आगे चल कर किशोरावस्था प्रेम को दर्शाती हर फिल्म के लिए बॉबी बाइबल साबित हुई। लेकिन एक चॉकलेटी, लवर बॉय की इमेज उनके लिए मानो अभिशाप बन गई थी और इसकी भारी कीमत ऋषि कपूर को अपने करियर के हर मोड पर चुकानी पडी थी। बॉबी के बाद उनको अपनी पुख्ता जगह बनाने के लिए हर दशक में उनको संघर्ष करना पड़ा था। ये वही साल था जब अमिताभ बच्चन की ज़ंजीर बॉक्स ऑफिस पर रिलीज़ हुई थी। अगर बॉबी ने प्रेम कहानी के मुद्दे को टटोलने वाली फिल्मों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी तो वही दूसरी तरफ ज़ंजीर की सफलता एक अलग किस्म की थी। उम्र की बंदिश के दुर, इस फिल्म से आम जनता ने कनेक्ट किया। उनको ये लगा की उनकी परेशानियों को सुनने वाला कोई आ गया है। ध्यान रहे के 1973 के हिंदुस्तान में भ्रस्टाचार का बोलबाला था, लाइसेंस राज चलता था और आपातकाल दस्तक दे रहा था – यानि की आम जनता परेशानियों से दबी थी और जंजीर ने उनको एक लौ दिखाई थी।
अमिताभ बच्चन का बंदुक, ऋषि कपूर के गिटार के ऊपर भारी पड़ा। एक के बाद एक कमाल की फिल्मे देने के बावजूद निर्माताओं की पहली पसंद ऋषि कपूर कभी नहीं बन पाए। फिल्मों का रास्ता अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और विनोद खन्ना से निकल कर राजेश खन्ना, ऋषि कपूर और जीतेन्द्र के पास जाता था। ऋषि कपूर को हमेशा इस बात का मलाल रहा की उनकी अभिनय की रोशनी एक्शन सितारों की चकाचौध की बीच कही खो गयी थी। यहाँ तक की सन 1975 में जब शोले रिलीज़ हुई थी तब उसी साल ऋषि कपूर की रफू चक्कर सिनेमाघरो में रिलीज़ हुई थी. इसे ऋषि कपूर की बदकिस्मती ही कही जाएगी की अमिताभ बच्चन की शोले ने भी एक बार फिर से बिली विल्डर की सुपरहिट फिल्म सम लाईक इट हॉट से प्रेरित इस कामेडी फिल्म के ऊपर ग्रहण लगा दिया। आलम ये था की हिंदुस्तान की दस सर्वश्रेष्ठ कॉमेडी फिल्मो में इसकी गिनती कभी नहीं होती है.
ऋषि कपूर का करियर अगर 50 सालों तक बदस्तूर चला तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह थी उनका सहज और प्राकृतिक अभिनय जिसमे किसी भी तरह की मिलावट नहीं थी। अगर वो रोमांस करते थे तो लगता था की वाकई में कोई पर्दे पर रोमांस कर रहा है, अगर वो परदे पर गाना गाते थे तो उसमे खुद की झलक नज़र आती थी।
ऋषि कपूर हमेशा साये में रहे. सबसे पहले अपने पिता राज कपूर की कद्दावर इमेज की चकाचौंध मे उनकी रोशनी धूमिल ही रही और उसके बाद बारी आई उनके बेटे रनबीर कपूर की। मिलेनियल्स के लिये रनबीर कपूर का स्टारडम उनके पिता के स्टारडम से कही बडा था। उनकी पहली फिल्म सुपरहिट जरूर साबित हुई लेकिन उस फिल्म का नाम राजा (फिल्म में ऋषि कपूर के किरदार का नाम) नहीं बल्कि बॉबी था। यहाँ पर ये भी बताना जरुरी है की बॉबी के लिए ऋषि कपूर अपने पिता की पहली चॉइस नहीं थे। मेरा नाम जोकर की असफलता के बाद राज कपूर क़र्ज़ में डूब गए था और हालात इस कदर खराब हो चुके थे की आर के स्टूडियो को गिरवी रखना पड़ा था। क़र्ज़ के दलदल से निकलने के लिए उन्होंने अपनी अगली फिल्म के लिये एक हल्की फुल्की प्रेम कहानी कहानी लिख ली। हीरो के लिए उन्होंने राजेश खन्ना को साइन करने की सोची लेकिन पैसों की इतनी जबरदस्त तंगी थी की फिल्म के लिए राजेश खन्ना को साइन करना उनके लिए महज एक ख्वाब बन कर रह गया। फिल्म कम लागत में और जल्दी बन जाए – उनके जहन मे सिर्फ यही दो बातें चल रही थी और तब उनको अपने बेटे की याद आयी और उसके बाद ही ऋषि कपूर को बॉबी में एंट्री मिली थी।
70 और 80 के दशक फिल्म जगत के वो युग है जो अपनी कहानी के लिए नहीं जाने जाते है। फिल्में एक ढर्रे पर चलती थी और निर्माता निर्देशक अपने हर फ़िल्मी प्रोजेक्ट को सेफ बनाने की कोशिश करते थे। दाद देनी पड़ेगी की ऋषि कपूर ने सेफ रास्ता कभी नहीं चुना। बॉबी के बाद उनकी दूसरी फिल्म थी जहरीला इंसान जिसमे उनका नेगेटिव किरदार था घनी मुछों के साथ। अपनी तीसरी फिल्म रफू चक्कर में उन्होंने लगभग पूरी फिल्म में औरतो के कपडे पहन कर एक लड़की की भूमिका अदा की। बारूद में उनके साथी पिस्तौल और हथगोले बने। इसमें कोई शक नहीं की दूसरा आदमी ज़माने की आगे की फिल्म थी। कथाकार राजेंद्र सिंह बेदी की कहानी पर बनी फिल्म एक चादर मैली सी जिस किसी ने भी देखी है उसको इस बात का भी एहसास जरूर होगा की सन् १९८९ में और कोई सितारा मंगल की भूमिका करने के पहले दो बार जरूर सोचता। खोज में नसीरुद्दीन शाह और डैनी के साथ मिलकर उन्होंने जो सस्पेंस का ताना बाना बुना था वो आज भी रोमांचित करता है। ये ऋषि कपूर की बुरी किस्मत ही थी की उनके ये सभी एक्सपेरिमेंट्स फ्लॉप साबित हुए।
अस्सी का आखिरी चरण में जब उनकी फिल्में एक एक बाद एक फ्लॉप हो रही थी तब उनको बचाया नगीना और चांदनी ने। गौर कीजिये यहाँ भी बॉबी की तरह फिल्म के केंद्र बिंदु में उन फिल्मों की अभिनेत्री थी भले ही ऋषि कपूर का रोल कमाल का इन फिल्मो में क्यों ना रहा हो। उनको एक बार फिर से रंगीन स्वेटर, स्विट्ज़रलैंड की हसीं वादियां और गिटार की ओर रुख करना पड़ा।
ऋषि कपूर में कितना दमखम है ये उन्होंने तब दिखाया जब उन्होंने अपनी उम्र के साथ समझौता कर लिया। उनके मेकओवर की प्रक्रिया शुरू हो चुकी था लेकिन फिल्म लक बायॅ चांस के बाद उन्होंने उसको सीधे चौथे गियर में डाल दिया। दो दूनी चार, औरंगज़ेब, अग्निपथ, कपूर एंड संस, मुल्क – ये कुछ ऐसी फिल्में थी जिनकी वजह से ऋषि कपूर को अपने अभिनेता होने पर फक्र हुआ होगा। अफ़सोस इसी बात का है की उनकी इस रफ़्तार पर उनकी बीमारी और बाद मे उनकी मौत ने ब्रेक लगा दिया। ऋषि कपूर की प्रतिभा को समझने में वक़्त लगेगा और अगर इसे जल्दी समझना है तो उनके नाम से कपूर सरनेम और उनकी इमेज से स्वेटर और गिटार कुछ समय के लिए निकाल दीजिये। आपको अपार संभावनाओ वाला एक ऐसा अभिनेता मिलेगा जिसकी प्रतिभा को हमने पिछली सदी मे कुचल दिया था।