तीन नेशनल अवार्ड जीतने वाले इस संगीतकार को गाइड और उमराव जाॅन में संगीत देने के लिए सबसे पहले याद किया गया था


तीन नेशनल अवार्ड्स पर हाथ साफ़ करने के बावजूद संगीतकार जयदेव को जो दर्ज़ा फिल्म जगत में मिलना चाहिए था वो उनको कभी नहीं मिल पाया। सुरेश वाडकर, हरिहरन इन सभी को अगर किसी ने फ़िल्मी गाना गवाने का पहला मौका दिया था तो वो जयदेव ही थे।


नागरिक न्यूज admin
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जब उस्ताद अकबर अली खान को देव आनंद के नवकेतन बैनर की फिल्मो में संगीत देने का मौका मिला तब उनके शागिर्द जयदेव ने बतौर असिस्टेंट उनको ज्वाइन कर लिया था। लेकिन ये किस्मत का ही हेरफेर था की उस्ताद अकबर अली खान की दोनों ही फिल्मे नवकेतन के लिए नहीं चली और उसके बाद वो वापस लखनऊ लौट गए लेकिन जयदेव टिके रहे और इस बार उनको एसडी बर्मन का सहायक बनने का मौका मिला। उनका शानदार काम देख कर आखिरकार नवकेतन की फिल्म हम दोनों में उनको संगीत देने का मौका मिल गया और जब फिल्म सिनेमाघरों मे रिलीज हुई तब इसके गानों ने हर जगह धूम मचा दी। लेकिन उनके संगीत की ये धूम बेहद ही कम समय के लिए थी और उनको इससे कुछ फायदा नही हुआ। जबरदस्त सफलता के बावजूद देव आनंद ने जयदेव के बदले नवकेतन बैनर की अगली फिल्म गाइड की बागडोर एसडी बर्मन के हाथों में दे दी।

ऐसा कहा जाता है की गाइड के दो गानो की रिकॉर्डिंग उन्होंने पहले ही कर ली थी लेकिन बड़े ही शर्मनाक तरीके से उनको फिल्म छोड़नी पड़ी थी और देव आनंद ने उनको इस फिल्म के लिये एसडी बर्मन का एक बार फिर से सहायक बनने के लिए उनके ऊपर जोर डाला था। ऐसा कहा जाता है की मोहम्मद रफ़ी की गायिकी में उनके दो गाने दिन ढल जाए और तेरे मेरे सपने गाइड के लिए जयदेव ने ही कंपोज़ किये थे। इसके बाद नवकेतन की बाकी फिल्मों में काम करने का उनको आगे चल कर कोई मौका नहीं मिला। नवकेतन से बाहर जाने का शॉक उनके ऊपर पूरी जिंदगी भर बना रहा और वो उससे कभी भी उबार नहीं पाए थे। जयदेव अक्सर ये किस्सा अपने जिगरी दोस्त संगीतकार रोशन और मदन मोहन को सुनाते थे।

लेकिन सफलता ज्यादा दूर नहीं थी। सुनील दत्त उनके संगीत के जबरदस्त प्रशंशक थे और 1971 में अपनी फिल्म रेशमा और शेरा के लिए उन्होंने जयदेव को बतौर संगीतकार साइन किया। राजस्थानी लोक धुनों से सजी इस फिल्म ने जयदेव को उनका पहला नेशनल अवार्ड दिलवा दिया और फिर इसके बाद बारी आयी मुज़फ्फर अली के गमन और अमोल पालेकर की अनकही की जिसने उनको एक बार फिर से नेशनल अवार्ड दिलवाया। लेकिन सादगी से भरे जयदेव की ये बदकिस्मती थी की जिन फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया वो बाक्स आॅफिस पर बिल्कुल नहीं चली लिहाजा उन फिल्मों के गानो को भी ज्यादा चमकने का मौका नहीं मिल पाया। आलाप, ज़िन्दगी ज़िन्दगी, तुम्हारे लिए प्रेम पर्वत, दुरियां कुछ ऐसी ही फिल्मे थी जिनके गाने आज भी रेडियो स्टेशनो पर सुने जा सकते है लेकिन रिजीज के वक्त उनको कोई देखने नही आया था।  

रेशमा और शेरा के पहले भी सुनील दत्त ने अपनी अगली फिल्म मुझे जीने दो के लिए सबसे पहले जयदेव को याद किया था। लेकिन दो दिग्गजो के बीच के झगडे की वजह से इस फिल्म के संगीत पर बुरा असर पडा। मुझे जीने दो के गानों के रिकॉर्डिंग के दौरान उनकी साहिर लुधियानवी से बहस हो गयी थी। साहिर ने जब उनको ये कहा की संगीतकार की गीतकार के बिना कोई बिसात नहीं होती है तब साहिर के इन शब्दों ने उनको एक तरह से घायल कर दिया था। ऐसा कहा जाता है की इसके बाद जयदेव ने साहिर को चुनौती दे दी की वो साहिर के शब्दों पर तीन गाने कंपोज़ करेंगे और साहिर को बाद में उनके कम्पोजीशन पर शब्द लिखने पड़ेंगे। सुलह कराने के लिए खुद सुनील दत्त को बीच में आना पड़ा लेकिन जब साहिर को इस चुनौती की खबर मिली तक तब बहुत देर हो चुकी थी।

बहुत कम लोगो को इस बात की जानकारी है की फिल्म उमराव जान में संगीत देने के लिए मुज़फ्फर अली ने सबसे पहले जयदेव से संपर्क साधा था। उन्होंने फिल्म के दो गाने लता मंगेशकर की आवाज में रिकॉर्ड भी कर लिए थे लेकिन बात मेहनताने पर अटक गयी और आगे चल कर खय्याम उनकी जगह पर आये। जयदेव ने कभी शादी नहीं की और फिल्म जगत के जब तक वो हिस्सा थे उन्होंने अपना पुरा समय चर्चगेट रेलवे स्टेशन के पास एक बिल्डिंग के एक छोट से कमरे में बिताया। उनके एक रुम के कमरे में अखबार, किताबें, कैसेट्स और एक छोटे फ्रिज के अलावा और कुछ नहीं था। ऐसा कहा जाता है की वो ज़मीन पर चटाई बिछा कर सोते थे और पानी पीने के लिए के मिटटी के घड़ा का इस्तेमाल करते थे। बेहद सादगी पसंद और उनका पाकसाफ अंदाज फिल्म जगत के कई लोगो को नागवार गुजरा और शायद यही वजह थी की अपने शानदार संगीत के बावजूद वो कुल जमा ३५ फिल्मों को ही अपनी धुनो से सजा पायें।