नई दिल्ली। समकालीन भारतीय इतिहास जवाहरलाल नेहरू के उल्लेख के बिना अधूरा है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री के रूप में उन्होंने जो निर्णय लिए, उनका प्रभाव लंबे समय तक रहा है। नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को इलाहाबाद में एक अमीर कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता मोतीलाल नेहरू, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करते थे।
उनके निजी शिक्षक फर्डिनेंड टी ब्रूक्स ने उनकी पढ़ाई में उनकी मदद की और विज्ञान के प्रति उनके रूझान को विकसित किया। उनके लिए एक छोटी सी प्रयोगशाला स्थापित की। वहां वे भौतिक शास्त्र व रसायन शास्त्र में प्रयोग करते हुए घंटो बिताते थे।
अपनी किशोरावस्था में नेहरू 1904-05 के रूस-जापान युद्ध में जापान की जीत से प्रभावित थे। उन्होंने भारत व एशिया के अन्य देशों की यूरोप की गुलामी से स्वतंत्रता के बारे में सोचा। वह राष्ट्रवादी विचारों से ओतप्रोत थे।
मई 1905 में वह आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। हैरो में दो साल की पढ़ाई के बाद नेहरू ने कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में प्रवेश लिया। यहीं पर उन्होंने मेरेडिथ टाउनसेंड की पुस्तक ‘एशिया एंड यूरोप’ पढ़ा। इस पुस्तक ने उनके राजनीतिक विचारों को प्रभावित किया।
नेहरू ने 1910 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पूरी की, कानून का अध्ययन किया और वकालत के लिए भारत लौट आए। वहां से भारत वापस आने पर पिता मोतीलाल नेहरू के साथ राजनीति में सक्रिय हो गए। लेकिन वह अपने पिता के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं थे। उनके पिता बहुत अधिक उदारवादी थे।
राजनीति में कदम
नेहरू का पहला राजनीतिक कदम 1915 में एक सार्वजनिक सभा में प्रेस के खिलाफ बनाए गए कानून के विरोध में एक भाषण था। उनका भाषण जैसे ही समाप्त हुआ, डॉ तेज बहादुर सप्रू ने उन्हें गले लगा लिया और उनके भाषण की सराहना की व उनका उत्साह बढ़ाया। नेहरू के राजनीतिक जीवन ने तब उड़ान भरी जब उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए जन आंदोलनों में भाग लेना शुरू किया।
इस दौरान नेहरू कांग्रेस पार्टी के अग्रणी नेता और देश की स्वतंत्रता संग्राम की वैश्विक आवाज व चेहरा बनकर उभरे। वह गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के पूर्ण समर्थक थे। उन्हें पहली बार 1921 के अंत में तब गिरफ्तार किया गया था, जब प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा के विरोध में प्रदर्शन हो रहा था।
उसके बाद के वर्षों में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें लगभग तीन साल की सजा हुई थी। इस दौरान नेहरू ने ‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और ‘ग्लिम्पसेज ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री’ नामक दो लोकप्रिय पुस्तकें लिखीं।
आजादी के बाद उन्हें देश का प्रथम प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। 15 अगस्त, 1947 को आधी रात के करीब उन्होंने संसद में अपना प्रसिद्ध भाषण ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ दिया।
नए राष्ट्र का निर्माण
एक प्रधान मंत्री के रूप में नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के प्रति उदार और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाया। उनके पहले मंत्रिमंडल में 14 मंत्रियों में से पांच गैर-कांग्रेसी थे। अपने मंत्रिमंडल के कुछ सहयोगियों के बीच असहमति होने पर उन्होंने उन्हें मंत्रीमंडल से निकालने के बजाय उनके विचारों का सम्मान किया। नेहरू के विचारों से असहमत श्यामा प्रसाद मुखर्जी और बी.आर. अम्बेडकर ने खुद ही मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था।
देश के उत्कृष्ट संस्थानों के निर्माण में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। राजधानी दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की स्थापना कराई। इसकी आधारशिला 1952 में रखी गई थी। भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) उनके कार्यकाल के दौरान सामने आए। पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) 1951 में खड़गपुर में स्थापित किया गया। बाद में ऐसे और संस्थान बनाए गए। ये संस्थान अपनी उत्कृष्टता के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं।
उन्हीं के कार्यकाल में 1948 में भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य राष्ट्र की शांति बनाए रखने की आवश्यकता के लिए परमाणु ऊर्जा का उपयोग करना था।
नेहरू रूस में कम्युनिस्ट प्रयोग से विशेष रूप से प्रभावित थे और एक समाजवादी ढांचे के भीतर आर्थिक विकास के महत्व में विश्वास करते थे। हालांकि प्रधानमंत्री के आर्थिक विचारों से असहमत होते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता सी. राजगोपालाचारी ने 1957 में नेहरू सरकार से अपना नाता तोड़ लिया।
राजाजी ने निजी क्षेत्र पर सरकारी नियंत्रण का विरोध किया। नेहरू व राजागोपालचारी दोनों को चाहने वाले एक विदेशी पर्यवेक्षक ने टिप्पणी की कि राजगोपालाचारी आवश्यकता से अधिक नेहरू की आलोचना कर रहे थे।
योजना आयोग द्वारा संचालित पंचवर्षीय योजनाएं समाजवादी एजेंडे का हिस्सा थीं। नेहरूवादी के आर्थिक मॉडल को बाद के शासकों ने भी जारी रखा। हालांकि इस मॉडल की खामियों की वजह से धीमी पड़ी आर्थिक विकास की प्रक्रिया को गति देने के लिए 1991 में पुरानी व्यवस्था को तिलाजंलि दे दी गई।
भारत की विदेश नीति की कसौटी
उस दौरान दो गुटों में बंटी दुनिया के बीच नेहरू ने ‘गुटनिरपेक्षता’ की नीति को अपनाया। उन्होंने लिखा था कि नई दिल्ली को अमेरिका और सोवियतसंघ दोनों प्रति मित्रवत होना चाहिए, लेकिन किसी भी शिविर में शामिल नहीं होना चाहिए।
प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में वे इस सूत्र पर अडिग रहे, जो देश की विदेश नीति की कसौटी बना। तब से लेकर अब तक की सरकारें इसी रास्ते पर चल रही हैं। नेहरू की पहल पर ही 1961 में बेलग्रेड में जोसिप ब्रोज टीटो और गमाल अब्देल नासिर के साथ गुट निरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) की स्थापना हुई।
1961 में नेहरू ने सैनिक हस्तक्षेप कर गोवा और दमन व दीव को पुर्तगाल के शासन से मुक्ति दिलाकर भारत संघ में उनका विलय कराया। हालांकि प्रारंभ में प्रधान मंत्री नेहरू सैन्य कार्रवाई का आदेश देने के लिए अनिच्छुक थे। इस पर 1950 में भी चर्चा हुई थी। सरदार पटेल सैन्य ताकत के बल पर उक्त क्षेत्रों को मुक्त कराना चाहते थे, लेकिन नेहरू के विरोध के कारण उस दौरान मामला शांत हो गया था।
1961 में पुर्तगाल को अपना कब्जा छोड़ने के लिए राजी करने के राजनयिक प्रयासों में विफल होने के बाद नेहरू की उनकी सरकार ने सैन्य कार्रवाई करने का फैसला किया। 17वीं इन्फैंट्री डिवीजन, 50वीं पैराशूट ब्रिगेड, मराठा लाइट इन्फैंट्री की पहली बटालियन और मद्रास रेजिमेंट की 5वीं बटालियन ने ऑपरेशन विजय नामक सफल अभियान चलाया।
विदेश नीति के मोर्चे पर नेहरू को कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसका राष्ट्र पर स्थायी प्रभाव पड़ा। उनका दृष्टिकोण आदर्शवाद पर आधारित था। उन्होंने 1947 में पाकिस्तान के सहयोग से कश्मीर में घुसपैठ करने वाले सशस्त्र पाकिस्तानी कबायलियों के मामले में संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप की मांग की।
हालांकि भारतीय सैनिकों ने हमलावरों को पीछे धकेल दिया था और पाकिस्तानी भाग रहे थे। लेकन तभी नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र से संपर्क और किया। उसने युद्ध विराम लागू कर दिया। इससे कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में ही रह गया।
वह तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह पर संयुक्त राष्ट्र संघ गए थे। हालांकि बाद के हालात के कारण नेहरू को संयुक्त राष्ट्र संघ जाने की गलती का एहसास हुआ।
चीन पर दुविधा
1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया तो उन्हें विदेश नीति के मामले में एक और चुनौती का सामना करना पड़ा। सरदार वल्लभभाई पटेल ने 1950 में ही नेहरू को चीन के प्रति आगाह कर दिया था। उन्होंने नेहरू को लिखा था कि चीन के बढ़ते खतरे को देखते हुए भारत को तिब्बत और सिक्किम में अपनी स्थिति को मजबूत करना चाहिए।
अपनी मृत्यु के महीनों पहले पटेल ने फिर प्रधानमंत्री नेहरू को लिखा, चीनी सरकार ने शांतिपूर्ण इरादा दिखाकर हमें भ्रमित करने की कोशिश की है। लेकिन नेहरू ने उनकी चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया और ‘हिंदी-चीनी भाई भाई ‘ का नारा दिया।
युद्ध से दो साल पहले 1960 में चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई ने भारत का दौरा किया और नेहरू के साथ सीमा मुद्दों पर चर्चा की थी, लेकिन वार्ता नहीं हुई। 1959 में तिब्बत से भागे दलाई लामा को शरण देने के नेहरू सरकार के फैसले को लेकर भी चीन नाराज था।
अमेरिका-चीन के विद्वान जॉन गार्वर के अनुसार 1959 में एक बैठक में चीनी नेता माओ जेडांग ने कहा था कि तिब्बत के प्रति भारत की गलत नीतियों की वजह से उसके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए।
पटेल की चेतावनी और जेडांग की टिप्पणी के बावजूद भारत सरकार में बहुत कम ही लोगों का मानना था कि चीन वास्तव में एक पूर्ण पैमाने पर युद्ध शुरू करेगा और जब युद्ध शुरू हुआ, तो भारत के पास कोई तैयारी नहीं थी। युद्ध में चीन ने भारत को मात दी।
संक्षिप्त बीमारी के बाद 1962 में चीन से युद्ध में पराजित होने सवे आहत नेहरू की 27 मई, 1964 को एक संक्षिप्त बीमारी के बाद निधन हो गया।
अपनी विरासत के बारे में उन्होंने कहा था, यदि कोई मेरे बारे में सोचना चाहता है, तो मैं चाहूंगा कि वे कहें ‘यह वह व्यक्ति था, जिसने पूरे दिमाग और दिल से भारत व यहां के लोगों को प्यार किया।