जिगर मुरादाबादी को अपना उस्ताद मानने वाले मजरूह का फिल्म जगत में जो कद था उसकी अनदेखी सालों तक लोगों ने की। जब 100 ल्यूमिनेरिस ऑफ़ इंडियन सिनेमा किताब लिखी गई थी तब उस किताब से उनका नाम नदारद था। शानदार गानों की जिंदगी भर झड़ी लगाने वाले मजरूह के हिस्से उनके फ़िल्मी करियर में महज एक फ़िल्मफेयर अवार्ड नसीब हो सका। बात 1993 के फ़िल्मफेयर अवार्ड्स की है। पिछले साल आमिर खान की फिल्म जो जीता वही सिकंदर के गाने पहला नशा पहला खुमार ने हर ओर धूम मचा दी थी। उस गाने के लिए मजरुह को फ़िल्मफेयर अवार्ड मिलेगा ये बस औपचारिकता वाली बात थी। समारोह के दौरान जब उस केटेगरी के लिए नोमिनीज की घोषणा हो रही थी तब उसी बीच मजरूह अपनी सीट से उठकर मंच की तरफ अवार्ड लेने के लिये चल दिए। लेकिन जब बीच रास्ते मे ही उन्होनो सुना की वो अवार्ड समीर के खीसे में फिल्म दीवाना के गाना तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार के लिए गया है तब मजरूह को बहुत धक्का लगा था। इस घटना से मजरुह बहुत आहत हुये थे और उनकी इस चोट पर मलहम तभी लग पाया जब उस साल भारत सरकार ने उनको दादा साहब फाल्के अवार्ड से नवाजा।
कुंदन लाल सहगल की फिल्म शाहजहां के लिए मजरूह ने जब पहली बार गाने लिखे तब उसी फिल्म के बाद उन्होंने अपनी उपस्थिति फिल्म जगत मे दर्ज करा दी थी। ऐसा कहा जाता है की सहगल जब दिल ही टूट गया गाने से इतने ज्यादा प्रभावित हुए थे की उन्होंने अपने करीबी लोगों को ये साफ़ कह दिया था की जब भी उनका जनाजा निकलेगा उस दौरान ये गाना जरूर बजना चाहिए। लखनऊ के तिब्बिया कॉलेज में जब वो हकीम की पढ़ाई कर रहे थे तभी उनको लिखने का शौक चढ़ा और अपना शौक मजरूह के तखल्लुस से पूरा करने लगे थे। प्रोग्रेसिव राईटर्स मूवमेंट से जुड़े होने की वजह से उन्होंने सामाजिक मानदंडों को हमेशा ललकारा।
1950 के दशक में जब फिल्मों का रंग रूप बदल रहा था तब मजरूह इस बदलाव की लहर में सबसे आगे खड़े थे। अगर साहिर ने अपने क्रान्तिकारी तेवर अपने गानों में दिखाए तो वहीं दूसरी तरफ शकील बदायूंनी और शैलेन्द्र के साथ मिलकर मजरुह ने फ़िल्मी ग़ज़ल को एक नया जामा पहनाया। मजरूह का मिजाज कुछ अलग था और ये उन्होंने 1950 में ये साबित कर दिया था की वो 2000 में भी अपने गानों से लोगों के दिलो को बहलायेंगे। राज खोसला की फिल्म सीआईडी में उनका लिखा हुआ गाना था जाता कहा है दीवाना सब कुछ यहां है सनम। गाने के मूड को और चुलबुला बनाने की लिए उन्होंने अगली लाइन लिखी कुछ तेरे दिल में फिफ्फी, कुछ मेरे दिल में फिफ्फी। फिफ्फी शब्द सेंसर बोर्ड को इतना नागवार गुजरा की उन्होंने इसे कुछ समय के लिए बैन कर दिया था।
1957 में नासिर हुसैन फिल्म तुमसा नहीं देखा बनाने की तैयारी कर रहे थे। अभिनय के लिये देव आनंद और फिल्म के गीतों को लिखने के लिये साहिर को साइन किया गया था लेकिन जब देव आनंद को पता चला की इस फिल्म से फिल्मिस्तान स्टूडियो के मालिक तोलाराम जालान अपनी पसंद की हीरोइन को लांच करना चाहते थे तब देव आनंद ने इस फिल्म से खुद को किनारा कर लिया और उन्हीं की राह आगे चल कर साहिर ने पकड़ी। इसके बाद इस फिल्म में शम्मी कपूर और मजरूह की एंट्री हुई। नासिर हुसैन के साथ मजरूह की कुछ ऐसी जमी की एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में इन्होंने मिलकर दी और 70 के दशक को एक तरह से सुरमयी बना दिया था। इन फिल्मों में तीसरी मंज़िल, बहारों के सपने, कारवां, प्यार का मौसम, यादों की बरात और ज़माने को दिखाना है शामिल थी। 70 और 80 के दशक में मजरूह कुछ संगीतकारों के लिए पारस पत्थर समान साबित हुये। जिस किसी ने भी उनके साथ काम किया उसकी किस्मत सवर गयी। खय्याम, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर डी बर्मन और चित्रगुप्त इस श्रेणी में शामिल थे।
संस्कृति और सुसंस्कार उनके अंदर कूट कूट कर भरी थी। एक बार जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने उनसे हाथ मिलाने की बजाये अपने कुर्सी पर ही बैठे रहना उचित समझा तब इस बात को लेकर मजरूह ने मुद्दा बना दिया था। जब फ़िल्मफेयर मैगज़ीन की एक नौसिखिया रिपोर्टर ने एक फोटोशूट के सिलसिले में उनको फ़ोन किया था तब उनका जवाब यही था की बेटी जितनी तुम्हारी और फ़िल्मफेयर की उम्र है उससे ज्यादा वक़्त मैंने लिखने में बिताया है, अगर उनको ये नहीं पता है की मैं कौन हूं तो मुझे भी नहीं पता की फ़िल्मफेयर कौन है।
अपने लिखे शब्दों से मजरूह कितना प्रेम करते थे इसकी झलक मिलती है एक किस्से में जब फिल्म मेरे सनम के लिए ओपी नय्यर हमदम मेरे मान भी जाओ गाना रिकॉर्ड कर रहे थे। ओपी नय्यर चाहते थे की मजरूह हमदम शब्द गाने से हटाकर कोई और शब्द का इस्तेमाल करें। जब इसकी वजह मजरूह ने नय्यर से पूछी तो उनका यही जवाब था की ये शब्द मुझे पसंद नहीं है। तब मजरुह ने यही जवाब दिया की वो गाना ना उन्होंने अपने लिए लिखा है और ना ही उनके लिए, वो शब्द जनता के लिये है। जब बात आगे बढ़ी और फिल्म के प्रोड्यूसर तक ये बात पहुंची तब उन्होंने भी नय्यर का साथ दिया और शब्द को बदलने के लिए कहा, इसके बाद मजरूह का जवाब था की आप गाना लिखने वाले को बदल दो।
मजरूह शब्दों के साथ प्रयोग करने के मामले में सबसे आगे थे। उनके पहले सनम, दिलबर, बंदा नवाज और जानेमन जैसे शब्द गानों में बहुत कम इस्तेमाल होते थे। आज का आलम ये है की इन शब्दों के बिना कोई भी गाना अधूरा ही माना जाता है। 80 के दशक में मजरूह के कलम की स्याही इतनी गाढ़ी हो चुकी थी कि तब तक उन्होंने दो-दो पीढ़ियों के साथ काम कर लिया था। एस डी बर्मन – आर डी बर्मन, रोशन – राजेश रोशन, चित्रगुप्त – आनंद मिलिंद – इन सभी के साथ मजरूह ने सुरीले नग़मों के तराने छेड़े। जब 1989 में मजरूह की कलम से पापा कहते है निकला तो इसका सीधा मतलब यही था की ज़माने के साथ चलने की अदा कोई उनसे सीखे।
जब भी गीतकारो की बात आती है जेहन में साहिर, गुलज़ार और शैलेन्द्र का ही नाम आता है। मजरूह का नाम शायद ही कभी कोई लेता है और इसी बात से पता चल जाता है की किस चुपचाप तरीके से इन्होने अपना काम किया था. मजरूह ऐसे पहले गीतकार थे जिनको दादा साहब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया था। नौशाद से लेकर ए आर रहमान और कुंदन लाल सहगल से लेकर आमिर खान – मजरूह का दायरा सचमुच में काफी विशाल था। 55 साल में 350 फिल्मों के लिए 2000 गाने लिखना दैवीय काम ही माना जायेगा।