हबीब तनवीर और मेरा रंगकर्म: आलोक शुक्ला

रंगमंच के इतिहास पुरुष श्रद्धेय हबीब तनवीर साब के बारे में लगभग पूरी दुनिया जानती है और कम से कम भारत में उनके साथ मुझ जैसे हज़ारों कलाकारों ने काम किया हुआ है। उन पर कुछ भी लिखना सूरज को दीया दिखाने जैसा ही है… फिर भी एक छोटी सी कोशिश की है जहां उनके साथ काम करने के लम्हों के कपास पर अपनी लगभग चार दशकीय रंग यात्रा को बुना है…कुछ ऊंच-नीच लगे तो रंगमंच का एक विद्यार्थी जानकर कृपया माफ़ कर दीजियेगा।

1986 से रंगकर्म और फिर जब 1992 में हबीब साब रीवा आए……17 वर्ष की उम्र में मैं, अपने शिक्षक पिता श्री राम देव शुक्ल के साथ, मध्य प्रदेश के सीधी जिले के देवसर में पढ़ाई कर रहा था। डेढ़ साल पहले ही पिता जी के साथ अपने जन्म स्थान बांदा उत्तर प्रदेश से आया था। यहाँ से दसवीं पास करके पिता जी के ट्रांसफर के साथ रीवा शहर के मार्तण्ड हायर सेकेण्डरी स्कूल क्रमांक एक में 11वीं कक्षा में पढ़ते हुए अपनी ज़िंदगी के मायने ढूढ़ रहा था। इसी दौरान शहर के एक युवा नाट्य निर्देशक सैयद अहमद ज़ैदी से मुलाक़ात हुई।

श्री ज़ैदी ने अपने नाटक ‘आह’ में एक छोटी से भूमिका में मुझे कास्ट कर लिया। यह नाटक मेरे ही स्कूल के सभागार में, सितंबर 1986 में (गणेश चतुर्थी उत्सव के दौरान) होने वाला था। इस नाटक को काफ़ी सराहा गया। इस दौरान छोटी सी भूमिका में मिली तालियों ने मेरे जीवन में बड़ी भूमिका निभाई। मुझे इसी में अपने जीवन के मायने नज़र आने लगे..। इसने शहर में रह रहे परिवार और पढ़ाई के बीच रंगकर्म भी मेरा एक घर हो गया।

श्री सैयद अहमद ज़ैदी के बाद मोहम्मद अनवार सिद्दीक़ी, अनवर देशमुख, योगेश त्रिपाठी, राजकिशोर दुबे और राजेंद्र सक्सेना जी के साथ 1986 से 1992 तक तक़रीबन 7 साल तक लगातार रीवा में रंगकर्म किया। लेकिन अब तक मन में जिस रंग स्पर्श से उत्साह भरता था, अब वो ही मेरे मन को अशांत कर रहा था।

प्रमोद तांबट के नाटक दास्ताने गैस कांड और फिर सर्वेश्यर दयाल सक्सेना के नाटक समरथ को नहीं दोष गुसाईं में जमूरे की भूमिका में प्रदेश व्यापी ख्याति मिली। …होरी, पागलघर, जुलुस, मुर्गीवाला, राजा का बाज़ा, जंगीराम की हवेली, एक था गधा, अच्छे आदमी जैसे कई नाटकों का मंचन किया। कई वर्षों तक प्रो सतीश मेहता के रंग समूह प्रयोग की रीवा ईकाई में कई सारे नाटकों में विभिन्न भूमिकाएं कीं …, आकाशवाणी में कविताओं और नाटकों के प्रसारण हुए … लेकिन इस सबके बाद भी….. ? थे तो कुएं के मेढक ही न ?

विज्ञान से स्नातक की डिग्री का आखिरी साल ख़त्म हो गया था…, सारा कलाकर्म अधूरा सा लगने लगा था…। घर जाओ तो पिता की प्रश्नवाचक निगाहों का सामना करना पड़ता, कि अब आगे क्या ? ये सब बेहद कठिन था…, आँखों के सामने एक ऐसी धुंध जिसमें आगे कोई संभावनाएं नहीं नज़र आ रही थीं… जबकि अब मन विस्तार चाहता था ……। ऐसे में अगस्त 1992 में पता चला कि थिएटर के मूर्धन्य कलाकार हबीब तनवीर जी अवधेश प्रताप सिंह विश्वविध्यालय में एक लम्बी वर्कशॉप करने आ रहे हैं।

इस बात ने मन में असीम संभावनाओं को जन्म दिया| तो बस क्या था ?अपन भी शामिल हो गए। इस वर्कशॉप में लगभग शहर के कई नये/पुराने रंगकर्मियों ने शिरकत की। जिनमें से कुछ लोगों ने सिर्फ हबीब साब को ऑब्जर्ब करने के लिए ही शिरकत की, तो कुछेक मेरे जैसे लोगों ने उनसे हमेशा जुड़ने के लिए शिरकत की। खैर मेरा घर से कभी बस में, तो कभी सायकिल में, तो कभी मित्रों के साथ बाइक में, शहर से काफ़ी दूर बने विश्वविद्यालय में हो रही इस वर्कशॉप में, रोज़ाना सुबह शाम जाने का सिलसिला चालू हो गया।

ये थिएटर की पहली विधिवत ट्रेनिंग थी। हबीब साब की बातचीत का अलहदा तरीक़ा, उनके नाटकों और बॉलीवुड के अनुभव सुनते हुए हम सब सम्मोहित हो जाते थे। ट्रेनिंग के बीच जब वे अपनी बेस वाली आवाज़ में, ‘चुनांचे’ और ‘गोया कि’ जैसे हर्फों की नक्कासीदार ज़ुबान से कुछ कहते, तो लोग बरबस ही उनकी ओर खिंच जाते। वे जब बॉलीवुड के लीजेंड अमिताभ बच्चन के बारे में बताते कि ‘अमित को उन्होंने एक प्ले में जवानी में एक बूढ़े का किरदार करते हुए देखा, तभी उन्हे लगा कि वे एक अच्छे कलाकार हैं। फिल्मों में शुरुआती असफलता के दौरान तेज़ी(अमित जी की माँ) ने कई दफा अमित को लेकर एक प्ले करने को बोला, जिसे वे कभी कर नहीं पाए …एक अफ़सोस तारी था उनकी आवाज़ में .. इतने सालों बाद भी !

हबीब साब की रिहर्सल के दौरान सबसे बड़ी बात ये थी कि सभी के बारे में उनका ऑब्जर्वेशन बेहद बारीक़ी से होता था। कोई कहाँ बैठा है, कब आ रहा है या कब जा रहा है या वो क्या कर रहा है….? सब उनकी जानकारी में होता था, जबकि वे ज़्यादातर खुद अपनी डायरी में कुछ आड़ी-तिरछी लाईनें खींचते हुए, सिर को झुकाए रहते थे। ये आड़ी-तिरछी लाईनें संभवत इमोशंस की होती थीं, जिन्हें देखकर वे रिहर्सल के बाद सबको उनकी गलतियों/ अच्छाईयों के बारे में बताते थे। इन लाईन ऑफ़ इमोशंस के बारे में ट्रेनिंग के समय उन्होंने हमें सिखाया भी।

खैर वे अपनी इन्हीं रेखाओं के तिलस्मी संसार से, हल्के से अपना सिर उठा कर एक अनजानी सी निगाह से सबको देखते… बीच-बीच में खांसते हुए अपनी चुरुट को भरते और हौले-हौले उसे पीते रहते..। ऐसे ही किसी लम्हे में वे अपनी डायरी में झांकते हुए ही अपनी गहरी आवाज़ में बोलते- बरखुरदार… एबनर! आप चुपके से आकर पीछे क्यों बैठ गए ? आगे आइए! या दीपक आप चुपचाप निकल गए थे, जबकि आपको पता था कि एंट्री आ रही थी! फिर थोड़ा सबको सुनाते हुए कहते- आप लोग रिहर्सल में थोड़ा सीरियस रहा करें….। ऐसा लगता था जैसे उनके अपने ग्रुप के एक-एक सदस्य की महक उनके जिस्मो-जां में बसी हुई है…।

दीपक और एबनर भाई रिहर्सल में थोडा देर से आते या इधर-उधर निकल जाते थे, क्योकि ये उस समय थोड़े विद्रोही प्रवृत्ति के थे, ऐसा ही विद्रोह बाद में भाई विजय शुक्ल में आया। हालाँकि इसका कभी हबीब साब ने बहुत बुरा माना हो, ऐसा देखा-सुना नहीं, लेकिन हां उनके विद्रोह पर जब-तब तंज ज़रूर कसते थे। वहीं जब कभी हबीब साब थोड़ा नाराज़ होकर तल्ख़ आवाज़ में बोलते, तो सबकी सांसें अटक जातीं (बाद के वर्षों में पता चला कि हबीब साब की सख़्त डांट से कई बार कोई छत्तीसगढ़ी कलाकार रूठ कर समूह छोड़… मैं आपन घर जात हउ..’ कहता तो माँ जी (हबीब साब की पत्नी मोनिका मिश्रा जी), मनाने की भूमिका बखूबी निभाती थीं।)

वास्तव में ..हबीब साब मंच पर कलाकार की प्रॉपर इंट्री और एग्जिट न होने पर अक्सर ख़फ़ा हो जाते। पूरे नाटक के साथ कर्टन कॉल तक एक्टर की पॉजिशन के लिए सख़्त रहते। उनका मानना था कि हर एक लाइन का इमोशन होता है, आप कथ्य के मुताबिक कितना निकाल पाते हैं? ये देखने वाली बात होती है। तो वहीं नाटक के गीत–संगीत के प्रति बेहद भी सतर्क रहते। उनका मानना था कि गानों को हमेशा नाटक के कथ्य को बढ़ाना चाहिए, उन्हें पैच की तरह कतई इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

इसे सीखते हुए गुज़रते दिनों के साथ, मैं विस्फारित नेत्रों से उनके लोक कलाकारों को देखता, जो ठीक से खड़ी हिंदी भी नहीं बोल पाते थे इंग्लिश तो दूर की बात थी। पर जब एक्ट करने की बात आती तो अच्छों के कान काटते नज़र आते। ऐसे ही देख रहे नयन में पूनम को एक जगह I don’t know पर एक्ट और रियेक्ट करना था, उसने हबीब साब के एक बार समझाने पर ऐसा किया, कि ग़ज़ब ढा दिया। हालांकि पूनम न इस भाषा को जानती थी और न ही समझती थी।

वास्तव में हबीब साब का मानना था कि अभिनय पढ़ने से नहीं करने से आता है, वे थिएटर को किसी पढ़ाई से अधिक प्रक्टिकल का विषय मानते थे वहीं वे ये भी कहते थे कि दर्शकों को पता होता है कि आप नाटक कर रहे हैँ इसलिए उसकी सहजता पर ध्यान देना चाहिए.. और ये उन्होंने अपने लोक कलाकारों से अभ्यस्त अभिनय करवाकर साबित भी किया।

हबीब साब की इस युवा रंगशाला में ये सब सीखते- समझते हुए मोहन राकेश के कई छोटे नाटकों की रीडिंग हुई, कुछ थ्योरी बताई गई और 2-3 दिन गुजर गए, लेकिन हबीब साब ने अपने किसी प्ले में मुझे कास्ट नहीं किया, तो थोड़ा बुरा लगा। लेकिन अचानक तीसरे या शायद चौथे दिन, एक दोपहर वे अपनी डायरी में देखकर बोले- गोया कि.. वे जनाब कहाँ हैं? जिन्होंने ‘मैकबेथ’ का डायलॉग सुनाया था….. और मेरा दिल हलक पर आ गया, मारे ख़ुशी के शायद…!

हुआ ये था कि इसके पहले मैं एनएसडी की प्रवेश परीक्षा में गया था और वहां सलेक्शन तो नहीं हुआ, पर ढेर सारे बड़े नाटकों की स्पीचेज मिल गई थीं। उन्हीं में से एक मैकबेथ का लम्बा संवाद याद किया हुआ था, जिसे सबसे पहले दिन हबीब साब से जब विश्वविद्यालय के खुले प्रांगण में सबका परिचय हो रहा था, तो सबको कुछ न कुछ सुनाने को कहा गया था, तब सुनाया था, जिसकी आवाज पूरे विश्वविद्यालय प्रांगण में गूंज गई थी…।

हबीब साब का ये पूछना कि गोया कि..वे जनाब कहां हैं?जिन्होंने ‘मैकबेथ’ का डायलॉग सुनाया था, ने उसी गूंज को भर दिया था…। उसके बाद मोहन राकेश के नाटक ‘बहुत बड़ा सवाल’ में रामभरोसे (सेकंड कास्ट) में और ‘सिपाही की माँ’ में सैनिक के महत्वपूर्ण किरदार में कास्ट किया गया। इसी के साथ अनुभव देने के लिए उनके अपने नाटको, ‘देख रहेंन नयन’ और ‘देवी के वरदान’ में भी कुछ छोटे रोल हमसे करवाये गए….., रीवा, सीधी, सतना में इनके शोज हुए।

इस कार्यशाला में तैयार हुए दोनों ही नाटक मोहन राकेश के थे ‘बहुत बड़ा सवाल’ और ‘सिपाही की माँ’..। हबीब साब ने ब्रोसर में ‘बहुत बड़ा सवाल को’ पूरी मेहनत से तैयार करने की बात लिखी थी जबकि ‘सिपाही की माँ’ को महज प्रयोग के तौर पर कलाकारों को एक अनुभव देने के लिए तैयार किया गया लिखा था। लेकिन जब विश्वविद्यालय के सभागार में शो हुआ, तो ‘सिपाही की माँ’ को लोगों ने बेहद पसंद किया, खासकर मेरी एक्टिंग को, और ‘बहुत बड़ा सवाल’ एकदम ठंडा गया। इस सबसे हबीब साब मानसिक रूप से बेहद परेशान से दिखे। जब मैंने उनका आशीर्वाद लेते हुए पूछा, कि सर कैसा हुआ? तो एक पल की ख़ामोशी के बाद बोले थोडा लाउड था।

इसके बाद अगला शो सिटी के मेडिकल ऑडिटोरियम में था। यहाँ नाटकों का क्रम बदल दिया गया और पहले ‘बहुत बड़ा सवाल’ और उसके बाद ‘सिपाही की माँ’ किया। मैंने अपनी टोन डाउन कर दी, इसका असर ये कि मेरे मित्रों ने बोला – तुम्हारी आवाज़ को क्या हो गया था? हम तो तुम्हारी परफोर्मेंस देखने आये थे, ये सुनकर कि विश्वविद्यालय में क्या गरज रहे थे? क्या कमाल की परफोर्मेंस दी थी! … मैंने देखा अब हबीब साब थोडा रिलेक्स थे… मुझे ये देखकर सुकून पहुँचा, मैं उनके पास पहुंचा .. मैंने उन्हें देखकर एक खामोश सी मुस्कराहाट दी, वे मुस्कराए और मुझे देखा …उनकी आँखों में एक अफ़सोस तारी था जिसको उन्होंने ता उम्र निभाया …..।

अगस्त एन्ड से सितंबर के तीसरे हफ़्ते तक, क़रीब एक महीने चली रंग कार्यशाला के दौरान हबीब साब बीच में एक हफ़्ते के लिए बाहर गए और फिर आए। स्थानीय लोक कलाकारों को सुना, हम सबको अभिनय का प्रशिक्षण दिया। हबीब साब रिहर्सल के दौरान सामने प्लेट में रखे स्नेक्स को खाते हुए, पाइप पीते हुए, अपनी डायरी में कुछ लिखते हुए एकदम से रहस्यमई से लगते। देर शाम वे अपनी 8PM (लिकर ब्रांड) के साथ अपने रूम में बैठ जाते। उनके कुछ प्रेमिल किस्से भी हवाओं में तैरते, किन्तु उससे हमें कोई मतलब नहीं दिखता, इसलिए इसकी कोई चर्चा नहीं कर रहा।

ये ज़रूर कि इस लम्बी रंग-शाला में उनके ग्रुप के कलाकारों से एक अपनापन सा हो गया। अनूप उपाध्याय, पूनम, दीपक तिवारी और एबनर सादिक आदि से एक राफ़्ता बना, लगा बस यही तो वो मंजिल है। लेकिन हबीब साब के ग्रुप के सहारे शहर से बाहर निकलने की साध पूरी ना हो सकी। हालांकि मन की साध एक आस बनी, मेरे अंदर जीती रही और वो जाके 2004 में, मुंबई में जाकर पूरी हुई। लेकिन अभी 2004 मुझसे 12 साल दूर समय के गर्भ में सांसे ले रहा था और अज्ञात में अ हटाकर ज्ञात को भेदना बिल्कुल आसान नहीं था।

बहरहाल हबीब साब के गुरुमंत्रों ने इतनी उर्जा भर दी, कि इस साल फिर एन एस डी का फॉर्म भरा, इस बार दिलीप पावले भी साथ थे। हम यहाँ अपने शहर के कुमुद मिश्रा के सानिध्य में रहे, जो उस समय आशुतोष राणा के साथ पढ़ रहे थे। सबसे हम मिले पर इसका क्या कि साक्षात्कार के समय कीर्ति जैन साहिबा ने मुझे कहा कि आप फिर आ गए, अरे आप इतना थिएटर कर रहे हैं, आप ट्रेनिंग करके क्या करेंगे ? मेरे पास इसका जवाब नहीं था और जो दिया वो नामाकुल था, कि मुंबई जाना है इसलिए ट्रेनिंग करनी है ! लेकिन दिलीप का शायद आदिवासी कोटे से हो गया (दिलीप मूलतः छतीसग़ढ़ की एक आदिवासी कास्ट से थे)।

लेकिन मैंने हार नहीं मानी, एफ़ टी आई पुणे की असफल प्रवेश परीक्षा दिया, फिर श्रीराम सेंटर के साथ भारत भवन भोपाल की रेपेटरी हेतु आवेदन किया। दोनों जगह से बुलावा भी आया, लेकिन बाद में अयोध्या में हुई घटना के मद्देनज़र भोपाल भवन से शेखर वैष्णवी जी का तार आया कि ये साक्षात्कार स्थगित हो गया है। लेकिन श्रीराम सेंटर में बाकायदा साक्षात्कार दिया, शायद रंजीत कपूर साब, नादिरा बब्बर साहिबा और रामगोपाल बजाज साब ने ये साक्षात्कार लिया और उसके बाद उन सबने कहा कि आप कल सुबह लिस्ट में अपना नाम देख लीजियेगा, लेकिन वो सुबह कभी नहीं आयी लिस्ट में नाम नहीं आया, ये बेहद आहत करने वाला था।

इसी बीच हबीब साब के नाटक पोंगा पंडित उर्फ़ जमादारिन पर हो रहे विवाद की ख़बर ने भी बेहद आहत किया, बकौल हबीब साब ये छुआछूत और जात- पात के खिलाफ़ था और एक लोक रंगमंच के रूप में छत्तीसगढ़ में प्रचलित था लेकिन इस पर उनकी एक हिंदू विरोधी छवि का निर्माण किया गया जिसका कोई अर्थ नहीं, मैं भी इस बात से पूरी तरह से सहमत था। भला जो नाटक के अधिष्ठाता देव भगवान शंकर को मानते हुए अपने नाट्य समूह में ‘जय शंकर’ का सम्बोधन रखता हो, उसे हिन्दु विरोधी कहना एक किस्म का अत्याचार ही था लेकिन राजनीति जो न कराए वो कम है।

बहरहाल रीवा वापस आकर फिर नई शुरुवात की, अपनी संस्था ‘प्रासंगिक’ का गठन किया। (मेरी ये संस्था ‘प्रयोग रीवा’ के संस्थापक स्वर्गीय अनवर देशमुख जी का आशीर्वाद थी)। भोपाल जाने के पहले वो बोले- आलोक मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ, कह कर सब कुछ खुद ही करके इस संस्था का पंजीयन किया ( फर्म और सोसायटी के रजिस्टार थे वे)।

इसके बाद लोक कलाकार राजकिशोर दुबे जी के आशीर्वाद के साथ, एक नाट्य कार्यशाला आयोजित की…। इसमें बहुत कुछ घटा पर ज़िद थी नाटक करने की और कार्यशाला को पूरा करने का दबाव भी था। इस हेतु मैंने समकालीन सन्दर्भों पर पहली बार दो छोटे मंच नाटक “इन्सान” और “आत्महत्या” लिखे।

इसके पहले शो में श्री सेवाराम त्रिपाठी, भगवती बाबू आदि मूर्धन्य लोगों ने आकर, इस प्रयास को बेहद सराहा। बाद में मैंने इन नाटकों को कई जगहों पर किया। शहर में कई अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम किये , स्कूलों में प्रोग्राम्स,/कार्यशाला करवाई। इसी दौरान आकाशवाणी के राजेंद्र सक्सेना जी के साथ ‘अच्छे आदमी’'((राजेश जोशी)) नाटक में उजागिर का लीड रोल किया। इस शो को करते समय शहर के कुछ रंगकर्मियों के विद्वेष के कारण मेरे लिए ये बेहद बुरा अनुभव बन गया..।

इस सबसे निराश हो कर पत्रकारिता से भी जुड़ गया। मीडिया वाच पेपर में बतौर संपादक काम किया, लेकिन ये वो मंजिल नहीं थी जिसको मन चाह रहा था। इसी दौरान रंगकर्मी मित्र हीरेन्द्र सिंह जी के मामा, सुरेन्द्र राजन जी के मार्गदर्शन एवं दीपक रॉय के निर्देशन में, फिल्म्स डिविजन की एक फिल्म ‘धन्ना’ बनने हेतु रीवा आयी, इसमें रीवा के काफी लोग जुड़े। मैंने भी ना सिर्फ इसमें असिस्ट किया, बल्कि जीवन का पहला महत्वपूर्ण रोल कैमरे के सामने अभिनीत किया। काफी सराहना मिली, हौसला बढ़ा और लगा शायद यही तो वो मंजिल है! लेकिन ये हौसला इतना नहीं था, कि कोई बड़ा निर्णय कर पाता। पर पिता जी ने जब ताना दिया कि कब तक यूं ही भांडगिरी करते रहोगे? जाओ, बाहर निकलो, कुछ दुनिया देखो! तो जनाब दुनिया देखने बाहर निकल ही गया।

हालाँकि इसका कारण पिता जी से तात्कालिक ग़ुस्सा ज़रूर था। लेकिन बाद में एहसास हुआ कि उनका ग़ुस्सा नाजायज़ कतई नहीं था। आखिर उन्होंने बड़ी उम्मीद से अपने बेटे(मुझे) को साइंस पढ़ाया, जिसे वे डॉक्टर बनाना चाहते थे। यदि वो साइंस की जगह अपनी बहनों की हिंदी साहित्य की किताबों को घोटने में लगा हो और नाटक-नौटंकी के पीछे पगलाया हो तो, एक पिता के नाते वे और क्या कहते?

मुंबई जाना, शिवदास घोडके दादा, सागर सरहदी के बाद फिर हबीब तनवीर साब का साथ… सितंबर 1996 में मुंबई जाने के बाद सिनेमा की कड़वी सच्चाई धीरे-धीरे सामने आई…. अकेलापन, असुरक्षा, अवसाद यहाँ के बाई प्रोडक्ट के रूप में आपको झेलने पड़ते हैं….। इस दौरान कई सीरियल्स, शार्ट फिल्म और कुछेक फिल्मों में भी काम किया। पृथ्वी थिएटर में सत्यदेव दुबे जी की ओपन वर्कशॉप की। राकेश साहू के साथ बिठ्ठल आला रे … और राजा जाफरी के साथ मृगतृष्णा, संजय शुभंकर के साथ कबीरा खड़ा बाज़ार में…., नाटकों की तैयारी तो हुई लेकिन इनके शोज़ नहीं हो सके। ऐसे में एक अधूरापन सा बना रहा… बिना प्रदर्शन सब सूना…!

रंगकर्म एक मरहम की तरह आपको सुकून तो देता है, लेकिन जब उसके ठीक से शोज़ हों…! और फिर ये सुकून मिला शिवदास घोडके दादा के साथ, प्रहलाद जाधव के नाटक शेवंती जित्ती आहे को करने से, जिसे महाराष्ट्र राज्य हिंदी नाट्य स्पर्धा-1997 में किया और संयोग से मुझे इस नाटक में राज्य सरकार के विशेष अभिनेता का पुरष्कार भी मिला।

इसके अगले साल मित्र शैलेन्द्र गौड़ के निर्देशन में, रीवा में हबीब साब की कार्यशाला में मित्र बने अनूप उपाध्याय, उनके मित्र विवेक, अश्वनी चंडोक, नारायणी शास्त्री आदि के साथ, डॉ. शंकर शेष का नाटक घरौंदा किया। इसके अगले ही साल, अरविन्द पांडे के साथ होली नाटक का शो किया और फिर 1999 में प्रसिद्ध संवाद लेखक, फिल्म मेकर सागर सरहदी जी के नाटक राजदरबार में किसान की मुख्य भूमिका में कास्ट हुआ। 1999 से 2003 तक, इसके मुंबई और मुंबई के आस-पास के साथ, नागपुर में कई बेहद सफल मंचन किए। ये समय अच्छा गुज़रा लेकिन फिर एक सन्नाटा सा जीवन में आ गया…

एक समय आता है, जब वो मरहम भी बेअसर होने लगता है, जिससे आपको आराम मिलता है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सागर सरहदी साब ने वादे के मुताबिक, अपनी फिल्म में उस लीड कास्ट में नहीं लिया, जिसके लिए उन्होंने नाटक के दौरान कहा था। ये रोल नाटक के रोल का ही विस्तार था। (हालांकि ये फिल्म नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी के साथ बनी, लेकिन कभी रिलीज नहीं हुई)।

ख़ैर…! जो भी हो…! इसी बीच पता चला कि पृथ्वी थिएटर के फेस्टिवल–2004 में हबीब तनवीर साब आगरा बाज़ार नाटक करने आ रहे हैं। नया थिएटर के मित्र अनूप उपाध्याय के उत्साहित करने पर, हबीब साब से बात की। आशा के विपरीत इतने सालों के बाद भी, वे मुझे पहचानते थे और उन्होंने आने पर पृथ्वी में मिलने को बोला। वे आये बिलकुल खुदा की तरह, उनसे और ग्रुप के सारे लोगों से मुलाकात हुई। ग्रुप में रीवा का शुक्ला करके एक लड़के के रूप में सब पहले से जानते थे, जो मुंबई में मिलेगा और ये रोल वो करेगा। लेकिन इस सबसे अंजान, मैंने एक पूरा एक दिन नाटक की रिहर्सल देखते हुए गुज़ार दिया।

कुछ न होते देख निराश सा, शाम को हबीब साब को मिलकर वापिस जाने लगा, ये कहकर कि आप जोड़ने वाले थे, पर कुछ बताया ही नहीं! हबीब साब एक लम्हे को रुके और फिर पास खड़े एक युवक से मिलवाया, कहा- ये राम हैं, ये बताएंगे कि क्या कर रहे हैं आप। फिर उन्होंने राम भाई को कहा- ये हैं आलोक शुक्ला, रीवा से….। फिर 2 दिन की रिहर्सल में, कुछेक छोटे रोल्स करने को मुझे दे दिए गए, ब्राम्हण, पहलवान और अजनबी शायर इत्यादि।

….फिर तो जैसे एक सिलसिला सा बन गया, जो हबीब साब के रहते हुए 2009 तक लगातार चला। इस दौरान कहीं भी आगरा बाज़ार का शो होता, हम (अनूप उपाध्याय, मनोज संतोषी और मैं, गाहे बगाहे जमील खान भी) फ्लाइट से जाते, शो करते, टी-ए, डी-ए लेते और वापस मुंबई आ जाते जबकि शो की नॉमिनल फीस बाद में कभी सीधे एकाउंट में आ ही जाती थी। हमने मुंबई और दिल्ली में कई शोज़ करने के साथ साथ आगरा, बैगलोर, गोहाटी, अहमदाबाद, भोपाल आदि शहरों में भी इसे किया।

इसी दौरान माँ जी, यानि गुरु पत्नी मोनिका मिश्रा जी से भी एक स्नेहिल संबंध बना। अक्सर माँ जी रिहर्सल के दौरान, सामने हबीब साब के साथ बैठतीं और हबीब साब के खाने का ध्यान रखतीं। हबीब साब रिहर्सल के दौरान, सामने प्लेट में रखे स्नेक्स खाते हुए, पाइप पीते हुए, अपनी डायरी में कुछ लिखते हुए, सदा की तरह से रहस्यमई से लगते। …..बहरहाल समय के साथ, हम जर्मनी शो करने गए और यहाँ का अनुभव बेहद रोमांचित करने वाला था।

जर्मनी, हबीब साब और ‘आगरा बाजार’ टीम..जर्मनी के शो के लिए जाते हुए एक वक़्त ऐसा आया कि सबके पास 17 मई 2006 की सुबह दिल्ली से फ्रंकफर्ट तक के टिकिट्स थे, बॉन में होटल की बुकिंग थी, लेकिन 16 तारीख को मैं उस्मान के साथ, नरीमन पॉइंट में ग्रुप के लगभग 30 पासपोर्ट लिए घूम रहा था (बाक़ी पासपोर्ट लिए दिल्ली में शैली भाई, यानि शैलेन्द्र जैन जी कोशिश कर रहे थे)। अभी तक उनमें वीज़ा का ठप्पा नहीं लगा था। कारण था कि हबीब साब शेंगेन वीज़ा चाहते थे, जो उन्हें पूरे यूरोप में घूमने दे सकता था। उन्हें जर्मनी के बाद लन्दन जाना था, लेकिन जर्मन एम्बेसी इसके लिए तैयार नहीं थी। मुझे और अनूप को इसी रात 10.30 की फ्लाइट से मुंबई से दिल्ली जाना तय था, जिससे सुबह हम वहां पहुँचकर, भोपाल से आये पूरे ग्रुप के साथ फ्रंक्फर्ट की फ्लाइट पकड़ सकें।

हमारी धड़कने चरम पर थीं। ….थोड़ी देर बाद हबीब साब ने उस्मान को चले जाने को कहा और मुझे वहीं रुकने को कहा, हालाँकि उस वक्त उस्मान को ये बात ज्यादा पसंद नहीं आयी। मैं अब अकेला 30 पासपोर्ट के साथ, एक ओर हबीब साब के यक़ीन पर रस्क़ कर रह था, तो दूसरी ओर डर भी रहा था। सच कहूँ तो मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। शाम हो रही थी, एम्बेसी बंद होने को थी और देखते-देखते एम्बेसी बंद भी हो गयी।

मैं बेहद निराश था कि अचानक हबीब साब का फ़ोन आया। मेरा दिल ज़ोरों से धक-धक कर रहा था, कि पता नहीं अब क्या? यही कहेंगे कि जाना कैंसिल हो गया, वापस आ जाईये! …..पर ये क्या? हबीब साब बोल रहे थे कि मैं एम्बेसी के अन्दर जाऊँ और जब मैंने उन्हें कहा कि एम्बेसी बंद हो गई है, तो बोले जाइए, उन्हें मेरा नाम लीजिये! ….और फिर जो हुआ वो चमत्कार से कम नहीं था। एम्बेसी खुली, ऑफिसर भुनभुनाता हुआ सबके पासपोर्ट में वीसा का ठप्पा लग रहा था। हुआ ये था कि हबीब साब ने विदेश मंत्रालय (श्रीआनंद शर्मा जी को) फ़ोन करके कहा, कि वे जर्मनी में आयोजित थिएटर फेस्टिवल बॉन बिनाले नहीं जा रहे हैं, क्योंकि एम्बेसी वीज़ा नहीं दे रही। तो उस ऑफिसर को काफी डाँट पड़ी और मज़बूरन एम्बेसी को वीज़ा देना पड़ा।

मैं बेहद खुश था, पर एक घबराहट भी थी। मेरे पास इतने सारे पासपोर्ट थे और शाम के ७ बज रहे थे और मैं अभी भी नरीमन पॉइंट पर था। साढ़े नौ तक एयरपोर्ट पहुंचना था, इसी बीच मुझे गोरेगांव (एन एन पी अपने फ़्लैट में) पहुँच कर सामान उठाना था और अनूप उपाघ्याय (लापता गंज के मामा के किरदार से हिट) को मीरा रोड से आना था। …..जैसे-तैसे, भागते-दौड़ते, बिलकुल आखिरी वक़्त में हम एयरपोर्ट पहुंचे। ….सच कहूं तो मैं, मेरे खुदा का बेहद शुक्रगुजार हूँ, कि हबीब साब का मुझ पर बेहद यक़ीन और स्नेह था। खैर…! इस मशक़्क़त के बाद, ग्रुप के लोग देर रात दिल्ली और अलसुबह एयर इंडिया की फ्लाइट पकड़कर फ्रैंकफर्ट पहुंचे। हबीब साब, बेटी नगीन के साथ लुप्ताहांसा की फ्लाइट से बाद में आये।

करीब 7 घंटे की खाते-पीते हुए हवाई यात्रा के बाद हम जर्मनी पहुंचे। मेरी ये पहली अंतर्राष्ट्रीय फ़्लाइट थी। इतना बड़ा जहाज पहली बार देखा था, घरेलू जहाज इसके सामने साईज़ में कहीं नहीं टिकता था। वहीं पहली बार पता चला कि खाना के साथ शराब भी असीमित मात्रा में पीने को मिलती थी, हमने तो संयम से पीया लेकिन कुछ लोगों ने इतना पीया कि जब जर्मनी के एक बेहद बड़े एयरपोर्ट फ्रैंकफर्ट में उतरे तो कुछ लोग अच्छे- खासे नशे हालत में थे।

ख़ैर एयरपोर्ट से निकल कर हम सब एक बस के ज़रिये, बॉन सिटी में आयोजित थिएटर फेस्टिवल पहुंचे। सारे माहौल को आँखों में बसा लेने की कवायद करते हुए होटल पहुँचकर चेक इन किया। रिहर्सल का किसी को होश नहीं था, सबने अपना ज़्यादा ध्यान घूमने में लगाया। लोकल ख़ूबसूरत वालिंटर लड़कियों के साथ, यूरोप के इस देश के नज़ारों को जैसे पी लेना चाहते थे हम सब।

बॉन से थोड़ी दूर स्थित कोलोन सिटी घूमना वाकई बेहद आंनद दायक था। मात्र 2 यूरो में एक ऐसा टिकिट लिया, जिससे बस या ट्रेन किसी से भी, पूरे दिन यात्रा कर सकते थे। लोगों ने खूब मस्ती की। विजय शुक्ल जी, बॉन रेलवे स्टेशन पर पटरियों को क्रॉस करके, जर्मनी के क़ानून को तोड़ने का मज़ा लूटते हुए, पुलिस के गिरफ़्त में आने से बमुश्किल बचे। फिर रात में चैतराम साहेब ने नशे में, महिला शो की प्रबंधक को कुछ यूं छेड़ा कि अगर हबीब साब न होते तो वे यूरोप की हवालात में होते।

वैसे भी ग्रुप में नशे के चक्कर के इतने किस्से हैं कि सबको न सुनाना ही अच्छी बात होगी । तो जो भी हो इस सबमें जर्मनी के थिएटर फेस्टिवल बॉन बिनाले में अब नया थिएटर ग्रुप के रंग साथियों के लिए ये बुरा हो गया कि खाने के साथ रोज़ चार यूरो का मिल रहा एक मुफ़्त का पैग मिलना बंद हो गया ! अब चार यूरो, भला एक पैग के लिए कौन देता जहाँ दिन में लंच आदि के लिए केवल दस यूरो मिलते हो। उस समय यानि 2006 में बॉन में करीब डेढ़ यूरो का पानी और चार यूरो का सादा सा शाकाहारी लंच मिलता था ।

हालांकि शाकाहारी लंच को तलाश करने में काफ़ी मेहनत करनी पड़ी, पहले तो वेज मांगने के बाद एक रेस्ट्रोरेंट में पोर्क खाते- खाते बचे फिर साथ की वालिंटर लड़की ने बताया कि यहाँ वेज़ या नॉन वेज़ नहीं समझते, आप मीट या विदआउट मीट पूछिए..ऐसे में आयोजन स्थल से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक वेज़ – नॉन वेज़ समझने वाला छोटा रेस्ट्रोरेंट मिला जिसे एक पाकिस्तानी सज्जन चला रहे थे। हम बेहद खुश हुए, इन सज्जन ने ये जानकारी भी दी कि यहाँ हम सब एशियन हैं कोई भारतीय या पाकिस्तानी नहीं ! ख़ैर ऐसे ही हम सबके प्रवास के 5 दिन-रात गुज़रे..और ऐसे ही टुकड़ों-टुकड़ों में सब घूमते – घामते हुए रिहर्सल में पहुँचते रहे ।

इस मौके का एक बड़ा ही रोचक किस्सा है। हुआ ये कि रिहर्सल के समय हबीब साब, हमेशा की तरह अपना पाईप पी रहे थे कि अचानक सायरन बजने लगा। आयोजक भागे-भागे आये और उनसे अनुरोध किया कि वो पाईप बुझा दें, वर्ना थोड़ी देर में पुलिस आ जायगी और सभागार में पानी गिरने लगेगा। पर हबीब साब बोले कि वे उनके लिए अपनी ज़माने भर की आदत को नहीं छोड़ सकते, बेहतर होगा कि वे पुलिस से बात करें और सायरन बंद करें, आख़िरकार वैसा ही हुआ। यहाँ भी एक अलग अनुभव उन जर्मन महाशय के साथ हुआ जो हबीब साब से वार्तालाप कर रहे थे। उनसे हम लोग भी अपनी टूटी – फूटी इंग्लिश में संवाद कर रहे थे, ये देखकर उन्होंने ऐसी शुद्ध हिंदी में बात करना शुरु कर दिया कि हम सब आवाक रह गए । बाद में पता चला कि वे वहां के विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर थे।

ये शो बेहद कामयाब रहा। तक़रीबन 15 मिनट तक सबने खड़े हो कर तालियां बजाईं। बता दूँ कि सभी दर्शक हेड फोन लगाए हुए थे जिसमें हमारे द्वारा बोले गए हर संवाद को वे जर्मन में अनुवादित होकर सुन रहे थे। इस सबके ऊपर हबीब साब की शख्सियत , बेहद ज़हीन और थिएटर की दुनिया में एक अलग मक़ाम रखती थी। उनके प्ले केवल 2-4 लोगों के नीरस से किरदार नहीं होते थे, बल्कि वो एक उत्सव होते थे। उसमें समूह का दर्द या उसका उल्लास शामिल होता था।

उनके नाटकों में भीड़ में किरदार होते थे या यूँ कहें कि भीड़ ही किरदार होती थी, इसलिए भीड़ के छोटे से छोटे किरदारों के लिए हबीब साब बेहद सीरियस होते थे और उनसे खूब मोहब्बत भी करते थे। शो के लिए ज़्यादातर वे ही सभी को फोन करते थे हालांकि कुछ लोगों को ये बात नागवार गुजरती थी। जैसे मेरे लिए कुछ लोग कहते थे, कि केवल लोटा उठाने के लिए हबीब साब शुक्ला को बुलाते हैँ और हबीब साब भी कह देते थे, कि आलोक शुक्ला जैसे कोई लोटा उठा भी नहीं सकता।

वास्तव में, मैं अजनबी के इतर जो ब्राह्मण का किरदार करता था, उसमें नाटक की शुरुआत में और मंध्यांतर के बाद, वो जनेऊ चढ़ा कर लोटा लेकर (लैट्रिन करने) जाता है। हालांकि लोगों के छोटे रोल के मज़ाक़ से आहत होकर या कहें कि मैं अपनी नासमझी में ये सोचकर कि बड़ा रोल करने पर सब ठीक हो जाएगा, हबीब साब से कोई और बड़ा रोल देने को जब-तब बोलता रहता था। दुर्योग ये कि जब एक नाटक में, एक बड़े रोल के लिए भोपाल बुलाया तो मैंने मना कर दिया, (क्या है वो वाक्या आगे आपको बताऊंगा)।

जो भी हो, पर सच ये है कि हबीब साब अपने सभी कलाकारों को खूब मानते थे। इसका एक बड़ा उदाहरण है, कि जब एक दफ़ा मैंने उन्हें अपने यहाँ (गोरेगांव पूर्व मुंबई NNP फ्लैट में) खाने पर बुलाया तो बोले लंच तो नसीर (नसीरुद्दीन शाह जी) के यहाँ कर रहा हूँ, रात के खाने पर आता हूँ। जब वे आये रात के खाने पर, तो क्या महफ़िल जमी? खाना–पीना और संदीप मुखर्जी जी का हारमोनियम और उनकी ग़ज़लें, अनूप उपाध्यय( लापतागंज के मामा जी के रोल से प्रसिद्द), मनोज संतोषी(भाबी जी घर पर हैं, के लेखक के रूप में हिट), शक्ति पाण्डेय और रूमा रजनी।हबीब साब दूसरे दिन पृथ्वी में कई लोगों से ये कहते मिले कि पार्टी देनी है तो आलोक शुक्ला से सीखिए कि कैसे पार्टी दी जाती है…!

इसके बाद जब हबीब साब सुभाष घई की फिल्म ब्लैक & व्हाइट की शूटिंग के लिए मुंबई आये, तो उन्होंने बांद्रा वेस्ट के लीला होटल में ब्रेकफास्ट पर मिलने के लिए बुलाया। वास्तव में वे मुझे शूटिंग पर ले जाना चाहते थे लेकिन मैं उस समय एक सीरियल (शायद आम्रपाली) के शूट में व्यस्त था, बाद में पता चला कि वे राना को साथ ले गए। पर उन्होंने मुझे याद किया, ये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात थी।

यहाँ बता दूँ कि भले ही हबीब साब अपने एक्टर्स से स्नेह करते थे, लेकिन नाटक की तैयारी के समय वे अपने स्नेह का एक अलग ही रूप दिखाते। एक्टर को सुधारने के लिए, कभी-कभी स्नेह भरी नाराज़गी, कुछ इस तरह करते, कि वो सही करने लगता और उसे पता भी नहीं चलता।

ऐसा ही एक वाक्या मुझसे जुड़ा हुआ है, जो वास्तव में मसल्स मेमोरी का बड़ा उदाहरण है। हुआ ये कि 2004 या शायद 2005 के पृथ्वी थिएटर फेस्टिवल में आगरा बाज़ार, हारमोनी सर्कल काला घोड़ा में होना था और यहाँ के शो के बाद इसका शो करने बंगलोर जाना था शंकर नाग फेस्टिवल में। मेरे अजनबी वाले किरदार की एग्जिट का संवाद- “परेशान कर दिया” की टाइमिंग नहीं बन पा रही थी और मैं भी लाइन ठीक से नहीं डिलीवर कर पा रहा था, सामने हबीब साब से मिलने आए हुए मशहूर फ़िल्म मेकर सुधीर मिश्रा बैठे हुए, मैं बेहद असहज स्थिति में था। हबीब साब ने एक दो बार बताया लेकिन उसके बाद वे नाराज हो कर बोले- अगर अब नहीं बोला तो आप बंगलोर नहीं चल रहे हैं और कमाल देखिए कि इसके बाद, हर बार मेरे मुंह से सही तरीके से लाइन निकली।

वहीं हबीब साब अपने ग्रुप को लेकर बेहद संजीदा भी रहते थे ऐसे ही एक दफा नेहरू सेंटर मुंबई ‘राजरक्त’ के शो के दौरान आमिर खान, अपने भांजे इमरान के साथ आये, पूरा प्ले देखा और अनुरोध किया कि वे उनके भांजे इमरान को अपने साथ कुछ महीने ग्रुप में रखकर एक्टिंग सिखाएं, इमरान बड़े बेचारे से वहां खड़े थे लेकिन मजाल थी कि हबीब साब पिघल जाए ( जब बाद में उन्हें हमने कहा कि क्यों नहीं लिया तो बोले हमारे ग्रुप के एक्टर्स इतने समझदार नहीं हैं , साले खाने पीने के बाद ऐसा बवाल करते हैं कि पूछों मत , ऐसे में तो सारे ग्रुप की हर जगह इज्ज़त ही उतर जायेगी.. और सच मानिये वे कुछ हद तक सही थे )

हालाँकि बाद में आमिर के बहुत कहने पर इमरान को भोपाल बुलाया ज़रूर लेकिन इमरान कुछ ही समय बाद मुंबई वापिस चले गए और उन्हें भी समझ आ गया कि हबीब साब क्यों मना कर रहे थे लेकिन इसके बाद भी आमिर खान का सम्मान इस ग्रुप के लिए वैसे ही बना रहा ,वैसे इस प्ले में मैं बैक स्टेज था और ये ही वो प्ले राजरक्त था जिसमें राजा के भाई के किरदार करने के लिए हबीब साब ने दो हफ्ते के लिए भोपाल आने के लिए फ़ोन किया लेकिन मुंबई कि झूठी आशाओं ने मुझे उनके इस ऑफर को मना करने को मजबूर कर दिया.. जो शायद कर लेता तो अच्छा होता और इस बात का मलाल ता-उम्र रहेगा।

कुछ भी हो लेकिन हबीब साब के साथ के कारण पृथ्वी में मेरी थोड़ी पूछ बढ़ी, मैक सर (मकरंद देशपांडे जी ) के ग्रुप से नजदीकियां बढ़ी और उनके ग्रुप से बच्चों का प्ले कर रहे संजीव रजत से जुड़ गया, इसमें एक रोल सुरेश दुबे ने भी किया ( रीवा में छोटे भाई के दोस्त सुरेश मुंबई आने के पहले से ही हमेशा मेरी तरफ मदद भरी आशाओं से देखतें और मैं भरसक कोशिश भी करता उसे पूरा करने में फिर वो चाहे कोई भी हो और बदले में वे इसका ज़िक्र करें या न करें जैसे बाद में अवधेश खरे, हरिश्चंद्र रॉय भी आये और मुझसे जो हो सका वो किया)

खैर ऐसे समय कुछेक लोगों के साथ ‘पृथ्वी’ में साथ बैठने वालों का एक दोस्ताना समूह भी बना जिसमे गोगा कपूर की लड़की पायल ,आनंद शर्मा, रोहित भारद्वाज, मनोज सिंह टाइगर आदि शामिल थे जबकि मैक सर के ग्रुप के भूपेश ,अनिल भाई , विनोद, विजय , मुकेश भट्ट और सत्यदेव दुबे जी के ग्रुप के मानव कौल ,राजेश सिंह आदि भी एक अलग किनारे के साथी बने, जबकि अपने कुमुद मिश्रा भाई से भी कभी कभार मुलाकाते होती रहती लेकिन इससे बस मन की जुगाली होती या फिर कभी कभार कुछ काम की सूचनाएं मिल जाती।

इस तरह रंगमंच के साथ कुछ इधर उधर काम करते हुए परिचित बने जाने माने संगीतकार रवि जी के पुत्र अजय शर्मा जी, दूरदर्शन के लिए एक्टिंग टैलेंट हंट कलाकार्ज़ की प्लानिंग कर रहे थे,तो उसमे उनके साथ मैं क्रिएटिव के रूप में जुड़ गया. अपने थिएटर- बैकग्राउंड का फायदा उठाकर कई शहरों में ऑडिशन किये/ करवाए और फिर सारे सलेक्टेड कलाकारों को एक्टिंग का पाठ पढ़ाया , उन्हें महीनों ग्रूम किया…, बाद में मशहूर बॉलीवुड लेखक सागर सरहदी जी ने एक नाटक निर्देशित करने को कहा और उसकी कास्टिंग भी कर दी जिसमें नए नए आये राकेश चतुवेदी भी शामिल थे लेकिन ग्रुप में जो नए लोग अपनी जगह बना चुके थे वे फिर से मुझे उनकी गुड लिस्ट में शामिल नहीं होने दे सकते थे सो नाटक नहीं हुआ , तब मैंने एक सोलो प्ले ‘ख्वाब’ लिखा और उसे सागर साब के यहाँ सुनाया जिसे सुनने के बाद सागर साब ने अपनी प्यार भरी गाली देते हुए बोले। ‘….. तूने अल्टीमेट लिख दिया है अब तू चाहे तो मर सकता है’ बाद में उन्होंने इस पर फिल्म बनने की भी बात की जो कभी नहीं बन सकी , मैंने इस सोलो प्ले को पृथ्वी में बतौर ऑडिशन हिदा भाई (हिदायत सामी) के सामने प्लेटफॉर्म में करके दिखाया तो थोड़ी देर तक संजना कपूर ने देखने के बाद कहा कि it’s a Very serious play, you need to try for inside, और इसके लिए समीरा से मिलने को कहा, समीरा से एक महीने बाद पूछा तो कहा कि मुकेश से मिल लो.. इससे रुष्ट होकर मैंने पूछना ही बंद कर दिया, इस तरह अन्दर शो करने की तारीख मिलते – मिलते नहीं मिल सकी.. बहरहाल सागर साब से अभी तक राफ़्ता बना हुआ था , वे भी हबीब साब की तरह मेरी पार्टी में आते और बेहद खुश होते।

इस सबमें इन सालों( फ़रवरी 2007 से मार्च 2009 तक) में एक बात बेहद रोमांचित करती थी कि मैं एक ओर एक चैनल स्पेस टीवी में बतौर मुंबई हेड काम करने लगा था, चैनल के शोज़ की क्रिएटिव राइटिंग कर रहा था तो हर महीने उन्हें डायरेक्ट करने के लिए मुम्बई और मुंबई के आस पास जाता रहता तो दूसरी ओर जब भी आगरा बाज़ार के शो होते, हबीब साब बुलाते और हम उड़ जाते शो करने अपने सारे काम धाम छोड़कर।

नाटक का शो हम सबके लिए किसी उत्सव से कम नहीं था। ऐसे ही एक शो करने के लिए 2007 में भाभी जी घर हैँ फेम मनोज संतोषी और अनुप उपाध्यय के साथ गोहाटी गया, उस समय ‘मैं स्पेस टीवी का मुंबई हेड था तो थोड़ा पैसे वाला था तो करीब 22 हज़ार के सबके टिकिट मैने करवा दिया , और जब गोहाटी के दिसपुर् एयरपोर्ट से आयोजन स्थल पहुंचे, हर जगह सेना के जवान खड़े दिखे, यहाँ तक क़ी जितनी बार हम आयोजन स्थल से निकल कर वापिस आते उतनी बार हमारी चेकिंग होती, हम यहाँ शाम 4 बजे तक पहुँचे, शो किया और तड़के सुबह की फ्लाइट से मुंबई वापिस आ गए।

ऐसे ही हमारी तिकड़ी 2008 में दिल्ली शो करने दोपहर में पहुंची, शो किया , फिर अनुप त्रिवेदी और बॉबी और हम लोग ने निजामुद्दीन में एक जगह बैठ कर रात भर खाया पिया और फिर तड़के सुबह की फ्लाइट से मुंबई आ गए लेकिन मुझे छोड़के दोनों ने असीमित सुरापान से हालत खराब कर ली, जिसमें अनुप उपाध्यय तो कंट्रोल में रहे लेकिन मनोज संतोषी नहीं थे और बेतहाशा बदबू मार रहे थे फिर भी ज़बरदस्ती मेरे साथ बैठने की जिद करने लगे तो खूब बहस हो गई आख़िरकार क्रू की मदद से उन्हें एक अलग सीट दी गई जहाँ वे मुंबई तक बेहोश से पड़े रहे ।

बता दूँ कि नाटक के बाद सुरापान और उसकी विकृति ज़्यादातर थिएटर ग्रुप का एक ज़रूरी हिस्सा रहा है जिसे बहुत अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता पर ये कि इसे भूल कर एक्टर फिर अपने शो की तैयारी में लग जाता है।(इसे ही अमोल पालेकर जी ने अपनी आत्मकथा अमानत में नाटक का चौथा अंक करार दिया)। अमोल दा के साथ नाटक में तो नहीं लेकिन उनके निर्देशन में पहेली फिल्म में अभिनय करने के साथ, उनके सीरियल कृष्णकली में अभिनय के साथ मुख्य निर्देशन सहायक काम करने का अवसर मिला तो उन्हें एक्टिंग टैलेंट हंट सीरियल कलाकार्ज़ में मुख्य निर्णायक की भूमिका में क्रिएटिव हेड रहते हुए निर्देशित भी किया।)

यहाँ एक ख़ास बात बताऊँ कि हबीब साब के साथ काम करते हुए एक बात जानकर बड़ा अचरज हुआ कि जब भी वे कोई नया नाटक उठाते तो पहला शो केवल कुछ चुनिंदा लोगों के बीच बिना किसी ताम झाम के करते और फिर मिले फीड बैक के बेस पर उस नाटक में सुधार करते फिर उसका पब्लिक शो करते थे, ये एक बड़े डायरेक्टर की बड़ी बात थी कि इतना कुछ करके वे अपने को खुदा नहीं समझते थे और आज दो नाटक करके ही लोग खुदा बन जाया करते हैं । इसी प्रक्रिया में 1954 में महज आधे घंटे का आगरा बाज़ार नाटक आज ढाई घंटे का एक कालजयी नाटक बनकर हमारे आपके सामने है।

मुम्बई , मुम्बई न रहा और न रहे हबीब साब और सूखने लगा रंगकर्म का पौधा…जून 2009 से 2012 – दिल्ली/ मुंबई – स्पेस टीवी ब्यूरो बंद हो गया था और अब मुम्बई में न मालूम क्यों काम की ढेरों संभावनाएं भी मुझे नही लुभा पा रही थी, रंगमंच में परम गुरुदेव हबीब साब के नाम की बदौलत एक ज़मीन बनाते हुए, टेलीविजन के निर्देशन में बाला जी , अमोल पालेकर जी और बासु चटर्जी जी के साथ काम करते हुए सीखते हुए, सागर सरहदी जी से लेखन की प्रेरणा लेने के साथ टीवी सीरियल्स के करीब 150-200 एपिसोड्स (मिसिंग, योर हॉनर, क्योकि सास भी.., स्वाभिमान, शांति, युग, समर्पण घर एक मंदिर, रूमानी दुनियां आदि), कई शार्ट फिल्म्स और फीचर फिल्म्स( धन्ना, डरना ज़रूरी है ,पहेली, भंवर, हलवा आदि) के बाद भी एक माकूल सी जगह नहीं बन पाने की बेचैनी से राहत केवल हबीब तनवीर सर के साथ रंगकर्म करते हुए मिल रही थी।

ऐसे में एक चैनल की मीटिंग हेतु महुआ चैनल के हेड राघवेश अस्थाना जी से मिलने जब दिल्ली पहुँच कर उनके नॉएडा के घर पर मैं बाहर बॉलकनी में खड़ा ही हुआ था कि अनूप उपाध्यय का फ़ोन आया और उसने बोला-आलोक…हबीब साब नहीं रहे, ऐसा लगा जैसे कानो में किसी ने पारा भर दिया हो , कुछ समझ नहीं आया, काफी देर यूँ ही आसमान की ओर सन्नाटें में खड़ा रहा , अचानक आँखें डबडबा आई , सब धूमिल सा हो गया. लगा अब कुछ नहीं बचा…. रंगकर्म , मेरे जीवन का आधार था…..वो अब नहीं रहा.. रंगकर्म के इस सन्नाटें में करीब दो ढाई साल प्रज्ञा चैनल में बतौर ऑपरेशन मैनेजर काम करते हुए गुजर गए तो 2010 में सुश्री नीतू से मेरा विवाह भी हो गया जिसमें नया थिएटर परिवार के अनूप त्रिवेदी ,पुरषोत्तम भट्ट जी , शैलेंद्र जी , वामिक भाई, अनूप रंजन पाण्डेय भैया आदि शामिल हुए तो मेरे चैनल प्रज्ञा परिवार के लोगों के साथ मुंबई के संदीप मुखर्जी जी और शैलेन्द्र और प्रीति गौढ़ ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया ।

वहीं हबीब साब के न रहने से नया थिएटर की गतिविधियाँ सिकुड़ सी गई थी, जो स्वाभाविक ही था, लोग थोड़ा बिखर से गए तो हबीब साब की बेटी नगीन उस लिगेसी को खींच नहीं पा रहीं थीं ऐसे में रामचंद्र सिंह भाई के मार्गदर्शन में नया थिएटर अपनी नाट्य प्रस्तुतियों से आगे तो बढ़ने लगा लेकिन छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, दिल्ली और मुंबई के करीब तीन दर्जन कलाकारों को जोड़कर बना ‘आगरा बाज़ार’ पहले वाली निरंतरता प्राप्त नहीं कर सका हालांकि राम भाई इसे करने की पूरी कोशिश करते रहते हैं ऐसे ही हबीब साब के बाद उनकी स्मृति में सितंबर 2011 में नेहरू सेंटर मुंबई में हुआ। इस शो के दौरान ही आमिर खान और किरण जी ने ग्रुप के लोगों को लेकर जो फिल्म पीपली लाइव बनाई थी ,उसका प्रीमिअर पीवीआर जुहू में हुआ और जहाँ मैं भी सारे ग्रुप के साथ इसमें शामिल हुआ..ये बेहद अच्छा अनुभव रहा।

इसके बाद आज तक ‘आगरा बाज़ार’ बीच -बीच में कुछ सालों बाद कभी संगीत नाटक अकादमी तो कभी बंगाल की उर्दू अकादमी द्वारा वित्तीय अनुदान देकर तैयार करवाया जाता है, उसी मौके के आस-पास कुछेक शोज होते हैं और फिर ये ठंडे बस्ते में चला जाता लेकिन ग्रुप से इतनी प्रगाढ़ता है कि जब भी दिल्ली कोई भी शो करने आते थे तो मैं उसमें किसी न किसी रूप से जुड़ जाता था, इसी प्रेम में चरणदास चोर के कई शो में एक्ट किया ।

रंगकर्म से बनीं दूरियां, रंजीत कपूर और नया थिएटर…(मुंबई/ दिल्ली – 2013 से 2015)- ये वक्त थिएटर से थोड़ी दूरियाँ ज़रूर लेकर लाया लेकिन बाद के सालों में फिर वापस रंगकर्म, मेरे जीवन का हिस्सा बन गया, शुरू के इन सालों में दिल्ली में जोयस सर के ज़रिये ट्रेवल ट्रेंड्ज़ चैनल के कुछ प्रोजेक्ट्स को लिखा और उन्हें निर्देशित किया इसके बाद मेरी व्यस्तताएं थोड़ी घटी तो मुंबई पंहुचा, संबंधों को पुनर्जीवित किया, रंगकर्मी मित्र अरुण शेखर के कहने पर नानावटी के मीडिया सेक्सन में विजटिंग फैकेल्टी जुड़ गया( मित्र रविन्द्र कात्यायन के यहाँ जो HOD थे ) ) कुछ लिखने की कोशिश की, जिसमे मैंने अपनी एक अधूरी कहने ‘बोलाई और चंपा’ को पूरा किया,(बाद में ये कहानी समकालीन भारतीय साहित्य के मार्च अप्रैल 2016 के अंक में प्रकाशित हुई )

2014 में दिल्ली की परिचित रंग साथी शिवानी के ज़रिये रंजीत कपूर से मिला जो जी टीवी के लिए अपना प्ले ‘जनपथ किस’ कर रहे थे, उसमें नया थिएटर के अपने विजय शुक्ल भाई और चंदू भी थे ,मैंने मास्टर जी और पुलिस के लिए रिहर्सल किया , रंजीत कपूर सर ने खूब पसंद भी किया और जल्द ही इस नाटक को शूट करने की बात हुई लेकिन अपरिहार्य कारणों से चीजे आगे नहीं बढ़ीं और ऐसे में ही इसी साल सितंबर में मुंबई में न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के नोइडा ऑफिस को ज्वाइन करने का ऑफर मिला तो फिर से दिल्ली आ गया, 7 महीने बाद इस चैनल में में कुछ गड़बड़ी हुई तो अपने पुराने चैनल प्रज्ञा के वेंचर महुआ प्लस आ गया , यहाँ राघवेश अस्थाना जी ( चेन्नई में हिंदी थिएटर की शुरुवात करने वाले और भोजपुरी चैनल महुआ के संस्थापक सीईओ ) के नाटक की रीडिंग हुई पर मामला आगे न बढ़ा, तभी मुम्बई से जाने माने लेखक सी एल सैनी ने एक वर्कशॉप करने के लिए सहारनपुर बुक फेयर में बुलाया , इस 2 दिन की वर्कशॉप में सैकड़ों लोगों ने भाग लिया , बेहद मज़ा आया ,ऐसे ही एक लम्बे समय के बाद भाई रामचंद्र सिंह( नया थिएटर के डायरेक्टर जिन्हें उसी साल संगीत नाटक अकादमी का अवार्ड मिला था ) से बात हुई। वे मेघदूत में विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ए मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ के हबीब साब के रूपांतरण “कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना” करने आ रहे थे , मैं यहाँ सबसे मिला और प्ले में बैक स्टेज काम किया, यहाँ एक लंबे अर्से बाद नया थिएटर से जुड़ कर मैंने अपने को एकदम ताज़ा पाया फिर कुछ महीनों बाद इंडिया इंटरनेशनल सेंटर नई दिल्ली में जब ग्रुप जोहरा सहगल फेस्टिवल में, चरनदास चोर करने आया, तो फिर प्ले से जुड़ गया , इसने मुझे बेहद सुकून दिया और लगा अभी भी मेरे अन्दर के रंगकर्म का सफ़र बाकी है, शायद हबीब साब के ग्रुप से एक बार फिर जुड़ने ने ये साहस दिया । ग्रुप के साथ जुड़कर कुछ भी करने में ऐसा लगता जैसे हबीब साब बस आस -पास हैं।

निरंतर हो चला रंगकर्म पर नया थिएटर के चलने पर लगे सवालिया निशान..(2016 और आगे के साल) जहाँ दिल्ली में मेरे रंगकर्म में एक निरंतरता आ रही थी तो वहीं आगे आने वाले सालों में हबीब साब की बेटी नगीन की बाल सुलभ हठधर्मिता ने नया थिएटर के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया। रिपेट्री ग्रांट का आवेदन तक नहीं किया गया। कुछ लोग इसे रामचंद सिंह और नगीन के बीच वर्चस्व की लड़ाई भी कहते नज़र आये लेकिन इन्हीं राम भाई ने तारीख गुजर जाने के बाद दौड़ भागकर करीब दो हफ्ते दिल्ली में मेरे पास रहकर रिपेट्री ग्रांट का आवेदन किया क्योंकि वे संगीत नाटक अकादमी अवार्डी थे और अवार्ड प्राप्त लोगों को आवेदन तिथि की बंदिश नहीं होती। वहीं कभी कमला प्रसाद जी, कभी गुंडेचा बंधु कभी ग्रुप के ही अनुप रंजन पाण्डेय जी, वामिक भाई आदि ने नगीन को ग्रुप को चलते रहने के लिए राम की आवश्यकता पर बल दिया ।

इस सबके बीच जीवन यापन हेतु कुछ और करना बेहद ज़रूरी था तो उसी की तलाश में ग्रीन हाउस पर एक डॉक्युमेंटरी करने रायपुर गया तो स्वच्छता पर शार्ट फिल्म बनाई NFDC के लिए, ऐसे ही एक डॉक्युमेंटरी करते हुए दिन अचानक जब शिवानी ने रंजीत कपूर जी के प्ले ‘ एक घोड़ा छः सवार’ में पद्म जी के किरदार को करने के लिए फ़ोन किया तो रंगकर्म का सफ़र फिर से चल पड़ा, 2016 सितंबर को, गाज़ियाबाद के हिंदी भवन में बेहतरीन शो हुआ जिसे राजेश अग्रवाल जी ने प्रोड्युज़ किया उसके बाद अप्रैल 2017 में रोहिणी सेक्टर 22 के अग्रसेन सभागार में भी इसका शो किया लेकिन दिसंबर में इंदौर वाला शो नहीं कर पाया था उस दौरान मैं एक प्रोजेक्ट के चलते छत्तीसग़ढ के बस्तर, सरगुजा और सुरजपुर जिलों में करीब डेढ़ सौ गांव में चिकेन वैक्सीन का अवेयरनेस कैंपन करते हुए अत्यधिक व्यस्त था।

वैसे इन व्यस्तताओं के दरम्यां रंगकर्म का एक अलग तरह का नया अनुभव तब हुआ जब नया थिएटर के रंग साथी अनूप त्रिवेदी ने दीनबंधु छोटूराम विश्वविद्यालय मुरथल (सोनीपत-हरियाणा) में हो रहे सालाना यूथ फेस्टिवल रिदम 2016 के थिअट्रिकल इवेंट्स में बतौर निर्णायक जाने को पूछा, मना करने का कोई कारण न था सो वहाँ जाना हुआ और वहाँ युवाओं का उत्साह देखते ही बनता था ,ज़्यादतर छात्रों ने वर्तमान मुद्दों पर अपनी स्क्रिप्ट बना कर वन एक्ट प्ले , माइम , नुक्कड़ नाटक , स्पूफ, सोलो एक्ट आदि किए , यह देखना बेहद ख़ुशी देने वाला था ,इसने मेरे खुद के युवा दिनों को एकदम सजीव कर दिया,ऐसे ही उत्साहित करने वाला दृश्य उस समय दिखा जब 2 नवम्बर 2016 को थिएटर ब्लॉगर रंगकर्मी मित्र अमितेश की सलाह पर इंटर कालेज स्किट कॉम्पिटिशिन में बतौर जुरी मेंबर श्री राम कॉलेज में जाना हुआ पर सच कहे तो रंगकर्म की भटकन बनी ही रही, इसी भटकन में नया थिएटर के रंग स्नेही अनूप रंजन पाण्डेय जी ने संगीत नाटक अकादमी के उप निदेशक सुमन कुमार जी से मिलवाया और उनके साथ विंध्य के लोक नाट्य छाहुर् पर कुछ करने की चर्चाएँ हुई, इसी बीच नया थिएटर के रंग मित्र रामचन्द्र सिंह भाई, नया थिएटर की रिपेटरी के काम से एनएसडी की मीटिंग में आये और 2-3 दिन साथ रहे( नगीन तनवीर भी आई थी लेकिन वे कहीं और रुकी थीं) बहरहाल इस दौरान मैंने अपने लिखे एकल नाट्य ‘ ख्वाब’ को उनके साथ करने की चर्चा की, इस पर आगे विस्तार से लिखा है बस ये कि आने वालों सालों में इस ख़्वाब की इस चर्चा ने रंगकर्म का नया रोशनदान खोल दिया।

इस सबके बीच परिवार के साथ इस ब़ार अपने शहर रीवां के प्रवास के दौरान शहर में रंगकर्म को नई धार देते प्रिय मनोज मिश्रा और उनके स्नेही रंग साथी विपुल से भी भविष्य में कुछ करने की चर्चाएँ हुई हैं, उनके रंग समूह मंडप में मेरे नाटक ‘ख्वाब’ पाठ हुआ , इसी के साथ परम स्नेही प्रसिद्ध समालोचक सेवाराम त्रिपाठी और कहानीकार विवेक दिवेदी जी के सौजन्य से पाठक मंच में मेरी कहानी ‘ बोलाई और चंपा ‘ का पाठ हुआ , स्थानीय राज्य मंत्री और अब प्रदेश के उप मुख्यमंत्री श्री राजेंद्र शुक्ल जी से , शहर में बन रहे राजकपूर स्मृति नाट्यगार पर चर्चा हुई तो लगे हाथ अपनी सुप्त पड़ी संस्था ‘प्रासंगिक’ को पुनर्जीवित करने की भी कोशिशें की… शहर के कई रंगस्नेही अनवार सिद्दीकी जी , योगेश त्रिपाठी जी , भाई हीरेन्द्र सिंह आदि स्थानीय रंगधर्मिता के जुड़े लोगो के साथ काफी चर्चाएँ हुई, समीप के शहर सतना में संयोगवश पुराने मित्र के के सिंह के साथ राघवेश अस्थाना जी से मिलना हुआ , राघवेश जी, चेन्नई में हिंदी रंगमंच के सूत्रधार होने के साथ मेरे 20 साल के मुंबई और दिल्ली के बॉलीवुड और मीडिया के सफ़र के साक्षी और मार्गदर्शक हैं , और ख़ुशी की बात ये कि दिल्ली वापिस आने पर रीवां के 90 के दशक के समय के एक साथी प्रसिद्द डांसर स्वर्गीय उमेश शुक्ला के समय की संगीत मंडली के एक नवांकुर सुशील शर्मा और उनकी NSD पासआउट वीणा शर्मा से उनके नाटक ‘ लागी छूटे न ” के जरिए सुखद मिलना हुआ. ये सब बाते कैसे ऊर्जा देती हैं , ये बात केवल एक रंगकर्मी ही जान सकता है।

रीवा से दिल्ली आने पर रंगकर्म की कोशिशों में ही रंजीत कपूर जी की सहयोगी रंगनेत्री शिवानी ने दूरदर्शन के अधिकारी और BNA के राजीव राज जी से मिलवाया जो कि दूरदर्शन में हो रहे नाट्योत्सव में रेणु जी की कहानी पंचलेट पर नाटक करने वाले थे और बातों बातों में 15 दिन के अभ्यास के बाद यह नाटक सफलतापूर्वक दूरदर्शन में 18 नवम्बर को मंचित हो गया तो अगले साल अप्रैल 2017 को इसका दूसरा शो चंडीगढ़ विश्वविद्यालय मोहाली में हुआ और इसमें मैंने पंच-1 का किरदार किया।
फिर कुछ इस तरह “ख़्वाब” हुआ पूरा-(दिल्ली -2017-18)मेरा पुराना लिखा हुआ एकल नाटक बार-बार से न सिर्फ अपने होने का एहसास देता था बल्कि उसमें छुपे सन्देश को अब तक लोगों के सामने न ला पाने का दंश भी सालता रहा।

हालाँकि जब इसे सुनकर प्रसिद्ध लेखक सागर सरहदी जी ने काफी तारीफ की तो इसे मुम्बई में करने की काफी कोशिशें की लेकिन मनमाफिक प्लेटफ़ॉर्म न मिलने से दिल में एक खला सी थी ऐसे ही एक रोज़ जब अपने रंग सखा, संगीत नाटक अकादमी के राष्ट्रीय पुरष्कार प्राप्त नया थिएटर के निर्देशक रामचन्द्र सिंह से इस बारे में चर्चा की तो वे तुरंत करने के लिए सहमत हो गए, इसी के साथ प्रसिद्ध रंग निर्देशक और बॉलीवुड के फेमस आर्ट डायरेक्टर और मेरे वरिष्ठ जयन्त देशमुख जी से बात की तो उन्होंने तुरंत सेट की रूपरेखा बना दी।

हालाँकि हम उसे यहाँ पूरी तरह से अमल में लाने की हालत में नहीं हैं ,इसके बाद देवो के देव महादेव, सिया के राम और पृथ्वी वल्लभ के संगीतकार और मेरे वरिष्ठ संदीप मुखर्जी जी ने गीत कम्पोज कर दिए तो साहित्य अकादमी के हिंदी के संपादक कुमार अनुपम जी ने ब्रोसर हेतु अपनी पेंटिंग यूज़ करने की अनुमति दे दी, इसके बाद मेरे अपने स्नेहिल रंग भाई मनोज मिश्र( रीवां) नीरज कुंदर (सीधी) ईश्वर शून्न( दिल्ली) से शो की चर्चा हुई पर इसी बीच साहित्य कला परिषद दिल्ली के भरतमुनि नाट्य समारोह का पता चला तो एक टिमटिमाती आस में आवेदन कर किया जिसे स्वीकार कर लिया गया।

इसके बाद इसका जबरदस्त शो 11 जनवरी 2018 को श्रीराम सेंटर में हुआ, इस मंचन के लिए परम गुरु हबीब तनवीर के महत्वपूर्ण शिष्य भ्राता और प्रसिद्ध रंग निर्देशक अरविन्द गौड़ का आभार जिन्होंने अपना स्टूडियो हमे अभ्यास के लिए मुहैया कराया और आभार हबीब साब के नया थिएटर के वरिष्ठ रंग भ्राता अनूप रंजन पाण्डेय जी का जो सदा कुछ करने हेतु प्रेरित करते रहते हैं, इसके बाद ख़्वाब के राम भाई के मुख्य अभिनय में दिल्ली के साथ गुडगाँव IIT रुरकी और पय्यानुर ( केरल) में शोज किए।

फिर से हबीब साब का नाटक आगरा बाज़ार और मेरा नाटक उसके साथ..2018 के आखिरी कुछेक महीने में नया थिएटर ने हबीब साब के नाटक आगरा बाज़ार को फिर से तैयार किया और इस हेतु सभी पुराने एक्टर्स बुलाये गए जिसमें अपन भी शामिल थे, एक लंबे अंतराल के बाद इसके शोज़ पहले कोलकाता( 9 दिसंबर) और गोहाटी(26 दिसम्बर) में हुए, इसके अगले साल फिर आगरा बाज़ार तैयार हुआ इसके दो शोज 15 दिसंबर 2019 को लखनऊ के रिपेटवायर ड्रामा फेस्टिवल में होने थे। इसके लिए रिहर्सल के लिए नवंबर एन्ड में भोपाल गया और यहीं से रीवा अपनी संस्था से प्रासंगिक द्वारा आयोजित नाट्य कार्यशाला को करने पहुंचा जहाँ उसके साथ नाम का एक महिला प्रधान नाटक किया ।

ये नाटक मेरे साथ 1997 मुम्बई में घटी एक घटना पर आधारित था जहाँ अँधेरी क्रीडा संकुल के सामने एक भिखारन बच्चा पैदा कर रही थी, यह रंग साथी रुमा रजनी के कहने पर लिखा कि इसे वो करेगी हालाँकि पहला शो उसकी जगह MPSD से ट्रेंड और पंचलेट उर्फ़ गैसबत्ती नाटक की सहयोगी एक्ट्रेस अभिलाषा ने किया इसका शो रीवां में अपनी रंग संस्था से एक नाट्य कार्यशाला करते हुए 12 दिसम्बर 2019 को ब्रम्हकुमारी सभागार में किया , इस दौरान एक छोटा हास्य नाटक एक्टिंग वर्कशॉप, भी स्थानीय कलाकारों को ध्यान में रखकर लिखा और किया, दोनों ही नाटकों को लोगों ने खूब पसंद किया, यह स्थानीय रंगकर्मी शैलेंद्र द्विवेदी के सहयोग से किया… (यहाँ ये भी बताता चलूँ कि मेरी रंग संस्था सदा एक अजब स्थिति का शिकार रही कि जब 1993 में बनी तब रिपेट्री ग्रांट का ज्ञान नहीं था और अब जब ज्ञान हुआ या कोशिश करने की सोची तो पहले करोना और फिर मेरी गंभीर बीमारी में साल दर साल गुजर गए और अब ये हाल है कि छः सालों का टैक्स आदि न देने से संस्था के पेपर सुप्तावस्था में हैँ जबकि ‘मैं काम कर रहा हूं)

खैर रीवा में शो के बाद जैसा कि मैने बताया कि आगरा बाज़ार का शो करने लखनऊ गया। तो 2020 की शुरुआत में 11 जनवरी को जावेद ज़ैदी स्मृति नाट्य पाठ के लिए भोपाल गया और ख़्वाब एकल प्ले का नाट्य पाठ किया। इसके अगले ही महीने 4 फरवरी को रुड़की और फिर 6 मार्च को केरल के पैयानूर ख़्वाब का मंचन करने गए। हम केरल से 9 मार्च को लौटकर दिल्ली आ गए, तब तक केरल में कोरोना ने दस्तक दे दी थी.. इस कोरोना ने बाद में पूरे देश का बुरा हाल किया तो मैं तो जैसे मर ही गया था । क्या कैसे हुआ और इससे कैसे उबरा ये आगे विस्तार से बताया है ।

कोरोना, मेरी गंभीर बीमारी और बीमारी के बाद जब रंगमंच ने मुझे ज़िन्दगी दी.. मार्च को केरल से शो करने के बाद दिल्ली वापिसी के दो हफ़्ते ही गुजरे होंगे कि कोरोना के चलते देश में संपूर्ण लॉक डाउन लग गया, इसने सबको अपने अपने घरों में बंद करने को मजबूर कर दिया, पूरे देश में गलियों से लेकर है हवाओं में एक सन्नाटा सा पसर गया। इस सन्नाटे को तोड़ते हुए देश के कई रंगकर्मियों जैसे मैने भी जूम पर नाटकों की ऑनलाइन रीडिंग का उपक्रम शुरू किया, जिसमें श्री अशोक मिश्रा, जे पी सिंह जी जयवर्धन, योगेश त्रिपाठी जी भाई देव फौजदार, आशीष श्रीवास्तव संजय श्रीवास्तव जी और SNA के उप सचिव (ड्रामा) सुमन कुमार जी ने भाग लिया तो ख़ुद भी कई अन्य मंचों पर ऑनलाइन रीडिंग की।

कोरोना पर केंद्रित कुछ कविताएं, एक कहानी और एक नाटक भी लिखा। ये लॉक डाउन 31 मई को ख़त्म हो गया हालांकि कोरोना की दहशत अभी भी क़ायम थी। ये दहशत जैसे मेरे अंदर गहरे पैबस्त हो गई थी जिसके चलते 2 जून 2020 को जब जीबीएस अटैक के कारण मेरा गले के नीचे पूरा जिस्म लाश बन गया बेसिकली मैं नर्व की रेयर बीमारी GBS (अमसम वेरियेंट) का शिकार हो चुका था। ये न ही मेरे कुछ समझ आ रहा था और न ही मेरे आस_पास के लोगों को। सभी जाने अनजाने रंग साथियों के चिंता करते फोन आने लगे और इसी के साथ मदद के लिए ढेरों हाथ आगे बढ़े, नया थिएटर के अनेक लोगों का फोन आया, नया थिएटर के निदेशक रामचंद्र भाई ने कई बार पत्नी नीतू से बात करके हौसला दिया तो रंग वरिष्ठ अरविंद गौड़ जी ने अस्पताल मैनेजमेंट को कई फ़ोन किए और जब तक अस्पताल में रहा और उसके बाद भी रोजाना फोन करके हाल चाल लेते रहे और ऐसे ही अनेकों फ़ोन आते हालांकि मेरी ज्यादातर लोगों से बात नहीं हो पाती क्योंकि मेरा एक सिर ही थोड़ा हिलता था बाकी पूरा जिस्म निस्तेज पड़ा हुआ था ऐसे में कोई अपने हाथ से पकड़ कर मेरे कान पर सटा कर रखता तब ही कोई बात हो पाती थी लेकिन उस दौरान भी मैं बात कम कर पाता था रोता ज़्यादा था ।

खैर इस तरह चौदह दिन के बाद जब घर लौटा तो 73 किलों से 59 किलो वज़न हो गया था, किसी जनाजे की तरह चार लोग टांग कर पांच मंजिलें मकान में ले गए और फिर अंग्रेजी दवाओं के साथ शुरु हुई फीजियो थैरपी , आईवीजी इंजेक्शन लगने के बाद प्रमुख उपाय यही था पर कोई असर होता न देख होपियोपैथी और आर्युवेद की दवाएं की गईं, बंबावाड, इहिवास और मैक्स अस्पताल में दिखाया गया, इसी बीच लूज मोशन ऐसे शुरु हो हुए कि पत्नी दिन में डायपर बदलते बदलते परेशान हो जाती तो मेरी हालत बद से बदतर हो चली, छः महीने हो रहे थे लेकिन गले के नीचे का पूरा बदन छोडिए एक ऊँगली भी नहीं हिला पा रही थी , सबके साथ मुझे भी लगा कि अब नहीं बचुंगा, यहाँ तक कि फीजियो थैरपिस्ट ने कहीं किसी से बोला कि ये अब ठीक नहीं होंगे …ऐसे में पत्नी ने हार नहीं मानी एक दूसरे फीजियो थैरपिस्ट को तलाश करना शुरू किया। पत्नी का संकल्प मुझे किसी भी तरह बचाने का था, पत्नी के संकल्प की ऊर्जा ने मेरे अंदर ये सवाल पैदा किया कि “क्या जो भी मेरा किया धरा या लिखा पढ़ा है सब यूँ ही धरा का धरा रह जाएगा” ? तब मन ने एक निश्चय किया कि नहीं मैं यूँ ही नहीं मर सकता और फिर ऐसे में मेरे जो छोटे बड़े सात नाटक लिखे थे जिनमें से पांच नाटकों का प्रोडक्शन कर चुका था।

हालाँकि इसमें बीमारी के पहले लिखे एक फुल लेंथ नाटक में थोड़ा सुधार करना था तो अपने बारह वर्षीय बेटे को लैपटॉप लेकर बैठाया, ठीक करवाया और फिर इसके छपने की संभावना के लिए बेटे से बोलकर इधर उधर फोन लगवाया, इसी तलाश में मारवाह स्टूडियो के ब्राडकास्टिंग डायरेक्टर सुशील भारती जी से बात हुई जिनका राही पब्लिकेशन था, छपने के लिए स्पांसर करने के लिए कला भारती फाउंडेशन की ममता सोनी जी आगे आईं…. इस नाट्य संग्रह को छपने में करीब सात महीने लग गए और मेरे मानों इसके छपने तक प्राण अटके हुए थे कि किताब का क्या चल रहा है , इसका नाम क्या होगा , इसका कवर पेज कैसा होगा, इस पर सुशील जी से चर्चा होती फिर इसकी प्रूफ रीडिंग पर बात आई तो इसे पत्नी ने किया, तो पत्नी किसी बच्चे की तरह मेरी सम्पूर्ण सेवा सुश्रुषा में लगी ही हुई थी जबकि नए आए फीजियो थैरपिस्ट मेरे बदन में जुम्बिश देने की कोशिश में लगे थे …तो कई महीनों बाद लूज मोशन भी ठीक हुए, इस सबमें जब मैंने फाइनल प्रूफ पढ़ा तो लगा एक नाटक में कुछ और चीज लिखनी चाहिए पर कैसे ? तो आपको बता दूँ कि इस किताब के प्रकाशन की हुलास ने मेरे दाहिने हाथ के अंगूठे में थोड़ी जुम्बिश दे दी थी । वास्तव में मेरे अन्दर किताब छपने की कवायद ने बीमारी से ध्यान को हटा दिया था , उसके लिए बाहर से जो प्रयास हो रहे थे, उनके साथ अब अन्दर से भी स्वतः प्रयास होने लगे थे और करीब एक साल होते होते मेरा मुर्दा शरीर तड़प रहा था हिलने डुलने के लिए,.ऐसे में एक अजब आत्मविश्वास के साथ एक अंगूठे से फ़ोन पर हल्के हल्के लिखा, फोन पर बात करके सुधार करवाया और फिर मेरे छोटे-बड़े सात नाटकों का संग्रह “ख्वाबों के साथ रंग” छप कर आ ही गया।

इसका ऑनलाइन विमोचन मारवाह स्टुडियो में इसके चेयरमैन श्री संदीप मारवाह , सुशील जी , ममता जी , प्रसिद्द नाटककार प्रताप सहगल आदि की उपस्थिति में 14 सितम्बर 2021 को हुआ, मेरे ख़ुशी के आंसू छलक आये, कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ। शेखर वाणी में और इस सबके पहले सुश्री रितंधरा मिश्रा के ऑनलाइन साक्षात्कार हुए। नेचर के साथ मैं सभी के सामने मैं नतमस्तक था । इस नाट्य संग्रह ने बाद में एनएसडी की बुक शॉप में भी शोभा बढ़ाई जिसने मुझे अपार प्रसन्नता प्रदान की, इसी के साथ बॉलीवुड और रंगकर्मी साथियों के साथ कई पत्रकार साथियों ने इसे हाथों हाथ लिया, लोग किताब को लेते उसकी सेल्फी भेजते. फेसबुक पर डालते , कुछ अच्छी बातें कहते। इसने मुझे एक ऐसी उर्जा दी कि उठने-बैठने की ताक़त में थोड़ा और इज़ाफ़ा हुआ। अब बिना मदद के बिस्तर से ज़ोर लगाकर उठने लगा । दीवार पकड़ कर कमरे में चलने का अभ्यास करने लगा पत्नी मुझे पकड़कर वेस्टर्न टॉयलेट ले जाने लगी।

यहाँ ये अंडर लाइन करता चलूँ कि फिजियो थेरेपी के साथ इस बीमारी के लिए अनिवार्य प्रोटीन डाइट लगातार चालू थी लेकिन इसका फायदा तब मिलना शुरू हुआ जब से नाटक की किताब की गतिविधि का आगाज़ हुआ,इसे अनुभव करते हुए और इन हो रहे सुधारों के बीच मैं अपनी और किताबों की पांडुलिपियों के काम में व्यस्त रहने की कोशिश करने लगा और हबीब साब के साथ अपने रंगकर्म तथा सिनेमाई सफ़र के तीन दशकीय संस्मरण को पूरा करने की कोशिश में लग गया इसमें अपनी बीमारी के अनुभवों को संजोया, इस दौरान मेरे जहन में मंच पर काम करने की स्मृतियों के साथ , कैमरे के सामने एक्ट करना घूमता रहता तो फिर से मंच पर पूरी रंगत से काम करने के ख्याल मेरे अंदर एक अजब उर्जा भरते थे।

वहीं रंग संस्मरण को पूरा करने के बाद रंग मित्र अरुण शेखर के मार्फत, इंडिया नेटबुक्स के लेखक/प्रकाशक डॉ संजीव कुमार से बात हुई और फिर यहाँ प्रूफ रीडिंग, इसके कवर पेज की लम्बी कवायद चली .इस बीच मैं अब खुद ही दीवार का सहारा लेकर बाथरूम जाने लगा और अकेले घर में धीरे धीरे संभल संभल कर चलने लगा हालाँकि थोड़ा भी ऊपर नीचे होता, सीढियाँ होती तो फिर नहीं हो पाता लेकिन ऐसे में पत्नी के सहयोग करती। इसी कोशिश में पत्नी के सहयोग से ब मुश्किल सौ कदम की दूरी पर स्थित फिजियोथेरेपिस्ट के क्लीनिक जाने लगा और फिर बीमारी के दूसरे साल के अंत तक दूसरी किताब के रूप में ‘एक रंगकर्मी की यात्रा’ छपकर सामने आ गई जिसका 9 दिसंबर 2022 को एक बार फिर मारवाह स्टूडियो में विमोचन हुआ लेकिन इस बार साथी प्रताप सिंह जी की मदद से उनका हाथ पकड़ पकड़ कर इस विमोचन में खुद भी शरीक हुआ, सामने मारवाह के सैकड़ों बच्चे, सुशील भारती जी, ममता सोनी जी , मेरे पुराने रंग साथी पुरुषोत्तम भट्ट जी , प्रतिभा जैन जी , पत्रकार साथी प्रशांत त्रिपाठी जी, मंच पर संदीप मारवाह जी, ब्रजेन्द्र कालरा जी और अनेकों स्व नाम धन्य लोग, ऐसे मौके पर किताब का विमोचन , उसके बारे में बोलना और बजती तालियों ने गजब की उर्जा भर दी , इस विमोचन के बाद उपेन्द्र नाथ रैना साहित्य संवाद मंच में. पत्रकार अनिल पाण्डेय जी जिन्होंने काफ़ी कुछ आर्थिक मदद की कोशिशें भी की थी , के मार्फत बुक अड्डा में इंटरव्यू हुए और कई स्थानों के साथ हंस जैसी जानी मानी पत्रिका में संगम पाण्डेय जी की बेहतरीन समीक्षा छपी, कई साथियों ने इसे ख़रीद कर, किताब के साथ सेल्फी भेजी , इसी के साथ मुझे किताब के प्रकाशन ने चित्रा मुद्गल जी, गिरीश पंकज जी , महेश दर्पण जी , प्रताप सहगल जी जैसे अनेकों प्रसिद्द साहित्यकारों की उपस्थित में 9 मार्च 2023 को क्राउन प्लाजा होटल में 2022 का ‘इंडिया नेटबुक्स नाट्य-रत्न’ साहित्य सम्मान भी प्रदान किया। इसने मेरी एक्सरसाईज की शिद्दत को और बढ़ा दिया।

धीरे-धीरे इस बीमारी में तीन साल हो रहे थे लेकिन एक बात कहीं अन्दर से समझ आ रही थी कि पूरी तरह से ठीक होने की इनर पावर रंगमंच की गतिविधियों से किसी भी तरह अपने को जोड़कर व्यस्त रखने आ रही है, लोगों के स्नेह से आ रही है। ये किसी नेम फेम से कहीं अधिक एक ऐसा जीवन अमृत था जिसने मेरी सूख चुकी जीवन बेल में हरितमा लाने का काम किया था इसलिए कभी कोई कहानी या कविता या नाटक लिखने बैठ जाता । अपने सोलो नाटक ख्वाब का शो करने के लिए, लोगों को बुलाने के लिए फिलर भेजता। इसी बीच कुछ अन्य साथी मेरे इस सोलो को कर रहे थे , ये भी एक सुखद बात थी तो इसी के साथ इधर-उधर बिखरी कविताओं और कहानियों को धीरे-धीरे लैपटॉप पर टाइप करके, पाण्डुलिपि बनाने में अपने व्यस्त रखने लगा।

इसी क्रम में एक काव्य संग्रह “अफ़सोस की ख़बर” का, ज्ञान मुद्रा प्रकाशन भीपाल से छपने की दिशा में कवर पेज भी बन गया।ऐसे ही कुछ समय के लिए एक योग गुरु बृजेश शुक्ल इक्यूप्रेशर के लिए मेरे पास आते थे उन्होंने बातों ही बातों में स्वच्छता पर एक बच्चों के लिए छोटा नाटक लिखने के लिए कहा और उसका पेमेंट देने के लिए भी बोला जो उन्होंने उसका शो करने के साथ दिया भी, इसने मुझे बेहद खुशी देने के साथ ऊर्जा प्रदान की, ऐसे ही करते हुए समय के साथ पांच और छोटे नाटक लिख गए जिनका “पंचरंग” नाम से एक संग्रह इंडिया नेटबुक्स नोएडा से प्रकाशित होने की कवायद शुरू हो गई है तो ऐसे में ही एक अच्छी बात ये हुई कि मेरे पुराने बॉस राघवेश अस्थाना ने, अपने ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म ‘मितवा’( अब महुआ ख़बर) में न्यूज़ पोर्टल/ प्रोग्रामिंग सँभालने का काम भी दे दिया, इसने एक मासिक आर्थिक संबल प्रदान किया, बता दूं कि रंग सफर के साथ जो थोड़ा बहुत सिनेमाई सफ़र रहा उसमें भी आर्थिक संबल के लिए सदा पत्रकारिता मेरा दूसरा घर रहा जिसमें स्पेस टीवी, प्रज्ञा टीवी, महुआ टीवी, न्यूज एक्सप्रेस आदि कई चैनल मेरे पड़ाव बनें, इन संपर्कों ने मुझे बीमारी की गंभीर हालत में क़रीब आठ लाख रूपए की मदद दिलवाई, मेरे लगभग हर करीबी ने किसी न किसी रूप में मदद प्रदान की ।

बहरहाल बीतते समय के साथ एक दिन अचानक संगीत नाटक अकादमी से विजय सिंह जी का फोन आया कि ओडिशा के राउरकेला में त्रि दिवसीय एक प्ले राइट वर्कशॉप के लिए जा सकते हैं, पहले मन घबराया लेकिन फिर हिम्मत की और फिर राउरकेला में अगस्त 2023 को अभिराम दामोदर जी तथा आसिफ अली जी के साथ तीन दिन 25 युवाओं के साथ नाट्य लेखन कार्यशाला की। इसने बाहर निकलने का एक बड़ा आत्म विश्वास भरा। ये 9 मार्च 2020 को केरला के पय्यानूर में राम भाई के साथ अपने नाटक ख़्वाब का शो करके लौटने के करीब साढ़े तीन साल बाद ऐसा हुआ था कि कहीं बाहर अकेले निकला था। ये मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि थी, इसके लिए सभी का तहे दिल से शुक्रिया।

जब तक गंभीर बीमार रहा तब तक आगरा बाज़ार नहीं हुआ !..ये एक अजब संयोग है कि जब तक मैं गंभीर बीमार रहा तब तक हबीब साब के आगरा बाज़ार का कोई शो नहीं हुआ और जैसे ही इस अवस्था में पहुंचा कि मंच पर उतर सकता हुं वैसे ही हबीब तनवीर साब के नया थिएटर के निर्देशक रामचन्द्र सिह जी से आगरा बाज़ार के शो की चर्चा हुई कि जल्द ही शो लगने वाला है आप कर सकेंगे न ? चूँकि मेरे मूवमेंट सामान्य नहीं थे लेकिन मुझे लगता था कि जिस दिन मंच में आऊंगा उस दिन एक अलग उर्जा मेरे अन्दर प्रवाहित होगी जो एक दिन पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करेगी और ये सोच फलीभूत हुई आगरा बाज़ार शो के एक महीने पहले 22 जनवरी 2024 को मेरे नाटक ‘उसके साथ’ मंचन से जो साहित्य कला परिषद के भरत मुनि नाट्य उत्सव के अंतर्गत LTG सभागर में मंचित हुआ,ये बेहद अद्भुत था और किसी GBS पेशेंट का महज 75% रिकवर होकर मंच पर किया पहला परफॉर्मेंस भी था। इसका मंचन साथी प्रताप सिंह और इन्ही के ज़रिये मिले ड्रामाटर्जी थिएटर के प्रिय साथी सुनील चौहान के सहयोग से ही संभव हो सका। इस नाटक के करीब 20 दिन के अभ्यास करते हुए मेरे मूवमेंट काफी खुले।

इसके बाद 10 फरवरी को आगरा बाज़ार का शो करने पोर्ट ब्लेयर गया, इसके पूर्व आगरा बाज़ार की कुछ दिन की रिहर्सल के लिए जनवरी एन्ड में मैं भोपाल भी गया। इसके बाद तो जैसे सिलसिला सा शुरु हो गया और साल 2024 में मुंबई, दिल्ली, पोर्ट ब्लेयर, सहारनपुर, गिरडीह, अलवर, गाज़ियाबाद, भोपाल , जैसे शहरों में स्वयं के लेखन , निर्देशन और अभिनय में द्वि पात्रीय नाटक उसके साथ के 7 शोज्, स्वयं के लेखन , निर्देशन और अभिनय में एकल प्ले ख्वाब के 4 शोज, निर्देशन और अभिनय में द्वि पात्रीय नाटक दिगदर्शक का 1 शो , अभिनय करते हुए हबीब साब के प्ले आगरा बाज़ार के 7 शोज, शकील अहमद सैफ की कहानी के नाट्य रूपांतरण और निर्देशन में, बन्ने की दुल्हनिया के 3 शोज किए जिसमें एक शो ए बुड्ढे के नाम से अलवर में किया। इसे कहानीकार द्वारा नाट्य रूपांतरण के झूठे श्रेय लेने की कुचेष्टा के कारण किया कि भाई अपनी कहानी के नाम से वे इसे कर लें और हम ए बुड्ढे के नाम से करते रहेंगे।

हालांकि ये खत्म नहीं हुआ, इससे मन बड़ा आहत हुआ क्योंकि करीब 25 दिन प्रताप सिंह जी के संयोजन में वसुंधरा गाज़ियाबाद स्थित उनके घर पर एक नाट्य कार्यशाला करते हुए एक- एक लाइन इसकी लिखी थी, एक लघु कहानी को पूर्णकालिक नाटक लिखने की मेहनत की अवमानना पर मैने कहानीकार से मिलने से इंकार कर दिया जो मुझे किसी भी तरीके यानी साम, दाम, दंड भेद से अपना नाम नाटक लिखने में शामिल करवाना चाहते थे उल्टे मैंने इस नाटक को ही ड्राप कर दिया। कमाल ये कि दो शो हो जाने के बाद, हर जगह नाट्य रूपांतरण और निर्देशन में मेरा नाम ज़ाहिर होने के बाद ऐसा कैसे किया। ये बड़ा ही हतप्रद करने वाला था.. शायद नाटक की अत्यधिक सफ़ल प्रस्तुति उनकी आँखों में गड़ गई जिसे किसी ने भड़का दिया, इसके बाद मात्र कहानीकार के नाम से वे संतुष्ट नहीं हुए और नाट्य आलेख में भी अपना नाम जुड़वाना चाहते थे लेकिन इससे उनका ही अधिक नुक़सान हुआ क्योंकि मैंने नाटक ही ड्रॉप कर दिया।

किसी तरह इससे उबरते हुए अपने रंग लेखन को जारी रखा और 2025 साल की शुरुआत में मेरे 2 पूर्णकालिक नाटकों का संग्रह अजीब दास्तां और एक अन्य नाटक इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित होकर आया जिसका लोकार्पण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली के परिसर में 4 फरवरी को भारत रंग महोत्सव में श्रुति कार्यक्रम के अंतर्गत निदेशक चितरंजन त्रिपाठी जी और संगम पाण्डेय जी तथा प्रकाश झा जी के करकमलों से हुआ जहाँ संगम पाण्डेय जी ने किताब पर चर्चा की। ये मेरे जीवन की एक बड़ी उपलब्धि थी इसने मुझे बड़ी ताक़त दी तो इसी तरह राही पब्लिकेशन ने 23 मार्च को 2025 का राष्ट्रीय लेखन सम्मान से नवाज़ा तो इसी माह इंडिया नेटबुक्स और BPA फाउंडेशन ने नाट्य साहित्य रत्न का सम्मान दिया।

इसी साल 2025 में अपने एकल नाटक ख्वाब को पहले सुनील चौहान के नोएडा रंग महोत्सव में 6 फरवरी को और फिर सौ नाटकों के महाउत्सव अलवर रंगम में 26 मार्च को किया हालांकि इस बीच 6 फरवरी की रात रीवा में छोटे भाई की असमय मृत्य ने बुरी तरह से हिला दिया उसमें परिवार के साथ सारी अंतिम क्रियाएं करते हुए भारंगम के अंतर्गत 13 मार्च को कमानी सभागार नई दिल्ली में हबीब तनवीर के नाटक आगरा बाज़ार के शो को करने के लिए आया। ये बड़ा मुश्किल था क्योंकि टिकिट तक कन्फर्म नहीं हुआ था और फिर कुछ क्रियाओं के निपटान के लिए पुनः रीवा वापिस जाना था लेकिन आगरा बाज़ार मेरे लिए केवल एक शो नहीं था, ये हबीब साब का आशीर्वाद था, उनके न रहने के बाद भी उनका एहसास था जिसे मेरी ख़ुद की मौत ही शामिल होने से रोक सकती थी बाकी कुछ भी नहीं..।

दूसरी ओर इस सबसे जूझते हुए और मूल रूप से समय न देने के कारण महुआ ख़बर का कार्य एक बहाने के साथ ख़त्म हो गया या कहें ख़त्म कर दिया गया। इससे आए खालीपन को भरने के लिए अपने नाटक अजीब दास्तां को सुनील चौहान की मदद से तैयार करके उसका 20 जुलाई 2025 की शाम गाज़ियाबाद के हिंदी भवन में बेहद सफल मंचन किया हालांकि इसके लिए हॉल तलाश करने में बड़ी दिक्क़त हुई। एकबारगी लगा कि मंचन नहीं हो पायेगा लेकिन ईमानदारी से की गई मेहनत को प्रभु ने किनारा लगाया और बन्ने की दुल्हनिया के एक्टर वागीश शर्मा जी के रिफरेंस से हिंदी भवन समिति गाज़ियाबाद के सचिव सुभाष गर्ग जी से मिले और फिर उनकी सदाशयता से हिंदी भवन मिला यहाँ तक कि उन्होंने हमसे जनरेटर सेट के डीज़ल तक का भी पैसा नहीं लिया और नाटक की शानदार प्रस्तुति से ख़ुश होकर कहा कि आप जब भी नाटक करना चाहें हिंदी भवन आपके लिए सदैव खुला है।

इसी बीच मेरी एक किताब ‘बघेलखंड के लोक नाट्य छाहुर् की शोध यात्रा” इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित होकर आई जो CCRT ( संस्कृति मंत्रालय का एक विंग) द्वारा मिले सीनियर फेलोशिप अवॉर्ड के अंतर्गत किया गया एक शोध ग्रंथ था, सौभाग्य से इसका विमोचन 15 सितम्बर को मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के वरिष्ठ साहित्यकार सम्मिलन (रविन्द्र भवन भोपाल) में अकादमी के सहज सरल व्यक्तित्व के धनी विकास दवे जी द्वारा मध्य प्रदेश के कई अन्य साहित्यकारों आलोक रंजन, आलोक सोनी, निरुपमा संजय त्रिवेदी, अशोक सिंह और भोली बेन की उपस्थिति में किया गया। इस मौके पर विंध्य क्षेत्र के पुराने साथियों और परिचितों से मिलना अद्भुत रहा। इसके साथ मेरे खाते में आधा दर्जन प्रकाशित किताबें आ चुकी थीं और ये बेहद सुखद था, कभी गंभीर बीमारी में बिस्तर में पड़े हुए ख़ुद से 6 किताबों का वादा किया था जो पूरा हो चुका था और अब इससे आगे बढ़ने की चुनौती थी।

इसी बीच भाई सुनील चौहान की एक पार्टी के लिए देश की आजादी पर पूर्णकालिक नाटक ‘आजादी के सिंदूरी रंग’ लिखा जिसका मंचन 11 अगस्त 2025 को LTG सभागार नई दिल्ली में सुनील और साक्षी चौहान जी के निर्देशन में हुआ लोगों ने खूब पसंद किया हालांकि शो मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ तो मुझे भी अपेक्षित मानधन भी नहीं मिला हालांकि ये सब कला के क्षेत्र के लिए कुछ नया नहीं है।

इस सबसे परे अपने को संजोते हुए एक नया नाटक “एक थी कमला” लिखा तो अपने कहानी संग्रह इस “दीवार पर कोई खिड़की नहीं” की पांडुलिपि बनाई। मित्र मनोज श्रीवास्तव ने इसका प्रूफ किया। इसके बाद अब इन्हें पब्लिश करने को भेज दिया है।

इस सबके बीच 26 नवंबर को “अजीब दास्तां” को पटियाला के राष्ट्रीय नाट्य समारोह में मंचन करने के लिए पलविंदर कौर जी और गोपाल शर्मा जी ने बुलाया, यह शो बेहद सफ़ल रहा। इसके लिए दिल्ली में अरविंद गौड़ दादा के सौजन्य से उनके अस्मिता थियेटर के रंग स्थल में रिहर्सल किया।

रंगमंच की छुपी हुई ताक़त..रंगमंच, कला और संस्कृति से जुड़ी गतिविधियाँ व्यक्ति के हैप्पी हार्मोन्स को बूस्ट करने में मदद करते हैं जो किसी भी बीमारी की स्थिति से उबरने, उससे लड़ने की अनन्त सामर्थ्य प्रदान करते हैं। जिन्होंने मेरे जीवन में बड़ी भूमिका निभाई और निभा रहे हैं। ये सामान्य व्यक्ति को असाधारण बनाने या उस व्यक्ति को असाधारण उपलब्धियां प्राप्त करने में सहायक होते हैं। इसका प्रयोग हर ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जो मेरे जैसे किसी गंभीर रोग से लड़ रहा हो.. मेरे पास सभी रंग गुरुओं के साथ परम गुरु हबीब तनवीर सर के वरद हस्त की ज़मीन थी जिसमें जहाँ भी खड़ा होता लाइन वहीं से शुरु हो जाती और वहीं चार हाथ मदद के लिए आगे आ जाते. ..इसने मुझे नाटक लिखने और उसे करने की ताक़त दी और दे रहे हैं और जब कभी इसका उल्टा भी हुआ तो इसी ताक़त ने मुझे फिर उबारने की भी ताक़त दी। शुक्रिया हबीब साब, जय शंकर।

(आलोक शुक्ला रंगकर्मी और पत्रकार हैं, उनसे 9999468641 alokapragya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

First Published on: December 9, 2025 12:13 PM
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