
बॉलीवुड की फिल्मों के बारे में आम राय है कि यहां की फिल्मों में हकीकत कम फसाना ज्यादा होता है। रुपहले पर्दे पर दिखाई जाने वाली तड़क-भड़क और रूमानियत आम भारतीयों के जीवन से मेल नहीं खाता है। कहने का तात्पर्य है कि मुंबईया फिल्मों में यथार्थ कम कल्पनालोक का तड़का ज्यादा होता है।
बॉलीवुड की फिल्में हमेशा से ऐसी बिल्कुल नहीं थीं। बालीवुड की कई फिल्मों में भारतीय समाज और संस्कृति का यथार्थ चित्रण देखा जा सकता है। तब फिल्म निर्माता कल्पनालोक की कहानी नहीं बल्कि यथार्थ की जमीन से उपजे कथानक को ज्यादा तवज्जो देते थे। बिमल रॉय ऐसे ही निर्माता-निर्देशक थे। बिमल रॉय आज जिंदा होते तो 111 साल के होते लेकिन 8 जनवरी 1966 को काल के क्रूर हाथों ने उनकों हम लोगों से छीन लिया था।
12 जुलाई 1909 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के ढाका जिला में पैदा होने वाले बिमल रॉय ने अपना फिल्मी करियर कैमरा असिस्टेंट से शुरू किया था। बिमल रॉय इतालवी नव-यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित थे और आगे चलकर उन्हें भी सामाजिक और यथार्थवादी फिल्मों के लिए जाना गया।
हिन्दी सिनेमा के इतिहास में गरीबी-भुखमरी और अन्य अभावों को दर्शाती फिल्मों ने बिमल रॉय को पहचान दी। उनकी फिल्में समाज का सच दिखाने का काम करती थी। बिमल रॉय की फिल्मों ने देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का काम किया।
अपने फिल्मी करियर में उन्होंने विशेष रूप से छह फिल्में- दो बीघा जमीन, परिणीता, मधुमती, सुजाता, देवदास और बंदिनी बनाकर यह साबित किया कि यथार्थवादी और समाजवादी फिल्मों को बनाकर भी नाम और दाम कमाया जा सकता है।
बिमल रॉय ने अपने फिल्मी कैरियर में ग्यारह फिल्मफेयर पुरस्कार, दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और कांन्स फिल्म महोत्सव के अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार सहित कई पुरस्कार जीते। उनकी फिल्म मधुमती को 9 फिल्मफेयर पुरस्कार मिले। मधुमती को मिले 9 फिल्मफेयर पुरस्कार 37 साल तक किसी भी फिल्म को मिले इतने सारे अवार्ड का रिकॉर्ड थे।
भारतीय सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों की जब बात की जाती है तो ‘दो बीघा जमीन’, ‘सुजाता’, ‘बंदिनी’, ‘देवदास’, ‘मधुमती’ और ‘परिणीता’ फिल्मों का जिक्र जरूर आता है। इन फिल्मों के निर्देशक बिमल रॉय थे, जिनकी बनाई फिल्में आज भी दर्शकों की कसौटी पर खरी उतरती हैं।
आइए बिमल रॉय की 55वीं पुण्य तिथि पर भारतीय सिनेमा में उनके अविस्मरणीय योगदान को याद करें और उनकी उन पांच फिल्मों की चर्चा करें जिसे हर किसी को जरूर देखनी चाहिए :
दो बीघा जमीन
दो बीघा ज़मीन फ़िल्मफ़ेयर और राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीतने वाली रॉय की पहली फ़िल्म थी। इस फिल्म की कहानी सलिल चौधरी की कलम से निकली थी जो अमूमन अपने संगीत के लिए जाने जाते हैं। इस फिल्म की कहानी एक ग़रीब किसान की है, जिसके पास पूरे परिवार का पेट पालने के लिए सिर्फ़ दो बीघा ज़मीन ही है। इस फिल्म ने 1953 में कान्स फिल्म फेस्ट में दो पुरस्कार जीते। निरूपा रॉय और बलराज साहनी अभिनीत यह फिल्म अकाल से पीड़ित पिता-पुत्र की जोड़ी के संघर्षों की कथा है।
देवदास
दिलीप कुमार अभिनीत बिमल रॉय की देवदास फिल्म मूलत: प्रसिद्ध साहित्यकार शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास का पहला ऑन-स्क्रीन रूपांतरण था। फिल्म में सुचित्रा सेन पारो और वैजयंतीमाला चंद्रमुखी की भूमिका में थी। फिल्म ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए तीसरा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। 1955 में बनी इस फिल्म को दो फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले।
बंदिनी
बंदिनी फिल्म 1963 में रिलीज हुई। इस फिल्म में नूतन, अशोक कुमार और धर्मेंद्र मुख्य भूमिका में थे। बंदिनी एक महिला-केंद्रित फिल्म थी और इसने उस साल फिल्मफेयर अवार्ड्स की झड़ी लगा दी। समीक्षकों द्वारा प्रशंसित फिल्म ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता।
सुजाता
बिमल रॉय की 1959 में रिलीज हुई सुजाता फिल्म में सुनील दत्त और नूतन मुख्य भूमिकाओं में थे। इस फिल्म का कथानक तत्कालीन भारत में प्रचलित जातिवाद के आसपास घूमती थी। फिल्म को कई फिल्मफेयर पुरस्कार मिले और एक राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था।
मधुमती
1958 में रिलीज़ हुई मधुमती एक असाधारण रोमांटिक फिल्म है जिसमें दिलीप कुमार और वैजंतीमाला मुख्य भूमिका में हैं। नौ फिल्मफेयर पुरस्कार जीतने के अलावा, इसे हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला।