
लोकप्रिय अभिनेता बलराज साहनी का जन्म रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में ) में हुआ था। इंटर तक की पढ़ाई भी नहीं हुई थी। उनका पुश्तैनी कस्बा भेरा भी पास ही था। आगे की उच्च शिक्षा उन्होंने लाहौर में की और कुछ दिन यह शहर उनकी कर्मस्थली भी रहा।
विभाजन के समय उनके परिवार का सब कुछ वहीं छूट गया था। संवेदनशील बलराज को अपने जन्मस्थान और वास्तविक वतन की बहुत याद आती। 1962 में उन्हें वहाँ जाने का मौका मिला। वह बहुत खुश थे।
वतन में फिर वापिसी
सबसे पहले वे लाहौर पहुँचे जहाँ वे गवर्मेंट कॉलेज (जिसमें उन्होंने पढ़ाई की थी) के प्रिंसिपल डॉ. नजीर अहमद के मेहमान थे। अपनी इस यात्रा में तमाम मुश्किलों के बावजूद वे हर उस जगह गए जहाँ उन्होंने थोड़ा भी समय बिताया या उनका कोई परिचित रहता था। उनके लिए यह एक बेहद जजबाती दौरा था।
वे अपने पुश्तैनी कस्बे भेरा भी गए। वहाँ सहानियों के मुहल्ले में उनका घर था। पहले तो वह अपना घर ढूँढ़ नहीं पाए। किसी के मकान की छत पर चढ़े तो उन्हें अपना घर दिख गया। वे वहीं रोने लगे…बडी मुश्किल से नीचे उतार कर उन्हें अपना घर दिखाया गया।
रावलपिंडी के छाछी मुहल्ले में जब वह अपना घर देखने गए तब वहाँ कोई बरात आई हुई थी। वे शीघ्र ही वहाँ रह रहे मुस्लिम परिवार और बरात के साथ घुल-मिल गए। बरात को उन्होंने अपने हाथों से खाना परोसा। घर में इस्तेमाल हो रहे अपने बर्तनों और फर्नीचर को देख वे बहुत भावुक हो उठे। कुछ बर्तनों में तो उनके पिताजी का नाम तब तक भी खुदा हुआ था।
लड़कपन की दोस्ती और मुलाकात
रावलपिंडी में वह अपने लड़कपन के दोस्तों और पड़ोसियों से भी मिले। उनका कोई दोस्त ताँगा चला रहा था तो कोई ड्राइवर था। एक दोस्त तहसीलदार भी था। एक दोस्त को उन्होंने पहचाना तो किंतु उसका नाम याद नहीं कर पाए। उसका उनके घर खूब आना-जाना था। उन्होंने उससे जब नाम पूछना चाहा तो वह बुरा मान गया। उसने उनसे गुस्से में कहा, “मेरा नाम तू अपनी माँ से पूछना।” वापस आकर उन्होंने माँ से उसका हुलिया बताते हुए उसका नाम पूछा तो माँ ने फौरन बता दिया अरे वह तो मेरा मुख्तार था। उसे कैसे भूल सकती हूँ?”
लाहौर में वे सैयद इम्तियाज अली ताज और शौकत साहब से मिले जिन्होंने गवर्मेट कॉलेज में नाटकों के दौरान उन्हें अभिनय के पहले पाठ पढ़ाए थे। विभाजन से पहले बंबई के फिल्म गगन में चमकते कई सितारों से वे ताज साहब के घर पर ही मिलें जिनमें नूरजहाँ, नीना, रफी पीर, डब्लू.जेड. अहमद प्रमुख थे। डब्लू जेड अहमद वही शख्स थे जो उनको मिली पहली फिल्म ‘नीचा नगर को प्रोड्यूस करने वाले थे। नीना उनकी पत्नी थी। जब यह सफरनामा किताब के रूप में छपकर सामने आया तो इसके आवरण पर बलराज के दोस्त और पड़ोसी बोस्तान खान के साथ उनका गले मिलते हुए फोटो छपा था।
चलते चलते
बलराज पाकिस्तान ट्रेन से गए थे। ट्रेन के कई रोचक और भावुक करने वाले किस्से उन्होंने इस सफरनामे में लिखे हैं। जैसे पाकिस्तान में (1962 में ) अच्छी किस्म का केला नहीं होता और महंगा भी बहुत था । उस समय पाकिस्तान जानेवाली सवारियां ज्यादा से ज्यादा कपड़ा भारत से ले जाने का प्रयत्न करती थीं क्योंकि यह भी वहां महंगा था। ज्यादातर यात्रियों के आधे परिवार पाकिस्तान में थे और आधे हिन्दुस्तान में।
कुछ यात्री अपने किसी सम्बन्धी के ब्याह में कुछ दिनों के लिए लाहौर जा रहे थे। एक बड़ा बांका मुसलमान युवक जो मेरठ का था उनके पास बैठे अफ़सर को खुश करने की कोशिश कर रहा था। वह दस-बारह और चादरें अपने सामान में ले जा रहा था । अफ़सर ने पांच माफ़ कर दी थीं पर वह तीन और बिना टैक्स दिए ले जाना चाहता था । कभी हाथ जोड़ता , कभी अफ़सर के पैर दबाने लगता । आखिर जब उसका सामान पास हो गया तो उसने अपनी जेब से सुगन्धित चुरुटों का पैकेट निकाला और चुरुट बांटने शुरु कर दिए। कोई भी उन्हें लेने को तैयार नहीं था पर वह जबर्दस्ती सब लोगों की जेबों में एक-एक चुरुट छोड़ गया, यह कहते हुए कि “किसी और को पिला देना !”