
2020 के बिहार का चुनाव परिणाम इतना रोमांचक रहा कि एक उत्साहित टीवी चैनल ने इसे आईपीएल की तर्ज पर बीपीएल नाम दे दिया। बिहार प्रीमियर लीग। देर रात 12 बजे तक आ रहे चुनाव परिणाम ने जब आखिरी नतीजा बताया जो चेहरे खिले हुए थे उन चेहरों पर 12 बज गये और जिन चेहरों पर पहले से 12 बजे हुए थे, अचानक से वो खिल गये।
चुनाव परिणामों में एनएडीए को पूर्ण बहुमत मिल चुका था। एनडीए के घटक दलों में शामिल भाजपा को सर्वाधिक 74 और जनता दल युनाइटेड को 43 सीट हासिल हुई थी। एनडीए के क्रमश: दो अन्य घटक दलों, हिन्दुस्तान अवामी मोर्चा और विकासशील इन्सान पार्टी को क्रमश: चार चार सीट मिल गयी। इस तरह एनडीए को बिहार विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी 122 सीटों से तीन सीट ज्यादा 125 सीट हासिल हो गयी। इसके अलावा गठबंधन में शामिल सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई-एमएल को क्रमश: दो दो और 12 सीटों पर जीत हासिल हुई है।
इसके उलट राष्ट्रीय जनतांत्रिक दल की अगुवाई वाले महागठबंधन को कुल 110 सीटें मिलीं। इसमें अकेले राजद को 75 और कांग्रेस को 19 सीटों पर विजय हासिल हुई है। इसमें जहां कांग्रेस ने बहुत कमजोर प्रदर्शन किया वहीं वाम धड़े कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी लेनिनवादी ने 12 सीटों पर जीत हासिल करके सबको चौंका दिया। जहां तक सीटों का सवाल है तो राष्ट्रीय जनता दल प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरी है। न सिर्फ उसे सर्वाधिक 75 सीटें हासिल हुई हैं बल्कि 23.11 प्रतिशत वोट भी प्राप्त हुआ है। वोट शेयर के मामले में दूसरा बड़ा वोट शेयर भाजपा का है जिसे 19.5 प्रतिशत वोट मिला है जबकि जनता दल युनाइटेड को 15.4 प्रतिशत वोट मिले हैं। कांग्रेस को 9.48 प्रतिशत वोट हासिल हुए हैं।
मत प्रतिशत के लिहाज से देखें तो बिहार में मुख्य मुकाबला इन्हीं चार दलों के बीच दिखता है। इसमें एक तरफ अगुवाई भाजपा के हाथ में थी तो दूसरी तरफ राजद के हाथ में। दोनों ही गठबंधनों को लगभग समान वोट मिले हैं। एनडीए को 35.3 प्रतिशत तो महागठबंधन को 35.2 प्रतिशत। ऐसे में यह कहना कि राजद गठबंधन की हार हुई है, सही नहीं है। सीटों के मुताबिक एनडीए जीता जरूर है लेकिन जनता का समर्थन दोनों तरफ बराबर-बराबर है।
लेकिन भारत की संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रणाली में मत नहीं बल्कि सीट निर्धारित करती है कि कौन सा दल विजेता है और कौन मैदान हार गया है। इस जीत हार वाली व्यवस्था में छोटे दल कई बार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे इस बार बिहार में निभाया है। राम विलास पासवान की लोकतांत्रिक जनता पार्टी ने एनडीए से बाहर होकर चुनाव लड़ा और 5.5 प्रतिशत मत हासिल किये लेकिन उन्हें सिर्फ एक सीट मिली है। जबकि इससे उलट असद्दुद्दीन ओवैसी की एआईएएम को वोट मिला 1.24 प्रतिशत लेकिन उसे पांच सीटों पर जीत हासिल हो गयी है।
आप कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक जनता पार्टी (एलजेपी) ने जहां जनता दल युनाइटेड की हार सुनिश्चित किया वहीं एआईएएम ने राजद गठबंधन की वोटों में सेंध लगाया। मुस्लिम बहुल सीमांचल ओवैसी की उपस्थिति भर से राजद और कांग्रेस का मुस्लिम समीकरण खराब हुआ है। कई सीटों पर कांटे की टक्कर और कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबलों ने भी इस बार बिहार के चुनाव को भाग्यवादी बना दिया। इसे देखते हुए आप ये बिल्कुल नहीं कह सकते कि नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए की जीत हुई है। एनडीए की इस जीत का श्रेय समीकरणों और भाग्य को देना ही ठीक होगा।
सवाल तो ये है कि इस जीत के बाद बिहार में आगे का रास्ता क्या है? क्या दो हजार बीस में एक बार फिर नीतीश आयेंगे या बिहार में भी भाजपा महाराष्ट्र मॉडल दोहरायेगी? केन्द्र में भाजपा की राजनीतिक मजबूरियां ऐसी हैं कि उसे नीतीश को साथ रखना ही पड़ेगा। ये साथ न तो उनकी सीटों के लिए है और न ही राज्यसभा में बहुमत के लिए। ये साथ है भाजपा को उस राजनीतिक मान्यता के लिए जो एनडीए गठित करते समय प्राप्त हुई थी कि भाजपा कम्युनल पार्टी नहीं है। उसके साथ विभिन्न विचारधाराओं के लोग जुड़े हुए हैं।
इन विभिन्न विचारधाराओं में अब सिर्फ नीतीश कुमार ही बचे हैं जो एनडीए में समाजवाद का सहारा बने हुए हैं, वरना भाजपा अपने आप में इकलौती इतनी बडी पार्टी है कि केन्द्र में उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि वोट शेयर और सीट शेयर के हिसाब से भाजपा बिहार में जनता दल युनाइटेड से बड़ी पार्टी बन चुकी है। क्या ऐसे में नैतिक या राजनैतिक रूप से ये सही होगा कि भाजपा नीतीश कुमार को अपना मुख्यमंत्री स्वीकार कर ले? वो भी तब जब बिहार में कहा जाता है कि नीतीश के राज में भाजपा नेता विपक्ष की भी हैसियत नहीं रखते?
यह एक ऐसा पेंच है जो नीतीश कुमार को राज्य में पंद्रह सालों से मुख्यमंत्री बनाये हुए है। अगर भाजपा वैकल्पिक मुख्यमंत्री के बारे में सोचती है तो हो सकता है नीतीश एक बार फिर राजद की ओर मुड़ जाएं। लेकिन पिछले चुनाव में ये मेल बहुत बेमेल साबित हुआ था और अंतत: दोनों थू-थू करते हुए एक दूसरे से अलग हो गये थे। तो क्या नीतीश को एक बार फिर उन्हीं “दो बिगड़े हुए लड़के” सिर्फ इसलिए सुहायेंगे क्योंकि उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहना है?
नीतीश के लिए भी राजद के साथ जाना इतना आसान नहीं रह गया है। नीतीश शायद नहीं चाहेंगे कि एक बार फिर राजद से सत्ता का “बेमेल गठजोड़” कर लें। ऐसे में उनके सामने विकल्प ये है कि या तो भाजपा को अपनी कुर्सी के लिए मना लें या फिर कुर्सी छोड़कर सरकार के संरक्षक बन जाएं। नीतीश की राजनीति को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि वो मुख्यमंत्री की कुर्सी आसानी से छोड़ेंगे।
हां, ये हो सकता है कि इस बार सरकार में भाजपा का दखल बढे और महत्वपूर्ण मंत्रालय नीतीश कुमार को भाजपा को देनें पड़े। लेकिन क्या इतने से भाजपा संतोष कर लेगी? शायद कर ले। बिहार में राजनीतिक मजबूरियों का जो त्रिशंकु लटक रहा है उसमें सबको कुछ न कुछ समझौता करना पड़ रहा है। इसलिए आप नीतीश कुमार को एक ऐसा भाग्यवादी नेता कह सकते हैं जो 2020 में हारकर भी जीत गये हैं।