नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय से रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी को केवल गिरफ्तारी से तीन सप्ताह की राहत मिली है लेकिन उनके खिलाफ नागपुर में दर्ज़ एफआईआर की जांच जारी रहेगी और अर्णब गोस्वामी को जांच में सहयोग करना पड़ेगा यानी पूछताछ के लिए पुलिस के सामने उपस्थित होना पड़ेगा। नागपुर के अलावा अन्य राज्यों में दर्ज़ एफआईआर या भविष्य में दर्ज़ होनेवाले एफआईआर पर अगले आदेश तक रोक रहेगी क्योंकि सभी एफआईआर 21 मार्च के टेलीकास्ट से सम्बन्धित हैं। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि एक एफआईआर की विवेचना को कानून के अनुसार जारी रखने की अनुमति दी जानी जरूरी है क्योंकि इसके बिना यह माना जायेगा की अदालत कानून की उचित प्रक्रिया में बाधा डालने के लिए अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया है।
उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी को महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और जम्मू- कश्मीर में उनके खिलाफ दायर एफआईआर के आधार पर गिरफ्तारी से तीन सप्ताह की सुरक्षा प्रदान की है। तीन सप्ताह तक कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जाएगी। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने नागपुर में दर्ज एफआईआर नंबर 238 की तारीख 22 अप्रैल 2020 तक, पुलिस स्टेशन सदर, जिला नगपुर सिटी, महाराष्ट्र में धारा 153,153-ए, 153-बी, 295-ए,298, 500, 504 (2), 506,120-बी और भारतीय दंड संहिता 1860 की 117 के सन्दर्भ में दर्ज की गई की जांच पर कोई रोक नही लगाई है। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि गिरफ्तारी नहीं होगी पर पुलिस विवेचना जारी रहेगी और याचिकाकर्ता अर्णब गोस्वामी जांच में सहयोग करेंगे।
जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने कहा कि अदालत आज याचिकाकर्ता को तीन सप्ताह की अवधि के लिए संरक्षित करने का इरादा रखती है और उन्हें ट्रायल कोर्ट या उच्च न्यायालय के समक्ष अग्रिम जमानत की अर्जी देने की अनुमति देती है। इसके आलावा 21अप्रैल को टेलीकास्ट से सम्बन्धित अन्य सभी एफआईआर या भविष्य में दर्ज़ होने वाले नये एफआईआर पर रोक रहेगी।
उच्चतम न्यायालय ने 22 अप्रैल 2020 की एफआईआर नंबर 238 को पुलिस स्टेशन सदर, जिला नगपुर सिटी, महाराष्ट्र से एन एम जोशी मार्ग पुलिस स्टेशन, मुंबई में स्थानांतरित कर दिया है और निर्देश दिया है कि याचिकाकर्ता जांच में सहयोग करेंगे। इस बीच तीन सप्ताह की अवधि के लिए, याचिकाकर्ताओं को किसी भी प्रकार के उत्पीड़नात्मक कदमों से सुरक्षा प्रदान की जाती है जो 21 अप्रैल 2020 को होने वाले टेलीकास्ट से उत्पन्न उपरोक्त एफआईआर के संबंध में है। याचिकाकर्ता इन तीन सप्ताह की अवधि के भीतर, दंड प्रक्रिया संहिता की 1973 की धारा 438 के तहत एक अग्रिम जमानत की याचिका दाखिल कर सकता है। इस तरह की याचिका को सक्षमकोर्ट उसकी मेरिट पर विचार करके निपटारा करेगा। पीठ मुंबई पुलिस आयुक्त को अर्नब गोस्वामी व उनके दफ्तर को सुरक्षा देने के निर्देश दिए हैं। पीठ ने उन्हें सारी एफआईआर को जोड़ने की अर्जी दाखिल करने अनुमति दे दी है और इस पर आठ सप्ताह बाद सुनवाई होगी।
वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी अर्नब गोस्वामी के लिए उपस्थित हुए। रोहतगी ने प्रस्तुत किया कि इस तरह निजी तौर पर शिकायतकर्ता को फंसाया नहीं जा सकता क्योंकि 23 अप्रैल को उनके और उनकी पत्नी पर हुए “जानलेवा हमले” के बाद एक दिन में उनके मुवक्किल को याचिका दायर करनी थी।
महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि कार्यक्रम के दौरान गोस्वामी द्वारा दिए गए बयान बेहद उत्तेजक थे और उन्होंने पालघर की घटना को सांप्रदायिक रूप दिया और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ भद्दी टिप्पणियां कीं। सिब्बल ने याचिका को बोलने की नकली स्वतंत्रता पर आधारित करार दिया। सिब्बल ने तर्क दिया, कि आप यहां अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंदू सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। आप ऐसे कई बयानों का हवाला देकर सांप्रदायिक हिंसा पैदा कर रहे हैं।
सिब्बल ने दावा किया कि एफआईआर में स्पष्ट रूप से अपराध किए गए थे, और इसलिए उन्हें अनुच्छेद 32 के तहत दायर एक सर्वव्यापी याचिका के तहत देखा नहीं किया जा सकता था। सिब्बल ने पूछा कि क्या गोस्वामी एक “विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति” हैं जिनके खिलाफ कोई जांच नहीं की जा सकती। राजस्थान राज्य के लिए पेश मनीष सिंघवी ने कहा कि कि आईपीसी की धारा 153 ए और 153 बी के तहत अपराध गैर-जमानती हैं। एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि महाराष्ट्र में पालघर लिंचिंग की घटना पर उनके नेतृत्व वाली समाचार बहस में भारतीय दंड संहिता की धारा 295A, 500, 504, 505 में समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने, सांप्रदायिक असहमति पैदा करने, राष्ट्रीय एकता के खिलाफ भावना को बढ़ावा देने आदि का उल्लेख किया गया था।
संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में दायर रिट याचिका में, रिपब्लिक टीवी एडिटर-इन-चीफ ने दलील दी कि एफआईआर उनके चैनल द्वारा पालघर की घटना से कांग्रेस को जोड़ने वाले प्रसारण के जवाब में थी। उन्होंने कहा कि एफआईआर याचिकाकर्ता को धमकाने, परेशान करने और जनता के सामने सच्चाई लाने के लिए खोजी पत्रकारिता करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कहने पर दर्ज की गई थी, इसलिए, आपराधिक कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत बोलने के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ।
याचिका में कहा गया है कि कांग्रेस के खिलाफ प्रसारित समाचारों के बाद, सोशल मीडिया में उनके खिलाफ एक समन्वित हमला हुआ। उन्होंने कहा कि 23 अप्रैल की आधी रात को उन्हें दो व्यक्तियों के हमले का सामना करना पड़ा, जबकि वह और उनकी पत्नी स्टूडियो से लौट रहे थे। भविष्य में इसी तरह के हमलों के बारे में आशंकाओं का हवाला देते हुए, उन्होंने अपने और अपने परिवार के सदस्यों के लिए केंद्र को दिशा-निर्देश मांगे। याचिका में गोस्वामी ने दावा किया कि पालघर की घटना पर उनके समाचार कार्यक्रमों ने किसी भी तरह की सांप्रदायिक असहमति को बढ़ावा नहीं दिया, और उनके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई कांग्रेस पार्टी द्वारा किए गए अपराध का परिणाम थी।
गोस्वामी ने दावा किया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ दायर शिकायतों में आरोपों के विपरीत, वास्तव में याचिकाकर्ता ने सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए अपने चैनल के मंच को फिर से प्रोत्साहित और उपयोग किया है, खासकर COVID-19 महामारी के वर्तमान महत्वपूर्ण समय में।
“याचिकाकर्ता ने अपने स्वयं के निहित स्वार्थों के लिए विभिन्न अन्य राजनीतिक दलों द्वारा किसी भी सांप्रदायिकरण के किसी भी प्रसार के लिए कड़ा विरोध किया है। यह समझ से बाहर है कि पालघर की घटना के संबंध में 21 अप्रैल 2020 को प्रसारित प्रसारण किसी भी सांप्रदायिक तनाव को कैसे भड़का सकता है और यह स्पष्ट है कि प्रसारण पर केवल एक ही राजनीतिक दल ऐतराज कर रहा है।”
याचिका में कहा गया है कि शिकायतों और एफआईआर में आरोप केवल “प्रसारण के केवल एक छोटे भाग के पूर्ण और विवेचनात्मक दुरुपयोग” के आधार पर अनुमान के तौर पर लगाया गया है। भारतीय प्रेस परिषद ने भी गोस्वामी पर हमले की निंदा की और एक बयान जारी किया कि हिंसा खराब पत्रकारिता के खिलाफ भी जवाब नहीं है।