
बिहार में कोरोना के कारण विधानसभा चुनाव समय पर होंगे या टलेंगे, फिलहाल इस पर असमंजस है। लेकिन सताधारी गठबंधन को अपने परंपरागत वोटरों के खिसकने का डर सता रहा है। भाजपा को चिंता अपने शहरी मतदाताओं और ग्रामीण इलाकों में अगड़ी जाति के मतदाताओं को लेकर है। वहीं नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) की चिंता कुशवाहा जाति को लेकर बढ़ी है। कुशवाहा जाति बिहार में नीतीश कुमार को खुलकर समर्थन करती रही है। कोरोना संकट के दौरान भाजपा औऱ जदयू के परंपरागत समर्थक मतदाताओं का मोहभंग होने के संकेत मिल रहे है।
जदयू समर्थक कुशवाहा मतदाता किन कारणों से सत्ताधाऱी गठबंधन से नाराज हो रहे हैं, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। बिहार के औरंगाबाद जिले में औरंगाबाद-डाल्टेनगंज रोड पर स्ट्राबेरी की खेती के लिए मशहूर आदर्श गांव चिल्हकी बिगहा है। कुशवाहा जाति बहुल यह गांव स्ट्राबेरी की खेती के लिए मशहूर है। स्ट्राबेरी की खेती के कारण पूरा गांव ही संपन्न हो गया है। गांव में ज्यादातर जदयू समर्थक है।
कुछ साल पहले तक इस गांव के युवा हरियाणा के पानीपत और सोनीपत जिलों में स्थित स्ट्राबेरी फार्मों में बतौर श्रमिक काम करते थे। उन्होंने यहां फार्म में काम करते हुए स्ट्राबेरी की खेती का तरीका सीख लिया। यहां श्रमिक का काम करने वाले ज्यादातर युवा अपने गांव लौट गए। वे अपने ही गांव में थोडी बहुत मौजूद खेती में स्ट्राबेरी की खेती करने लगे। क्योंकि गांव की जमीन स्ट्राबेरी की खेती के लिए उपयुक्त है।
लेकिन मार्च महीने में एकाएक किए गए लॉकडाउन ने गांव के लोगों का भारी नुकसान किया। लॉकडाउन के कारण कोलकाता, रांची, औरंगाबाद, डाल्टेनगंज, पटना के बाजारों तक जाने वाली स्ट्राबेरी खेत में ही सड़ गई। स्ट्राबेरी की खेती कर रहे किसानों को 50 हजार से लेकर 2.50 लाख रुपए तक का नुकसान हुआ।
दरअसल बिहार में कुशवाहा जाति के लोग परंपरागत रूप से खेती-किसानी करते हैं। पिछले तीस सालों में कुशवाहा जाति ने बिहार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अपनी अच्छी जगह बनायी है। कोविड-19 के लॉकडाउन ने इनके कृषि उत्पाद का खासा नुकसान हुआ है। महीनों चले लॉकडाउन ने ज्यादातर सब्जी खेतों में खराब हो गई। बिहार में कुशवाहा उपेंद्र कुशवाहा से ज्यादा नीतीश कुमार को अभी तक पसंद करते रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार के सख्त लॉकडाउन का खामियाजा आने वाले विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार को भुगतना पड़ सकता है।
बीते दिनों कुछ शहरी इलाकों में भी भाजपा से संबंधित विधायकों को जनता का विरोध का सामना करना पड़ा है। पटना शहर के एक भाजपा विधायक का विरोध उनके ही विधानसभा क्षेत्र में लोगों ने किया। इसका वीडियो भी खूब वायरल हुआ। स्थानीय शहरी लोगों ने विधायक का विरोध शहरी बदहाली के कारण किया। टूटी सड़क और पानी के जमाव से लोग नाराज थे। कोरोना के दौरान तो बिहार की शहरी आबादी को पिछले 15 सालों के विकास की कई सच्चाइयों से रूबरू होना पड़ा। पटना जैसे शहर में कोरोना से निपटने में स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से फेल हो गई। जिनकी सिफारिश थी उन्हें तो सरकारी अस्पतालों में बेड मिल गया। बाकी साधारण लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा।
बिहार के शहरी इलाकों में भाजपा का वर्चस्व है। शहरी इलाकों में भाजपा का वर्चस्व होने के कुछ कारण है। शहरों में परंपरागत रुप से भाजपा समर्थक बनिया, कायस्थ, भूमिहार, राजपूत, ब्राहमणों का वर्चस्व है। लालू राज में शहरी इलाके के लोग लॉ एंड आर्डर की समस्या से खासे प्रभावित हुए थे। इसलिए इनके पास कांग्रेस के पराभव के बाद भाजपा ही विकल्प रही। हालांकि नीतीश कुमार के 15 साल के राज में बिहार में शहरी विकास का हाल बुरा है।
लालू यादव के जंगलराज बिहार की शहरी आबादी के बीच भाजपा का ट्रंप कार्ड है। शहर में कुछ काम न करो। बस चुनाव के वक्त जंगलराज की याद दिला दो। दरअसल शहरों में राजद विरोधी मतदाताओं का जमावड़ा है। वैश्य, कायस्थ समेत शहरों में भूमिहार, राजपूत आदि मतदाताओं की गोलबंदी शहरों में भाजपा को मजबूत करती है। लालू यादव के भय ने बिहार में शहरी मतदाताओं को एनडीए की तरह पूरी तरह से जोड़ कर रखा है। लेकिन इस बार परिस्थिति बदली है। कोरोना के लॉकडाउन का असर बिहार के शहरों पर दिख रहा है।
एक तो बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था ने शहरी आबादी को कोरोना काल में खफा कर दिया है। वहीं कोरोना के लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित भाजपा का परंपरागत वैश्य मतदाता हुआ है। शहरी वैश्य मतदाताओं पर पहले नोटबंदी और जीएसटी की भी मार पड़ी थी। इसके बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का राष्ट्रवादी मोड ने वैश्य मतदाताओं को भाजपा के साथ पूरी तरह से जोड़े रखा। भाजपा को इस बात का भय है कि विधानसभा चुनाव में शहरी आबादी भाजपा से दूर हो सकती है। लॉकडाउन ने शहरी आबादी की रोजी-रोटी को खासा प्रभावित किया है। वैश्व समुदाय का व्यापार चौपट हो गया है। ये परंपरागत तौर पर भाजपा वोट के साथ-साथ चंदा भी देते रहे है।
भाजपा की जिम्मेवारी तय है। भाजपा को विधानसभा चुनाव में अगड़ी जातियों को गठबंधन के पक्ष में एकजुट रखने की जिम्मेवारी है। लेकिन जमीन पर हालात कुछ बदले हुए है। राजद का आक्रमक तरीके से विरोध करने वाली जातियां इस बार उदासीन है। महागठबंधन में ज्यादा संख्या में सवर्णों को टिकट देने पर विचार हो रहा है। लालू यादव का दल भी कुछ भूमिहारों को चुनाव मैदान में उतार सकता है। दरअसल भाजपा में भूमिहार पूरी तरह से हाशिए पर आ गए है। किसी जमाने में बिहार भाजपा में भूमिहारों का वर्चस्व होता था। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका स्वर्गीय कैलाशपति मिश्र की थी।