दुनिया के शीर्ष बुद्धिजीवियों की चेतावनी: फासीवाद लौट आया है!

सैकड़ों शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों और लेखकों ने एक बार फिर दुनिया को चेतावनी देने के लिए इतिहास की ओर रुख किया है। ठीक सौ साल पहले, जब फासीवाद यूरोप को निगल रहा था, तब कुछ साहसी बुद्धिजीवियों ने खुलकर उसका विरोध किया था-और अब, 2025 में, उसी चेतावनी को फिर से दोहराया गया है। ‘फासीवाद लौट आया है’-इस उद्घोष के साथ दुनिया भर के 400 से अधिक विद्वान, जिनमें 30 से ज़्यादा नोबेल पुरस्कार विजेता भी शामिल हैं, एक नया घोषणापत्र लेकर सामने आए हैं।

यह नया मैनिफेस्टो बताता है कि पिछले दो दशकों में दुनिया भर में ऐसी ताकतें फिर से उभर आई हैं जो लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर रही हैं-नस्लभरी राष्ट्रवादी लफ्फाज़ी, लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला, प्रेस और न्यायपालिका का दमन, और उन लोगों के अधिकारों का हनन जो सत्ता के गढ़े हुए परंपरागत नागरिक के साँचे में फिट नहीं बैठते।

ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, अर्जेंटीना और ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख अख़बारों में प्रकाशित यह घोषणापत्र, आने वाले समय को रोकने की हताश लेकिन ज़रूरी कोशिश है-इस उम्मीद में कि इस बार दुनिया इतिहास की चेतावनी को सुनेगी।

इतिहास खुद को दोहराता है-पहली बार एक त्रासदी के रूप में, दूसरी बार एक तमाशे के रूप में। एक सदी पहले जो त्रासदी घटी थी, वह आज वीभत्स तमाशे की शक्ल में फिर से हमारे सामने खड़ी है। फर्क बस इतना है कि पहले सत्ता की शक्ल डरावनी थी-नाम ही काफी थे डराने को: हिटलर, मुसोलिनी-और आज वही सत्ता जोकर की तरह सजधजकर वही डर वापस ले आई है, इस बार हँसी के परदे में, राष्ट्रवाद के झंडों तले, सैनिक परेडों के बीच और चुप हो चुके विश्वविद्यालयों के गलियारों में।

1925 में इटली के कुछ साहसी बुद्धिजीवियों ने जब खुला पत्र लिखा था तब वे नहीं जानते थे कि इसके कारण उन्हें अपनी नौकरियाँ गंवानी पड़ेंगी, मार खानी पड़ेगी या समाज के हाशिए पर धकेल दिया जाएगा। वे तो बस चेतावनी देना चाहते थे-कि जो हो रहा है, वह सामान्य नहीं है। लेकिन सत्ता ने उन्हें रौंद दिया, और दुनिया ने कान बंद कर लिए। अंजाम सबने भुगता: जलते हुए शहर, बर्बाद सभ्यताएँ, और लाशों का पहाड़।

आज, सौ साल बाद, वही चेतावनी एक बार फिर दी जा रही है। इस बार वह आवाज़ दुनिया भर से उठ रही है-चार सौ से अधिक वैज्ञानिक, इतिहासकार, शिक्षाविद और लेखक मिलकर कह रहे हैं: “रुक जाओ! देखो! यह वही हो रहा है जो पहले हुआ था। ‘राष्ट्र की रक्षा’ और ‘संस्कृति की पुनर्स्थापना’ के नाम पर जो किया जा रहा है, वह असल में लोकतंत्र का गला घोंटने की साज़िश है।”

आज सत्ता केवल एक देश में नहीं, हर जगह एक जैसी भाषा बोल रही है-डंडों की भाषा, झूठे गौरव की भाषा, और डर की भाषा। प्रेस पर हमला हो रहा है, अदालतें कमजोर की जा रही हैं, विश्वविद्यालयों को आज्ञापालक बनाया जा रहा है, और वैज्ञानिक शोधों को मिटा दिया जा रहा है। यह आकस्मिक घटनाएँ नहीं हैं, सोची-समझी नीति है-जनता को झूठ से भर दो, गुस्से से बहका दो, और फिर उसी के नाम पर सत्ता को स्थायी बना दो।

और यह सब एक दिन में नहीं हुआ। सत्ता ने एक-एक करके हर स्वतंत्र संस्था को निशाना बनाया-शिक्षा को, विज्ञान को, प्रेस को, न्यायपालिका को। शोध संस्थानों से जलवायु परिवर्तन, लैंगिक समानता और मानवाधिकारों से जुड़ी वर्षों की मेहनत को मिटा दिया गया। यह केवल जानकारी को नष्ट करना नहीं था-यह भविष्य को अंधेरे में धकेलने की प्रक्रिया थी।

जनता वही पुरानी है। उसे फिर से बताया जा रहा है कि उसकी गरीबी और संकट की वजह कोई बाहरी है-कोई प्रवासी, कोई अलग धर्म वाला, कोई अलग रंग वाला, कोई अलग सोच वाला। और जनता फिर से बहकाई जा रही है-नेतृत्व के नाम पर, ताकत के नाम पर, परंपरा के नाम पर।

इसलिए यह पत्र सिर्फ चेतावनी नहीं है। यह घोषणापत्र है-विचारों की रक्षा के लिए, भविष्य की रक्षा के लिए। यह ऐलान है कि हम इस बार चुप नहीं रहेंगे। हम उस गलती को नहीं दोहराएँगे जो पिछली सदी ने की थी।

यह संकट केवल अमेरिका, इटली या हंगरी का नहीं है। यह हर उस देश का है जहाँ सत्ताएं असहमति को कुचलना चाहती हैं, जहाँ छात्र पीटे जा रहे हैं, जहाँ किताबें जलती हैं, और जहाँ विचार अब अपराध बनते जा रहे हैं।

इस सत्ता का तमाशा चाहे जितना भव्य दिखे-सैनिक टैंकों, झंडों और परेडों के साथ-असल में वह भीतर से डरी हुई सत्ता है। जो सत्ता एक शिक्षक से, एक छात्र से डरे-वह ताकतवर नहीं, खोखली होती है।

और जब सत्ता खोखली होती है, तब इतिहास फिर से सिर उठाता है। सवाल सिर्फ इतना है-क्या हम फिर आँखें मूँद लेंगे? या इस बार उस इतिहास की दोहराव को रोक देंगे?

अगर आज हम फिर चुप रहे, तो कल का अंधेरा हमारी इसी चुप्पी की गूंज बन जाएगा।

(मनोज अभिज्ञान का लेख)

First Published on: June 15, 2025 9:46 AM
Exit mobile version