वक़्त ने किया क्या हसीं सितम, कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियो, तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, जलता है बदन – ये सभी कैफ़ी साहब की कलम से ही निकले थे। लेकिन ये उनका दुर्भाग्य था की फिल्म फ्लॉप होने की वजह से उनको आगे लिखने का ज्यादा मौका नहीं मिला। अपने आखिरी समय तक कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर एक्टिविस्ट रहने वाले कैफ़ी आज़मी 10 मई 2002 ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था और अपने पीछे छोड़ गए थे बेहतरीन नज़्मों और ग़ज़लों का खज़ाना जो आपने वाली पीढ़ी को हमेशा प्रेरित करते रहेंगे।
इस्मत चुगतई के पति शाहिद लतीफ़ की फिल्म बुज़दिल के लिए 1952 में कैफ़ी ने एक गाना लिख कर अपनी फ़िल्मी पारी की शुरुआत की और उनकी इस शुरआत को किसी ने धक्का दिया था। धक्का देने वाली कोई और नहीं बल्कि इस्मत चुगतई खुद थी। इस्मत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की विचारधारा से अपनी सहमति रखती थी और उसी पार्टी के लिए कैफ़ी साहब काम करते थे। मेहनताने में उनको हर महीने 40 रुपये मिलते थे।
उनकी पत्नी शौकत आज़मी उन दिनों गर्भवती थी और तब इस्मत को लगा की कैफ़ी को कुछ पैसो की जरुरत होगी। मदद करने का बीड़ा उन्होंने खुद उठाया और उनकी सिफारिश अपने पति से कर दी। कैफ़ी आज़मी को शाहिद ने साफ़ साफ़ बताया की जो पैसे उनको गाना लिखने के लिए मिलेंगे वो उनकी पत्नी शौकत को दिए जायेंगे।
सात साल तक कैफ़ी कैसे भी लिख कर अपना गुज़ारा करते रहे और 1959 में पहली बार उनको किसी बड़ी फिल्म के लिए लिखने का मौका मिला। फिल्म थी गुरुदत्त निर्देशित कागज़ के फूल जिसमे उनको एस डी बर्मन के लिए गानें लिखने थे। एक पुराने साक्षात्कार में कैफ़ी ने बताया था की फिल्म में ऐसी कोई सिचुएशन नहीं थी जहा पर वक़्त ने किया क्या हसीं सितम गाना फिट हो लेकिन गुरु दत्त को वो गाना इतना पसंद आया की उसको फिट करने के लिए उन्होंने एक सिचुएशन फिल्म में बना डाली। फिल्म के गाने बेहद सफल हुए लेकिन फिल्म नहीं और फिल्म की असफलता की वजह से कैफ़ी को काम ढूंढ़ने के लिए मशक्कत करनी पड़ी।
आगे चल कर चीज़ें बदली नहीं – सुपरहिट गाने लेकिन फिल्म फ्लॉप – यही उनके फिल्मी करियर का सार बन गया। आगे चल कर इसकी तादाद इतनी बढ़ गयी की कैफ़ी साब खुद को बदकिस्मत मानने लगे। इस बात को लेकर उनका एक किस्सा काफी मशहूर है। निर्देशक चेतन आनंद एक दिन उनके घर गए और उनसे गुज़ारिश की कि वो उनकी आने वाले फिल्म के लिए गाने लिखे। तब कैफ़ी साहब ने उनको यही बोला की लोग कहते है की मैं अच्छा लिख लेता हूँ लेकिन मेरे किस्मत ठीक नहीं है। तब चेतन आनंद ने उनको जवाब दिया की लोग मेरे बारे में भी कुछ ऐसा ही बोलते है। अगर दो नेगेटिव एक साथ मिल जाए तो कुछ पॉजिटिव बनना निश्चित है। इसके बाद इन दोनों की जो फिल्म आयी उसके बारे में ऐसा कहा जाता है की हिंदुस्तानी फ़िल्मी पर्दे पर हकीकत से बेहतर फिल्म अभी तक जनता को देखने को नहीं मिली है।
इस फिल्म की सफलता के बाद नग़मा निगार कैफ़ी आज़मी, संगीतकार मदन मोहन और निर्देशक चेतन आनंद की मानो एक तरह से तिकड़ी बन गयी। हँसते ज़ख्म के गाने तुम जो मिल गए हो से एक बार फिर उन्होंने सफलता की सीढिया चढ़ी.
कैफ़ी आज़मी के हुनर का अगर किसी फिल्म में सही तरह से इस्तेमाल किया गया था तो वो फिल्म निश्चित रूप से हीर राँझा थी। चेतन आनंद की इस फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट कविता के फॉर्मेट में थी जो कैफ़ी की कलम से निकली थी। ये इतना कठिन काम था की इसका असर कैफ़ी आज़मी की सेहत पर भी पड़ा। हाई ब्लड प्रेशर और अनिद्रा ने उनको आ घेरा था। फिल्म की रिलीज़ के एक साल बाद उनको ब्रेन हैमरेज की वजह से उनका बायां पैर और बायां हाथ काम करने में सक्षम नहीं रहे।
शबाना आज़मी ने अपने एक पुराने इंटरव्यू में चेतन आनंद और अपने पिता के बारे में कहा था की उनको देखकर ये बेहद आश्चर्य होता था की ये दोनों मिलकर इतना कमाल का काम कैसे कर लेते है. उन्होंने उसी इंटरव्यू में उन्होनें आगे बताया था की चेतन आनंद के लिए ये रूटीन था की वो सुबह 10 बजे जुहू स्थित उनके घर जानकी कुटीर घर पहुंच जाते थे और लगभग एक घंटा उनके साथ बैठते थे और सिर्फ उनको सुनते थे। इस पुरे दरमियान चेतन के हाथों में चाभी का गुच्छा घूमता रहता था।
इस बात को जान कर बहुत लोगो को आश्चर्य होगा की फिल्म हीर राँझा का गाना ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं को कैफ़ी आज़मी ने रिकॉर्डिंग के महज कुछ घंटे पहले लिखा था। इस गाने की सिटिंग चेतन आनंद के घर पर थी रात 8 बजे लेकिन जब रात 10 बजे तक कुछ भी नहीं हो पाया था तब चेतन ने गाने की सिटिंग कैंसिल कर दी यह कह कर की सुबह 11 बजे की रिकॉर्डिंग के वक़्त देख लिया जायेगा। लेकिन जब मदन मोहन, कैफ़ी आज़मी और चेतन आनंद सुबह ५ बजे गाने की सिटिंग के लिये एक बार फिर बैठे तब ११ बजे के पहले उनके हाथ में पूरा गाना था।
गीतकार शैलेन्द्र की ही तरह कैफ़ी आज़मी ने फिल्मों के लिए गाने सिर्फ अपने परिवार की जीविका चलाने के लिए लिखते थे. फिल्मो में उनका उतना मन नहीं लगता था. एस डी बर्मन को पता था की कागज़ के फूल के गानों के साथ साहिर के बाद अगर कोई न्याय कर सकता था तो वो कैफ़ी ही थे। इसके पहले गुरु दत्त की फिल्में साहिर लिखते थे। लेफ्ट विचारधारा होने की वजह से दर्द को वो अच्छी तरह से समझ लेते थे। २००२ की उमस भरी मई में कैफ़ी के जाना एक अध्याय की समाप्ति के बराबर थी।
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
वक़्त ने किया…
बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
एक राह पर चलके दो क़दम
वक़्त ने किया…
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