“यार, इस फिल्म का चलना बहुत जरुरी है मेरे लिये” – जब इरफ़ान ने हताशा में ये शब्द बोले थे


मार्च 2007 में निर्देशिका मीरा नायर की फिल्म द नेमसेक का प्रीमियर साउथ मुंबई के आइनॉक्स मल्टीप्लेक्स में शाम को होना सुनिश्चित हुआ था। मीरा नायर की दोस्त सूनी तारापोरवाला की वजह से साउथ मुंबई की सभी बड़ी हस्तियां वहां पर प्रीमियर के वक़्त मौजूद थी। इसके पहले इरफ़ान से हासिल, रोग, सुपारी, चरस, यूं होता तो क्या होता जैसी फिल्मों के सेट पर उनसे अक्सर मुलाकात की वजह से दोस्ती के बीज पनप उठे थे।


नागरिक न्यूज admin
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प्रीमियर के दौरान उस भीड़ में जब इरफ़ान ने मुझे देखा तो एक दूसरे को ‘हाय’ कहने का मौका हम दोनों ने ढूंढ ही लिया। चंद सेकंड के लिए ही इरफ़ान से बात हो पायी लेकिन जो बात उन्होंने उस वक़्त कही उसको सुनकर यही लगा की इरफ़ान की सालों की मेहनत शायद मीरा नायर की इसी फिल्म में छुपी है और उन्होंने इस फिल्म से ढेर सारी उम्मीदें अपनी बांध रखी है। “यार, इस फिल्म का चलना बहुत जरुरी है। अगर चल जाए तो मेरे लिए ये बहुत अच्छा रहेगा” – ये इरफ़ान के शब्द थे और इन शब्दों में उनकी सालों की मेहनत, हताशा, आने वाले समय का उत्साह – सभी कुछ छुपा हुआ था। उनके इन शब्दों में भी छुपा हुआ था की उनके मेहनत और टैलेंट को कोई ठीक से तराश नहीं पा रहा है। उनकी निगाहें हॉलीवुड पर टिकी थी क्योकि उनको पता था कि हॉलीवुड को टैलेंट की कद्र करने की कला बखूबी आती है।  

इरफ़ान से मेरी पिछली मुलाकात उनकी फिल्म करीब करीब सिंगल के प्रमोशन के दौरान हुई थी। उनके चेहरे पर संतोष के भाव थे और लग रहा था की जिस तरह से चीज़ें उनकी जिंदगी में चल रही है उनसे वो काफी संतुष्ट थे। हताशा और निराशा अब अतीत की बात थी हो चुक थी। टॉम हैंक्स के साथ काम करने का मौका, पजल फिल्म में लीड रोल का मौका, मदारी फिल्म से प्रोडूसर बनाने का मौका, पीकू और तलवार जैसी फिल्मो से कमर्शियल फिल्मों में अपनी पैठ बिठाने का मौका – इरफ़ान को वो हर चीज़ करने का मौका मिल रहा था जिसको वो सालों से ढुंढ रहे थे। एक क्रूर और जालिम इंडस्ट्री जहां पर भाई भतीजावाद हर चीज़ पर हावी है और जहाॅ खान सरनेम की वजह से सैकड़ों दरवाजे खुल जाते, वह पर इरफ़ान ने अपने सरनेम को अपने नाम से ही हटा दिया। इरफ़ान का मानना था की सरनेम की शक्ति की बजाय उनको अपने कर्म की शक्ति में ज्यादा विश्वास है। 

इरफ़ान से पहली बार अच्छी तरह से रूबरू होने का मौका मिला था फिल्म रोग की रिलीज़ के दौरान। महेश भट्ट के बैनर तले इस फिल्म की चर्चा तो आगे चल कर कम हुई लेकिन एम एम क्रीम का संगीत आज भी जब रेडियो स्टेशन पर गूंजता है तो फ्रीक्वेंसी वही पर रुक जाती है। वही पर पहली बार देखा की इरफ़ान अपने सिगेरट को रोल करके पीना पसंद करते है। चाभी का गुच्छा, सेल फ़ोन के साथ साथ उनके तम्बाकू का पाउच और सिगरेट पेपर भी उनके साथ अनिवार्य रूप से चलते थे। मौका देख कर मैंने उनसे पूछ लिया था अपना वो ‘स्टैश’ कहा से खरीदते है. बड़े ही प्यार से उन्होंने कहा – “जुहू के होराइजन होटल के नीचे जो पान वाला है ना वहीं पर ये दोनों मिल जाते हैं।”

इरफ़ान को हमेशा से एक्सेलन्स की तलाश रही थी और शायद यही वजह भी थी की बेचैनी उनके अंदर थी। तरीके से काम करना – ये उनकी आदत मे शुमार था। जब इंडस्ट्री में उनको ये सब नहीं मिल पाया तब उन्होंने यश राज फिल्म्स के लिए न्यूयॉर्क, आजा नचले और गुंडे जैसी फिल्में की। भले ही उनको इन फिल्मों से ज्यादा फायदा ना मिला हो लेकिन यश राज के काम करने के डिसिप्लिन ने उनको कुछ समय के लिए राहत जरूर दी। अगर उनके इस फेज को ठीक से कुरेदे तो ये जानने को मिलेगा की ये वही फेज था जब इरफ़ान का सितारा हॉलीवुड में चमकने लगा था। 

दुःख होता है ये देखकर की जब प्रियंका चोपड़ा ने बेवॉच के लिए अपनी हामी भरी थी या फिर जब दीपिका पादुकोण ने रिटर्न आफ जैंदर केज से अपने हॉलीवुड की पारी की शुरुआत की थी तब हिंदुस्तान की मीडिया ने उनके लिए कसीदे पढ़े थे। लेकिन जब इरफ़ान ने लाइफ ऑफ़ पाई या फिर स्पाईडरमैन या जुरैसिक पार्क जैसी फिल्मे साईन की तब वो खबर मात्र एक कॉलम की थी।
इरफ़ान से अच्छी तरह से परिचित होने में फिल्म जगत को 15 साल लग गए थे. धन्य हो तिग्मांशु धूलिया की फिल्म हासिल का जिसकी वजह से इरफ़ान स्पॉटलाइट में आये। बहुत कम लोगों को पता है कि जिस तरह से रेनू सलूजा ने अनुपम खेर के पूरे किरदार को उनकी डेब्यू फिल्म जाने भी दो यारों से निकाल दिया था कुछ वही हाल (लगभग) इरफ़ान के साथ फिल्म सलाम बॉम्बे में हुआ था। रोल पूरी तरह से तो नहीं कटा लेकिन कहने के लिए वो उनकी डेब्यू फिल्म जरूर बन गयी। आगे चलकर फिल्म द नेमसेक से मीरा नायर ने अपनी गलती सुधारी ली थी।

स्लमडाॅग मिलियनेयर, पीकू, लाइफ ऑफ़ पाई, तलवार, पान सिंह तोमर, लंच बॉक्स – इन सभी फिल्मो ने उनको एक स्टार बना दिया था। लेकिन अपार सफलता के बावजूद वो वही जयपुर वाले इरफ़ान ही थे और इसकी गवाही देती थी उनके इर्द गिर्द लोगो और चमचो का घेरा जो पहले भी नहीं थी और अंत में भी नहीं थी। इरफ़ान अपने इर्द गिर्द सिनेमा की दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी पूरी जानकारी रखते थे। एक बार उनके वैनिटी वन में बैठ कर जब उनसे कैजुयल बातचीत हो रही थी तब उन्होंने एक ब्रिटिश फिल्म वन्स का जिक्र किया जिसकी लोग बहुत तारीफ़ कर रहे थे। ये वाक्या 2007 का है जब वन्स के रुप मे काफी समय के बाद एक म्यूजिकल नेचर की फिल्म लोगो को देखने को मिली थी। जब मैंने उनको बताया की इसकी डीवीडी मेरे पास है तब अगले ही दिन अपने रनर को उन्होंने मेरे पास भेजा डीवीडी लेने के लिए और उसके अगले ही दिन उसको लौटा भी दिया। 

इरफ़ान की भरपाई कर पाना शायद मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं। ऐसे बिरले सालो में एक बार पैदा होते है। मौत से इस बात का रंज हमेशा रहेगा की इरफ़ान ने तो अभी अभी शुरुआत की थी।