आर्य समाज अपने गुरु ऋषि दयानंद की तरह विष पीकर अमृत पिलाने में विश्वास रखता है

डॉ. मुमुक्षु आर्य
देश Updated On :

जहां हमें इस्लाम व ईसाईयत की अवैदिक मान्यताओं से लडना है वहां हमें स्वयं के धर्म में आई कुरितियों अन्धविश्वासों व पाखंड को भी दूर करना है। गत लगभग दो हजार वर्षों से बहुत कूडा कर्कट अपनी अपनी आस्था के नाम पर इकट्ठा हो गया है। जब तक इस कूडे को ढोते रहेंगे हम कभी भी यवनों का सामना छाती तान कर नहीं कर सकेगें।

ऋषि दयानंद जी ने इस बात को समझा और सबसे पहले उन्होंने हमारे अपने धर्म में आई कुरितियों का जम कर खण्डन किया पश्चात यवनों व मलेच्छों की धुलाई की । परन्तु उनको विष देकर मारने वालों में सबसे आगे हिन्दू ही थे क्योंकि वे चाहते थे कि यवनों व मलेच्छों का तो खण्डन किया जाये पर उनका न किया जाये ।

उनके जाने के बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है आज भी हिन्दू आर्य समाज को समझ ही नहीं पा रहा वह समझता है कि आर्यजन उनकी आस्थाओं पर चोट कर उनको आपस में लडा रहा है ! जबकि वास्तविकता इससे बिल्कुल विपरित है। आर्य समाज धर्म के नाम पर चल पडे सब अन्धविश्वास व पाखंड को दूर कर उन्हें बहुत मजबूत करना चाहता है।

आज जब हम कुराण बाईबल आदि की दकियानूसी अवैज्ञानिक बातों का खण्डन करते हैं तो वे हमारे पुराणों में लिखी कपोल कल्पित हास्यास्पद गाथाओं को लेकर बैठ जाते हैं, गली मुहल्लों में दो दो रुपयों में बिकने वाले भगवानों को लेकर बैठ जाते हैं, हमें हजार वर्ष तक गुलाम बनाये रखने की शेखी मारने लगते हैं। भांति भांति की मूर्तियों व भांति भांति के भगवानों की पूजा हमारी लम्बी दास्ता का मुख्य कारण रहा है।

आर्य समाज कोई मजहव नहीं वह तो एक आंदोलन है जो सब मजहवों की दीवारों को तोडना चाहता है और विश्वबन्धुत्व,मनुर्भव, कृण्वन्तोविश्वार्यम जैसे वेद सन्देशों को साकार करना चाहता है।

आर्य समाज अपने गुरु ऋषि दयानंद की तरह विष पीकर अमृत पिलाने में विश्वास रखता है। ऋषि दयानंद जी का मानना था कि जब तक भिन्न भिन्न मतमतान्तरों का विरुद्धावाद नहीं छूटेगा विश्व में एकता व शान्ति नहीं हो सकती । जब तक हिन्दू ऋषि दयानंद की एक एक बात को स्वीकार कर उसे आत्मसात नहीं करेगा तब तक वह दुष्ट यवनों व मलेच्छों का डट कर सामना नहीं कर सकेगा ।

पता नहीं कब यह बात हिन्दू भाईयों को समझ लगेगी , कब वे आर्यों को अपना असली मित्र व शुभचिंतक समझेगें ? कब वे सब अन्धपरम्पराओं का परित्याग कर यज्ञ व योग को अपनी दिनचर्या की अंग बनायेंगे ?

पशुबलि, पाषाणपूजा ,मांसभक्षण ,अवतारवाद,अद्वैतवाद ,राशि फल आदि वेदविरुद्ध मान्यताओं को छोडना ही होगा। निर्मल बाबा , रामरहीम, रामपाल, राधे मां जैसे पाखंडी गुरुओं और विभिन्न चैनलों पर सुबह सुबह लोगों का भविष्य व दु;ख दूर करने के टोटके बताने वाले मूर्खों के विरुद्ध आवाज उठानी ही होगी वरन् एक और लम्बी दास्ता को झेलना पड सकता है । सब प्रकार की शंकाओं के निवारण व धर्म कर्म की सही सही जानकारी के लिये महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय सभी मनुष्यों के लिए बहुत आवश्यक है।

स्व० स्वामी वेदानन्द ‘वेदतीर्थ’ ने देश विभाजन से पूर्व मुलतान आर्यसमाज में उपदेश देते हुए सत्यार्थ प्रकाश की गरिमा एवं महत्ता विषयक् रोचक संस्मरण सुनाया था, जो इस प्रकार है- “मैं एक बार हरिद्वार के मायापुर क्षेत्र में घूम रहा था। मैंने देखा कि कुछ सनातनी साधु ‘सत्यार्थप्रकाश’ लेकर आ रहे हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ। मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि अमुक स्थान पर महामना पं० मदन मोहन मालवीय जी यह पुस्तक साधुओं को बांट रहे हैं। मेरा आश्चर्य और भी बढ़ा।

मैं स्वयं वहां गया और साधुओं की पंक्ति में खड़ा हो गया। मेरी बारी आने पर मालवीय जी ने मुझे भी वह पुस्तक दी और कहा कि ‘बाबा इस पुस्तक को पढ़ना।’ मैंने उनसे कहा- “मैं एक नास्तिक की लिखी पुस्तक नहीं पढूंगा।” मालवीय जी ने पुनः पुस्तक ले लेने का आग्रह करते हुए कहा- ‘इस पुस्तक का पाठ करके तो देखो।’ तब मैंने पुनः कृत्रिम क्रोध में कहा- ‘जिस पुस्तक में हमारे देवी-देवताओं एवं पुराणों तथा मूर्ति पूजा का खण्डन किया गया है, मैं इसे पढ़ना तो क्या स्पर्श भी नहीं कर सकता।

आप क्यों मुझे विवश करते हैं?’ तब मालवीय जी मुस्कुराकर कहने लगे- ‘स्वामी जी! सनातनी तो मैं भी हूं। मूर्ति पूजक भी हूं। फिर भी मैं आपसे आग्रह करूंगा कि एक बार इस पुस्तक को अवश्य पढ़िये। क्योंकि इस पुस्तक में वह जादू है कि जो एक बार इसको पढ़ लेगा वह अपनी संस्कृति और धर्म से कभी पतित नहीं हो सकता, इसके विपरीत वह पतितों का उत्थान कर सकता है।’

ऋषि दयानन्द पर विजय पाना असम्भव था क्योंकि वे वैदिक वांड्मय और संस्कृत के अनुपम भण्डार थे। उनके शब्दों की धधकती हुई आग से उनके विरोधियों का विरोध भस्मसात हो जाया करता था। वे लोग जल की प्रबल बाढ़ के साथ दयानन्द की तुलना किया करते थे।

शंकराचार्य के पश्चात् दयानन्द जैसा योगी, धर्म धुरन्धर, वेदवित् भारत भूमि में उत्पन्न नहीं हुआ। उनकी शिक्षाओं को आत्मसात कर ही आर्यवर्त ( भारत ) को पुनः विश्व गुरु बनाया जा सकता है, रामराज्य लाया जा सकता है, धर्म की पुनर्स्थापना हो सकती है , कृण्वन्तोविश्वार्यम के वैदिक उदघोष को सार्थक किया जा सकता है और संगठन को मजबूत किया जा सकता है

*संगठन सूत्र -*
एक धर्म – वैदिक ।
एक भाषा – आर्य भाषा
एक उदेश्य- कृण्वन्तोविश्वमार्यम्कम् ।
एक पूजा पद्धति – यज्ञ व योग
एक इष्ट देव- ओम्।
एक धर्म ग्रन्थ – वेद ।

*इन्द्रो वर्धन्तु अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अपघ्नन्तोsरावणः*–
*ऋग्वेद 9।63।5* अर्थात्! हे सत्कर्मों में निपुण सज्जनो ! परमैश्वरीयशालियों को बढ़ाते हुए, पापियों का नाश करते हुए , सम्पूर्ण संसार को आर्य बनाओ । ईश्वर का यह आदेश मानवमात्र के लिए है।