों के बाद इस गठबंधन के पूर्ण बहुमत हासिल हो सका। लगातार दो बार सरकार चलाने के बाद 2015 में नीतीश कुमार की जदयू भाजपा से अलग हो गई और राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। उसबार भी सरकार नीतीश की ही बनी, पर जल्दी ही राजद-जदयू गठबंधन टूट गया और फिर जदयू-भाजपा की सरकार बन गई।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद राज्य में भाजपा हमेशा पिछलग्गू पार्टी बनी रही है। इसका कारण उसके पास मुख्यमंत्री के तौर पर कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं होना और सामाजिक-राजनीतिक आधार सर्वव्यापक नहीं होना है। नीतीश कुमार को आगे करने से उसे अपनी राजनीतिक स्वीकार्यता में विस्तार देने में सहायता मिली है। परन्तु इसबार प्रदेश भाजपा के कुछ नेताओं के अनुसार नीतीश फैक्टर कहीं नजर नहीं आ रहा, जदयू स्वयं मोदी फैक्टर पर निर्भर दिखती है। एक भाजपा विधायक ने कहा कि नीतीश कुमार की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है। कानून-व्यवस्था की स्थिति खराब होने से सुशासन का दावा खोखला साबित हो रहा है।
भाजपा-जदयू के बीच 2010 विधानसभा चुनावों के दौरान सीटों के बंटवारे में कोई खास परेशानी नहीं हुई क्योंकि गठबंधन में केवल दो ही पार्टियां थी। तब जदयू 141 और भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़ा था। 2015 में जदयू राजद के साथ महागठबंधन की हिस्सेदार थी और जदयू ने 101 सीटों पर चुनाव लड़ा था जबकि भाजपा-लोजपा और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा एक साथ थे। तब जदयू ने 71 सीटों पर जीत हासिल की थी। भाजपा के खाते में 53 विधायक आए।
अब देखना है कि इसबार सीटों के बंटवारे का कौन सा फार्मूला निकलता है और लोजपा कितनी सीटों पर मानती है। अगर जदयू की मांग के अनुसार 115 सीटें मिल गई और लोजपा के 35 सीटें मिली तो भाजपा के पास केवल 93 सीटें बचेगी। इस तरह उसे जदयू के मुकाबले 21 सीटें कम मिलेगी।