अभिनय का इरफान होना


किरदारों में पान सिंह तोमर हो, मकबूल हो, फर्नांडिस हों, योगी हो, कारवां का शौकत हो, हासिल का खलनायक रणविजय हो या नेमसेक का अशोक गांगुली हो इनको जैसा इरफान ने जीया वैसा शायद ही कोई और जी सकता था। जैसे ये किरदार उनके असल जीवन में कभी न कभी रहे हों। यह केवल उनके अभिनय की सर्वोत्तम कला ही नहीं थी। इन किरदारों को जिन्होंने कभी देखा, सोचा या गढ़ा होगा, वे भी अब इन्हें इरफान की अदाकारी से ही जानेंगे।



संदीप जोशी

समय का महत्व तो सभी के लिए होता है। लेकिन कुछ-एक के लिए समयताल का ज्यादा महत्व होता है। समय से तो सभी जीते हैं मगर कुछ-एक ही समय को जीते हैं। जीना तो सभी सीखते हैं मगर कुछ-एक ही जीना सिखा जाते हैं। कलाकार तो कई हुए मगर इरफान एक ही हुआ। दुनिया में जहां रोबोट बनाए जा रहे हों, वहां इरफान ने अपने जीवंत अभिनय से अनेक किरदारों को जीवन दिया। इरफान खान का जाना अभिनय की सजीव, स्वाभाविक कला का रुखसत होना भी है।

इरफान ने अभिनय के आकाश में उड़ना बचपन की पतंगबाजी के दौरान ही सीख लिया होगा। पतंगबाज़ी ने ही उनको आकाश में स्वेच्छा से उड़ान भरने का आत्मविश्वास दिया। खुद के आकाश में ही अपनी पतंग को सबसे ऊंचा और दूर उड़ाया जा सकता है। बचपन में ही पतंगबाज़ी के चक्कर में गिरे और हाथ की हड्डी तुड़वा ली थी। गिरने के बाद उठकर आकाश में अगली पतंग को निहारना उनका स्व़भाव हो गया। फिर परिवार के खिलाफ जा कर फिल्मों  का सपना देखा। पिता ने तो इरफान पर फब्ती कसते हुए कह ही दिया था “आखें हैं कि प्यााला’’। आखों का वही नशीलापन लेकर बंबई आए। नाच-गाने से अलग बंबईया फिल्मों में कुछ अच्छा करने की खुद से शर्त रखी। फिल्मों में आत्मविश्वास की पतंग उड़ाने बंबई पहुंचे तो संघर्ष की जमीन मिली।

जयपुर के शुरुआती दिनों में आवारागर्दी करते हुए किरदारों को इरफान ने खूब देखा-समझा होगा। जब जयपुर में करने को कुछ नहीं था तो दिल्ली के नेशनल स्कूरल ऑफ ड्रामा से अभिनय की बकायदा शिक्षा लेने पहुंचे। लेकिन अनेक किरदारों को जीवंत करने की कला क्या सीखी जा सकती है? क्या कोई स्कूल जीवन के अलग अलग रंगों को किसी एक किरदार में समेटने की कला सीख सकता है? आखों या चेहरे से मार्मिक बात कहने की कला कौन सिखा सकता है? कहीं और देखते हुए, संवाद करने की कला क्या  सीखाई जाती है? दिल्ली में रहते हुए इरफान को दुनिया को देखने-समझने का मौका मिला। विदेशी फिल्में भी देखने को मिलीं। ‍अभिनय के लिए इरफान को एक प्लेटफॉर्म चाहिए था। टेलीविज़न के छोटे किरदारों से बंबई में घर और संघर्ष चलता रहा। टीवी से सराहना मिली, मगर फिल्मों में संघर्ष ही चलता रहा। इरफान को समझ आया की नए फिल्म  देखने वालों में दिलचस्पी  जगाना ही उनके अभिनय कला की चुनौती होगी। अपने अभिनय की सजीवता और संपूर्णता से उन्होंने  विशिष्ट वर्ग को फिल्म देखने के लिए आकर्षित किया।      

एनएसडी, दिल्ली के ही दिनों में सुतापा सिकदर से प्रेम हुआ। जो शिक्षा, संघर्ष और सफलता के बाद भी अंत तक टिका रहा। दाम्पत्य से इरफान को संघर्ष के लिए साथी और जीवन के लिए सारथी मिला। उनकी अभिनय कला में लय और ताल हमेशा जरूरी रहा। किरदारों में पान सिंह तोमर हो, मकबूल हो, फर्नांडिस हों, योगी हो, कारवां का शौकत हो, हासिल का खलनायक रणविजय हो या नेमसेक का अशोक गांगुली हो इनको जैसा इरफान ने जीया वैसा शायद ही कोई और जी सकता था। जैसे ये किरदार उनके असल जीवन में कभी न कभी रहे हों। यह केवल उनके अभिनय की सर्वोत्तम कला ही नहीं थी। इन किरदारों को जिन्होंने कभी देखा, सोचा या गढ़ा होगा, वे भी अब इन्हें इरफान की अदाकारी से ही जानेंगे। उनके हर किरदार में अदा का तेवर साफ झलकता था। किरदारों में उनको खास गुंजाइश दिखती थी। लिखे हुए कथानक से भटकना, और रोमांचक नया रचना उनके खेल का अहम पहलू रहा। इरफान के लिए बिना कला का मनोरजंन अधूरा था।  

इरफान मानते थे दर्द तो सब को होता है, लेकिन उसे दर्शाने का अंदाज सभी का अपना अलग होता है। सादगी और सहजता से अभिनय उनके स्वभाव में था। फारमूले में फंसना उनको नामंजूर था। अलग अलग किरदार ही उनको उत्सासहित करते थे। किरदारों को निभाने का रोमांच ही उनको आत्मंशांति देता था। अभिनय की सौम्य ता में भी आत्मरविश्वास भरपूर झलकता था। खुद को भूलकर वे अपने किरदारों को जीते थे। किरदार की आत्मा जिंदा रखने को ही अच्छा अभिनय मानते थे। परंपरा तोड़ना उनको अपना जन्मसिद्ध अधिकार लगता था। इरफान के लिए धर्म उनका व्यक्तिगत मामला था। हाजि़र जवाबी उनका प्रिय शौक रहा।

पान सिंह तोमर की तरह अपने हर किरदार को इरफान ने बिंदास जीया और बखूबी जीता। छोटी-बड़ी फिल्म रही हो या उनमें छोटी-बड़ी भूमिका, इरफान हर किरदार को कला दर्शाने का मौका ही मानते थे। बंबई से बॉलीवुड तक दुनिया भर के फिल्म  प्रेमी इरफान की हर छोटी-बड़ी फिल्मी छाप के कायल रहे। कैमरा उनके अद्भुत आत्मविश्वास का कैन्वास हो जाता था। न इरफान कैमरे से दूर हो सकते थे न ही कैमरा उनके बिना मनोरंजक रह पाता। उनके अभिनय ने लोकप्रियता के दिली कीर्तिमान बनाए। दिखने में साधारण इरफान अपने पर असाधारण यक़ीन रखते थे। उनका जाना अभिनय का इरफान होना है। 

(सामाजिक,राजनीतिक और खेल विषयों के टिप्पणीकार संदीप जोशी पूर्व क्रिकेटर हैं।)