
बिमल रॉय ने अपनी फिल्म मधुमती की कहानी कहने के लिये बॉलीवुड के चहते विषय – पुनर्जन्म – का सहारा लिया था। सही मायने मे कहे तो मधुमती ने बॉलीवुड को पुनर्जन्म कस थीम से परिचय कराया था। इस फिल्म में भूतिया माहौल, तूफानी रात, पुरानी हवेली सभी कुछ था। सही मायनो में कहे तो ये बिमल रॉय के फ़िल्मी करियर की सबसे बड़ी कमर्शियल फिल्म थी। फिल्म की कहानी एक इंजीनियर, देवेंद्र के बारे में है जो पहाड़ो तक का सफर अपनी गाडी में करता है अपनी पत्नी को लाने के लिए। रास्ते में भूस्खलन की वजह से उसे एक पुरानी हवेली में शरण लेना पड़ता है और उसके बाद उसके साथ अजीबोगरीब घटनाओ का सिलसिला शुरू हो जाता है और आगे चलकर कहानी में ढेर सारे ट्विस्ट्स आते है।
इस फिल्म की शूटिंग के पहले एक बार बिमल रॉय का नैनीताल के भवाली इलाके में जाना हुआ था। भवाली में कुछ दिन बिताने के बाद वो मुक्तेश्वर रवाना हो गए। मुक्तेश्वर की प्राकृतिक सुंदरता देखकर वो इतने प्रभावित हुए की वही पर उन्होंने इस बात की निश्चय किया की जब कभी वो एक प्रेम कहानी सेल्योलाईड पर ले आएंगे, उसकी शूटिंग वो इसी जगह पर करेंगे। ऋत्विक घटक ने शुरू में मधुमती की कहानी बिमल रॉय को सिर्फ जबानी सुनाई थी। बहुत लोगो को ये सुनकर आश्चर्य हो सकता है की आगे चल कर ऋत्विक घटक को इस कहानी के लिये फ़िल्मफेयर अवार्ड के लिये नामांकित किया गया था। जब बिमल रॉय कुछ दिनों के लिए बीमार हो गए थे तब मधुमती का कुछ हिस्सा ऋत्विक घटक ने निर्देशित किया था। आगे चल कर जब फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट बिमल रॉय के हाथ में आयी तब उन्होंने भवाली और मुक्तेश्वर में जाने में देरी नहीं की।
शायद कई लोगों को इस बात की जानकारी नहीं होगी की मधुमती की शुरुआत एक गाने से हुई थी। संगीतकार सलिल चौधरी एक गाने की रिकॉर्डिंग की तैयारी में थे जहां पर दिलीप कुमार और बंग्ला फिल्मों के जाने माने संगीतकार श्यामल मित्रा बैठे हुए थे। श्यामल मित्रा अनायास कोई धुन गुनगुनाने लगे जिसको दिलीप कुमार ने सुना और फ़ौरन सलिल चौधरी से फरमाइश कर दी की इस धुन के ऊपर वो कोई गाना बनाये। सलिल चौधरी ने श्यामल मित्र की धुन पर जो गाना तैयार किया वो था आजा रे मैं तो कबसे खड़ी इस पार।
मधुमती की शानदार कहानी और संगीत ने पुरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था जब ये फिल्म 1958 में बॉक्स ऑफिस पर रिलीज़ हुई थी। तीन घंटे की ये फिल्म आपको अपने पुरे अवधि तक सीट से बाँध कर रखती है। दिलीप कुमार और वैजन्तीमाला के शानदार अभिनय के अलावा प्राण और जॉनी वॉकर का भी फिल्म की सफलता में बहुत बड़ा योगदान था. दिलीप गुप्ता के शानदार सिनेमोटोग्राफी ने मुक्तेश्वर की वादियों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से अपने कमरे में कैद किया था। इसके अलावा इस फिल्म में जिस तरह से काला और सफ़ेद रंगो का इस्तेमाल किया गया था वो कई चीज़ो का द्योतक था फिल्म में। सफ़ेद ने फिल्म में जीवन को दर्शाया था जबकि काले रंग से मौत को दर्शाया गया था।
इस फिल्म की शूटिंग के दौरान बिमल रॉय को पैसे की कमी भी पड़ गयी थी और तब दिलीप कुमार ने उनकी मदद की थी। जब दिलीप कुमार को इस बात की जानकारी हुई की फिल्म बनाने के लिए बिमल रॉय के पास पैसे कम पड़ गए है तब उन्होंने जितनी भी फिल्म उस वक़्त शूट हो चुकी थी उसकी एक स्पेशल स्क्रीनिंग डिस्ट्रीब्यूटर्स के लिए आयोजित की। जब डिस्ट्रीब्यूटर्स ने फिल्म को देख लिया तब उन्होंने यही सोचा की इस फिल्म में पैसे लगाना उनके लिए फायदे का सौदा साबित हो सकता है।
शैलेन्द्र के गाने, सलिल चौधरी का संगीत, हृषिकेश मुखर्जी की एडिटिंग और ऋत्विक घटक की कहानी – इन सभी ने मधुमती को बेमिसाल फिल्म बनाने में कोई कसार नहीं छोड़ी। इसमें कोई शक नहीं की बिमल रॉय की इस फिल्म पर अशोक कुमार की फिल्म महल की छाप कई जगहों पर नज़र आती है। और ऐसा क्यों नहीं हो, महल की एडिटिंग खुद बिमल रॉय ने की था। अगर आगे चल कर इस पुनर्जन्म के इस फॉर्मूले को लोगो ने पसंद किया तो ये उसी का नतीजा था की मिलन, कुदरत, करन अर्जुन, क़र्ज़ जैसी सफल फिल्में आगे चलकर बनी। मधुमती इन सभी फिल्मों के लिए एक तरह से टेम्पलेट थी। मधुमती ने साल 1959 में सबसे ज्यादा फिल्मफेयर अवार्ड जीतने का रिकॉर्ड बनाया जिसको आगे चल कर दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे ने तोडा। इसके अलावा इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म के नेशनल अवार्ड पर भी अपना हाथ साफ़ किया।