ये राजनीतिक गिरोह आरक्षण की राजनीति करते हैं। अपने आप को आरक्षण का रखवाला बताते हैं और इस गिरोह से जुड़े कुछ लोग आरक्षण को नौंवी अनुसूची में भी शामिल करने की मांग करने लगे हैं। इसमें राम विलास पासवान प्रमुख हैं जो आरक्षण की राजनीति के बूते पर ही तीन चार दशक से दिल्ली के जनपथ वाले बंगले पर काबिज हैं।
सुप्रीम कोर्ट की हाल में की गयी टिप्पणी के बाद यही रामविलास पासवान एक बार फिर बोल पड़े हैं कि आरक्षण को संविधान की नौंवी अनुसूची में डाल दिया जाए ताकि उसकी वैधानिक समीक्षा का अधिकार ही समाप्त हो जाए। राम विलास पासवान का ये बयान सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी के बाद आया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बिल्कुल सटीक है। आरक्षण कभी मौलिक अधिकार हो भी नहीं सकता। आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने का मतलब होगा कि समाज में जातीय भेदभाव को मौलिक अधिकार मान लेना। सिक्के का एक पहलू अगर यह होता है कि आरक्षण को मौलिक अधिकार मान लिया जाता है तो सिक्के का दूसरा पहलू ये होगा कि जाति आधारित आरक्षण समाज में जातीय विषमता को भी समाज की मौलिक संरचना मान लेगा। और अगर कोई मौलिक संरचना है तो फिर उसके साथ छेड़छाड़ कैसे की जा सकती है?
लेकिन आरक्षण के राजनीतिक समर्थक दूर तक देखने के अभ्यस्त नहीं है। आजादी के बाद जिस राजनीतिक नेतृत्व के हाथ में देश की बागडोर आयी उन्होंने अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों को सबसे पहले राजनीतिक आरक्षण दिया। यह राजनीतिक आरक्षण दस साल के लिए था। इसके तहत कुल निर्वाचन क्षेत्र का दस प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़े लोगों के लिए आरक्षित कर दिया गया। यह प्रावधान दस साल के लिए था लेकिन हर दस साल बाद कैबिनेट द्वारा इस अध्यादेश को दस साल के लिए आगे बढ़ा दिया जाता है और बीते बहत्तर सालों से ये प्रावधान लागू है।
इसके बाद नेहरु सरकार ने काका कालेकर समिति का गठन किया जिसने अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए शिक्षा और नौकरी में आरक्षण की सिफारिश की। इन सिफारिशों में सिर्फ अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण की सिफारिश मानी गयी अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की सिफारिश को दरकिनार कर दिया गया।
आरक्षण की इस व्यवस्था के खिलाफ समाज के किसी वर्ग में कभी कोई विरोध नहीं हुआ। विरोध शुरु हुआ 1990 में जब वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिश मान्य करते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण के दायरे में ला दिया। उसी के बाद आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया। देश में ऐसे राजनीतिक गिरोह पैदा हो गये जो स्वयं को आरक्षण का रखवाला बताकर आरक्षण को सामाजिक न्याय से ज्यादा राजनीतिक न्याय का हथियार समझते हैं।
एससी/एसटी और ओबीसी आरक्षण ने एक राजनीतिक वोट बैंक तैयार कर दिया जिसमें ओबीसी जातियों से जुड़े नेताओं ने आरक्षण की राजनीति का ठेका ले लिया क्योंकि यह ठेका उनके लिए सत्ता सुनिश्चित कर सकता है। सामाजिक न्याय के नाम पर हुए इस राजनीतिक ध्रुवीकरण की राजनीति करनेवाले ही अब आरक्षण को मौलिक अधिकार भी बताने लगे हैं और आरक्षण को नौंवी अनुसूची में डालने की दलील भी देने लगे हैं।
जाहिर है इस राजनीतिक ध्रुवीकरण के नायक यूपी और बिहार में विराजते हैं जो आरक्षण का राजनीतिक लाभ लेकर सत्ता की कुर्सी तक आते जाते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद इन्हीं राज्य के नेताओं को सबसे ज्यादा बेचैनी हुई भले ही सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तमिलनाडु के संदर्भ में की गयी हो। ऐसा इसलिए कि बिहार में चुनाव सिर पर हैं और कोई भी दल बिहार में आरक्षण का राजनीतिक लाभ लेने में पीछे नहीं रहना चाहता। वह भाजपा भी नहीं जो आरक्षण को लेकर सदैव से तटस्थ ही रही है।
लेकिन सवाल ये भी उठता है कि सत्तर साल के एससी/एसटी आरक्षण और तीस साल के ओबीसी आरक्षण के बाद क्या बिहार में सामाजिक न्याय हुआ है? क्या इन तीन वर्गों में शामिल सभी जातियों का सामाजिक और आर्थिक उन्नयन इतना हुआ है कि सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले बिहार के नेता गर्व से कह सकें कि ये हमारी उपलब्धि है? दुर्भाग्य से आरक्षण की राजनीति करनेवाले नेताओं के पास ऐसा कोई तर्क और तथ्य नहीं है।
आरक्षण के सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि आज भी यूपी और बिहार से ही सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूर दूसरे राज्यों में जाकर रोजी-रोटी तलाशते हैं। इनमें ज्यादातर वही हैं जिनके नाम पर आरक्षण की राजनीति की जाती है।आरक्षण ने लालू, मुलायम, रामविलास पासवान जैसे राजनीतिक कुनबे तो जरूर पैदा कर दिये हैं लेकिन सामाजिक न्याय आज भी दूर की कौड़ी बनी हुई है।
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